आकार पटेल का लेख: मोदी सरकार का 8वां बजट-क्या फिर नीतियों के बजाए करिश्मे के सहारे छोड़ दी जाएगी अर्थव्यवस्था

मोदी सरकार कल यानी 1 फरवरी को अपना 8वां बजट पेश करेगी। जानकारी यह आई है कि इस साल गुड्स एंड सर्विसेस की जीएसटी, यानी अप्रैल 2021 से मार्च 2022 तक 11 फीसदी ज्यादा होगी, यानी अप्रैल 2020 से मार्च 2021 के मुकाबले इसमें 11 फीसदी की इजाफा होगा।

फोटो : ANI
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आकार पटेल

मोदी सरकार कल यानी 1 फरवरी को अपना 8वां बजट पेश करेगी। जानकारी यह आई है कि इस साल गुड्स एंड सर्विसेस की जीएसटी, यानी अप्रैल 2021 से मार्च 2022 तक 11 फीसदी ज्यादा होगी, यानी अप्रैल 2020 से मार्च 2021 के मुकाबले इसमें 11 फीसदी की इजाफा होगा। पिछले साल सरकार द्वारा पेश आर्थिक सर्वे में कहा गया था कि देश की जीडीपी 6 फीसदी रहेगी, लेकिन यह असल में सरकारी आंकड़ों और अनुमान के मुताबिक ही माइनस 7.7 फीसदी रहने का अनुमान है।

आने वाले साल में सरकार फिर दावा करेगी कि भारत तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है क्योंकि जीडीपी 2019 से 2022 के दो साल की अवधि में माइनस से बढ़कर 2.2 फीसदी तक पहुंच सकती है। निगेटिव विकास से पॉजिटिव विकास की तरफ जाने का एक आभासी चित्र सामने रखा जाएगा, जो हकीकत से दूर होगा। इस साल सरकार एक और बात कही कि 2019-20 में विकास दर, दरसअसल 4 फीसदी रही, जबकि पहले सरकार ने इसे 4.2 फीसदी बताया था। इन रुझानों को देखें तो साफ हो जाता है कि दरअसल हम आर्थिक मोर्चे पर कहां खड़े हैं।


मुद्दा यह ह कि मोदी सरकार का यह आठवां बजट है। हम मोदी भक्त हों या न हो, लेकिन अर्थव्यवस्था में सुधार के मोदी सरकार के किसी भी संभावित प्लान को समझ सकते हैं? हकीकत यह है कि हम नहीं समझ सकते हैं। एक मित्र के शब्दों में जो मोदी सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति पर बात कर रहा ता, “कुछ जुमले, कुछ आभासी शब्द और विज्ञापन बनाने लायक कुछ नारे मिलाकर नीति बन जाती है।” आज क्या किसी को याद है मेक इन इंडिया का क्या हुआ? इसका तो बहुत जोरशोर से ऐलान हुआ था, शेर की आकृति वाला इसका प्रतीक चिह्न भी बनाया गया था। मेक इन इंडिया के पीछे तर्क यह था कि भारत सेवा क्षेत्र पर जरूरत से ज्यादा निर्भर है। वैसे तो जीडीपी में इसका योगदान आधे से भी ज्यादा है लेकिन रोजगार पैदा करने में इसकी भागीदारी 25 फीसदी से भी कम है। ऐसे में जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ाकर हम औपचारिक क्षेत्र में रोजगार के नए मौके पैदा कर सकते हैं।

लेकिन वास्तविकता यह है कि मेक इन इंडिया लॉंच हे के बाद मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की जीडीप में हिस्सेदारी 15 से गिरकर 14 फीसदी पहुंच गई, और हो सकता है कि कोरोना आने के बाद यह 13 फीसदी ही पहुंच गई हो। जाहिर है इससे रोजगार उत्पन्न की स्थिति में भी बदलाव हुआ होगा। और इस तरह बेरोजगारी की दर मोदी शासनकाल से पहले के 4 फीसदी से बढ़कर 6 फीसदी और फिर बढ़कर 9 फीसदी हो गई। और यह आंकड़ा भी सही नहीं कहा जा सकता क्योंकि हम इतिहास की सबसे कम श्रम क्षेत्र की भागीदारी है।

यह निराशा की वह तस्वीर है जिसे लेकर आज देश भर में आंदोलन हो रहे हैं। मूल बिंदू पर लौटें तो आठ बजट कम नहीं होते देश की आर्थिक व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए। यह देश में आर्थिक सुधारों के जनक नरसिम्हा राव से अधिक ही हैं। यह वाजपेयी के कमोबेश बराबर हैं जिन्हें उदारवादी माना जाता था। लोगों को याद होगा कि वाजपेयी के दौर में जनसंघ ने सभी भारतीयों का वेतन 2000 रुपए निर्धारित करने की मांग की थी और कहा था कि इसके ऊपर जो भी आमदनी हो वह सब सरकार के खाते में जाए। जनसंघ के मुखिया के तौर पर वाजपेयी ने यह भी कहा था कि उनकी पार्टी सभी भारतीयों को इस बात के लिए मजबूर करेगी कि उनका घर 1000 गज में ही बन, इससे कम या ज्यादा न हो।


एक ऐसी समाजवादी विचार से वही वाजेपीय जब सरकार के मुखिया बने तो उन्होंने निजीकरण को बढ़ावा दिया। वाजपेयी का 2004 का चुनावी नारा शाइनिंग इंडिया आनी भारत उदय था। क्योंकि उनका मानना था कि उनकी आर्थिक नीतियों इतनी मजबूत और अलग हैं कि इनके दम पर वे सरकार बना लेंगे। लेकिन वे चुनाव हार गए। लेकिन ऐसा नहीं है कि अपनी नीतियों को लेकर कोई गलतफहमी थी। नीतियां तो ठीकठाक थीं। क्या हम कह सकते हैं कि ऐसा ही 2014 के बाद से भारत के साथ हो रहा है?

मोदी द्वारा बनाए गए नीति आयोग के पहले मुखिया एक ऐसे शख्स थे जो जीवन भर बिना पाबंदियों के और खुले ट्रेड की वकालत करते रहे कि इसी से देश आर्थिक विकास के पथ पर तेजी से दौड़ सकता है। इस शख्स का नाम है अरविंद पनगढ़िया, जो बीच में ही नीति आयोग छोड़ गए। आत्मनिर्भर का अर्थ है कि सस्ते विदेशी आयात पर भारी कर दरें लगाई जाएं ताकि भारतीय कंपनियां अपने उत्पादों को भारतीयों को ही ऊंचे दाम पर बेच सकें। क्या यह अच्छा अर्थशास्त्र है? पनगढ़िया कहते हैं कि नहीं, लेकिन हम ऐसा ही कर रहे हैं, यानी मोदी ने जो शुरु किया था उससे एक तरह का यूटर्न।

आठ बजट कोई छोटा वक्त नहीं होता। यह बताया जा सकता है कि हमने कहां से शुरु किया था और अब कहां हैं और यहां से आगे कहां पहुंचेंगे और कैसे। लेकिन इस कैसे का जवाब सरकार में बैठे लोगों के पास तक नहीं है। और ऐसा इसलिए नहीं है कि नीतियां या नीतियों का बखान करने का तरीका जटिल है, बल्कि इसलिए क्योंकि कोई बड़ी नीति है ही नहीं।

ऐसा कहा जा रहा है कि इस बार का बजट क्रांतिकारी होगा और खेल बदल कर रख देगा, ऐसा खेल जिसका भारत कब से इंतजार कर रहा है। वित्त मंत्री का बजट भाषण खत्म होने के बाद आपको ऐसा ही कुछ-कुछ आपको सुनने को मिलेगा।

लेकिन हम ऐसा ही सुनेंगे क्योंकि हम इस दौरान यह भूल जाएंगे कि बीते 8 बजट में क्या हुआ है। और हम ऐसा इसलिए सुनेंगे क्योंकि हम देश की अर्थव्यवस्था नीतियों और दूरदृष्टि से निर्धारित होने के बजाए करिश्मा और चालबाज़ियों से चलने दे रहे हैं।

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