आकार पटेल का लेख: कर्नाटक के चुनावी नतीजों के बाद उभरे वह 5 अहम सवाल, जिनपर जरूरी है बात

कर्नाटक में बीजेपी भले ही हार गई, लेकिन कम से कम अगले साल तक तो केंद्र में उसकी ही सरकार है। ऐसे क्या माना जाए कि क्या 2024 में भी लोग उसे खारिज कर देंगे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह।
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आकार पटेल

कुछ सवाल हैं जो विपक्ष से पूछे जाने चाहिए, और मुझे लगता है कि और लोग भी उनसे सवाल पूछेंगे। केंद्र या राज्य में शासन करने वाली पार्टी ही जवाबदेह है, इसलिए सवाल तो उसी पार्टी और उस पार्टी की अगुवाई करने वाले व्यक्ति से ही पूछे जाने चाहिए।

कर्नाटक का चुनाव अभी खत्म हुआ है, जिसमें प्रचार को दौरान प्रधानमंत्री ने कहा था कि बजरंग दल पर पाबंदी लगाना हनुमान जी पर हमला करना है। इसी बारे में छपी एक खबर की हेडलाइन थी, ‘ कांग्रेस घोषणापत्र में बजरंग दल पर पाबंदी का वादा किए जाने पर मोदी का बयान, पहले उन्होंने राम को बंद किया और अब हनुमान को करेंगे...’ इसके बाद मोदी ने कहा कि कांग्रेस कर्नाटक को भारत से अलग करने की कोशिश कर रही है। इस बारे में इंडियन एक्सप्रेस की हेडलाइन थी, ‘कांग्रेस के शाही परिवार का विदेशी ताकतों के दम पर कर्नाटक की मुक्ति का आह्वान- पीएम मोदी।’

और अब जबकि चुनाव खत्म हो गए और नतीजे भी आ गए जिसमें कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत हासिल किया है, तो क्या ऐसे में केंद्र सरकार उस दिशा में काकर्रवाई करेगी, जैसा कि प्रधानमंत्री का मानना था?

यह पहली बात है जिसके बारे में हमें सोचना होगा। कितने वोटरों ने इस बात पर यकीन किया होगा कि कांग्रेस कर्नाटक को अलग करने की बात कर रही है और उसे उन्होंने इसी आधार पर वोट दिया होगा? क्या प्रधानमंत्री को खुद उस बात पर  भरोसा था जो वह भाषण में कह रहे थे, या फिर वे सिर्फ वोटरों को डरा रहे थे? अगर वे सिर्फ डरा रहे थे, तो क्या किसी प्रधानमंत्री को ऐसा करना चाहिए? जवाब शायद हां होगा, क्योंकि लोकतंत्र में तो चुनाव प्रचार के दौरान सबकुछ जायज ही होता है, और छोटे-मोटे झूठ और आरोप तो चलते ही रहते हैं।

लेकिन जवाब शायद न भी हो सकता है क्योंकि प्रधानमंत्री को तो बहुत जिम्मेदारी से बोलना चाहिए। और शायद सही जवाब यही है कि प्रधानमंत्री ने जो बोला, वे उस पर भरोसा करते हैं और ऐसे में आशंका यही है कि वे कांग्रेस के साथ एक प्रतिद्वंदी के तौर पर नहीं बल्कि दुश्मन की तरह बरताव करेंगे। यह मान लेना सही नहीं होगा कि कुछ न कुछ तो जवाब होगा ही। लेकिन जो होना था सो हो चुका है इसलिए हमें इसे यूं ही नहीं छोड़ना चाहिए और अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या ऐसा कहना स्वीकार्य है। मेरी राय में यह बहुत गंभीर बात है और इसे सिर्फ एक चुनावी जुमला कहकर अनदेखा नहीं किया जा सकता।


जगदीश शेट्टर और बी एस येदियुरप्पा जैसे लोग जिन्होंने कर्नाटक में बीजेपी को स्थापित किया उन्हें तो चुनाव से पहले ही दरकिनार कर दिया गया था। उनकी राय को भी नजरंदाज़ कर दिया गया था। येदियुरप्पा ने तो कई इंटरव्यू में साफ कहा था कि वे बीडेपी द्वारा हिजाब, लव जिहाद जैसे मुद्दों को उछाले जाने से सहमत नहीं हैं। येदियुरप्पा ने ऐसा इसलिए नहीं कहा था कि वे निजी तौर पर इस सबसे सहमत नहीं थे, क्योंकि यह सब शासन के मुद्दे नहीं थे। वे तो इस आधार पर ऐसा बोल रहे थे क्योंकि उन्हें जनता के बीच भी जाना होता है और वे अपनी पार्टी को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि असली मुद्दे क्या हैं। लेकिन प्रधानमंत्री ने समझदार नेताओं की पुरानी पीढ़ी के स्थान पर, एक युवा और अधिक आक्रामक नेताओं के हाथों में बागडोर दे दी, जिन्होंने बीजेपी की बहुसंख्यकवादी राजनीति का ही प्रचार-प्रसार किया।

अब नतीजे सामने हैं। सवाल यह है बीजेपी ने वे सभी कदम उठाए जिन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुहर लगी हुई थी, भले ही उन्होंने सीधे-सीधे ये सब करने को निर्देशित न किया हो। तो फिर पार्टी की हार के लिए किसे जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए?

चुनावी नतीजों को महसूस करने के बाद एक दूसरी बात है जिस पर विचार होना चाहिए। यह इतिहास रहा है कि शहरी क्षेत्रों में देहात के मुकाबले कम वोटिंग होती है, लेकिन बेंगलोर जहां प्रधानमंत्री ने अपने रोड शो आदि से जान लगा दी थी, उसने पूरे राज्य के मुकाबले 15 फीसदी कम वोटिंग की है, और इस तरह बीजेपी ने मानो पहले ही रास्ता छोड़ दिया था।

अब आगे क्या: सिर्फ कन्नड़ गृहणियां और आम मजदूर ही महंगाई से परेशान नहीं हैं, एलपीजी सिलेंडर के दाम तो मैसूर, मेंग्लोर और अहमदाबाद, पटना और श्रीनगर में एक जैसे ही हैं। 2018 के आखिरी महीने से ही बेरोजगारीदर 6 फीसदी से ऊपर है, और कर्नाटक में भी रोजगार की स्थिति उत्तर प्रदेश से अलग नहीं है। सत्ता विरोधी लहर अकेले कर्नाटक बीजेपी की ही गलती नहीं है। यह कहना थोड़ा मुश्किल हो गा कि कर्नाटक बीजेपी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का देश के बाकी हिस्सों में कोई असर नहीं होगा क्योंकि अडानी मुद्दा तो अभी अदालतों और संसद में जिंदा ही है। मीडिया में भी यह मुद्दा है क्योंकि भले ही भारत के मीडिया पर जोरजबरदस्ती चलती हो लेकिन विदेशी मीडिया में तो अडानी मुद्दे की चर्चा है ही। और इससे भी बढ़कर बाजार में तो इसका असर दिख ही रहा है।

तीसरी बात जिस पर विचार के बजाए हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या कर्नाटक के शहरों और गांवों में बीजेपी के खिलाफ जो माहौल था क्या तब तक खत्म हो जाएगा जब लोकसभा चुनाव के लिए अगले साल बीजेपी नेता फिर से मतदाताओं के बीच होंगे। हो सकता है ऐसा हो, लेकिन इस सवाल को पूछना तो चाहिए ही।

और आखिरी बात जो हमें पूछनी चाहिए। क्या ध्रुवीकरण और विभाजन से जुड़े मुद्दे ही वोट देते समय लोगों के मन-मस्तिष्क में होते हैं, या फिर क्या ऐसे मुद्दे वाकई अस्तित्व में हैं और अगर हैं तो क्या लोगों के मन में इन मुद्दों को लेकर नकारत्मकता है?

और अगर ऐसा है, तो फिर क्या ऐसा हो जिसे हम मीडिया, राजनीतिक विमर्श, व्हाट्सऐप ग्रुप और आम बातचीत में शामिल करें? कोई देश राजनीतिक दलों और इसके नेताओं तक ही सीमित नहीं होता। देश बनता है इसके लोगों से और राजनीति वह नहीं है जिसे कुछ लोग अपनाते हैं, बल्कि वह होती है जिस पर लोग अपने तरीके से प्रतिक्रिया देते हैं।

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