एडल्टरी अपराध नहीं: प्रगतिशील कानूनों को समानता पर आधारित समाज की जरूरत

इन प्रगतिशील फैसलों के बाद भी महिलाओं को सच्ची समानता की लड़ाई जीतना अभी बाकी है, खासतौर पर छोटे शहरों और गांवों में जहां जाति पंचायतें और स्थानीय नेताओं का वर्चस्व है और लव जेहाद के नाम पर भीड़ खदेड़ने के लिए तैयार हो जाती है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

27 सितंबर को अपने एक ऐतिहासिक फैसले में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की बेंच ने पितृसत्ता के एक बड़े खंभे को उखाड़ फेंका जो पुरूष को अपनी विवाहिता पत्नी का मालिक करार देता था। इस फैसले को जस्टिस चंद्रचूड़ ने पढ़ा जो औपनिवेशिक दौर के एक कानून भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को खत्म करने के लिए जोसेफ शाइन द्वारा डाली गई याचिका पर आया। यह कानून पति को एडल्टरी के अपराध में दूसरे पुरूष के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज करने की अनुमति देता था। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि एक वयस्क के चुनने की आजादी महत्वपूर्ण है और यौनिकता को उसकी चाहत से अलग नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही ब्रिटिश शासन द्वारा 158 साल पहले लाया गया एडल्टरी कानून असंवैधानिक हो गया है जो “अन्यायपूर्ण, गैरकानूनी, और एकतरफा था और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन” करता था। जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की इस धारा ने असमानता को सांस्थानिक बना दिया था।

दिलचस्प है कि इंग्लैंड में लार्ड कीथ ने पहले ही 1991 में (हाउस ऑफ लार्ड्स में) यह फैसला दिया था कि “विवाह आज समान लोगों के बीच एक साझेदारी है, और इसमें अब कतई पत्नी अपने पति की इच्छाओं की गुलाम नहीं है।” लेकिन भारत को ऐसा करने में 27 साल ज्यादा लगे। हालांकि संघर्ष अभी जीत से काफी दूर है। मनुस्मृति में कहा गया है कि महिला को कभी भी एक स्वतंत्र प्राणी नहीं होना चाहिए। यह वो ग्रंथ है जो सामाजिक ऊंच-नीच और भारत के ज्यादातर हिंदुओं के रोजमर्रा के जीवन को नियंत्रित करता है। इसमें यह भी कहा गया है कि एक बेटी के नाते उसकी रक्षा पिता की जिम्मेदारी है, फिर पति की और पति के न रहने पर उसकी जिम्मेदारी बेटे की है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में इसे गलत करार देते हुए पुरूषों की महिलाओं पर कानूनी संप्रभुता को खत्म कर दिया है।

मार्क्स ने कहा था, “कानून के जरिये क्रांति नहीं आती।” इसलिए इन प्रगतिशील फैसलों के बाद भी महिलाओं को सच्ची समानता की लड़ाई जीतना अभी बाकी है, खासतौर पर छोटे शहरों और गांवों में जहां जाति पंचायतें और स्थानीय नेताओं का वर्चस्व है और लव जेहाद के नाम पर भीड़ खदेड़ने के लिए तैयार हो जाती है। धारा 498 जो दूसरे पुरूष की पत्नी के साथ भागने को जुर्म करार देता है, वह अब भी बना हुआ है। यह याद करना भी यहां जरूरी है कि केंद्र सरकार ने इस औपनिवेशिक कानून के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट में दलील दी थी और उसका आधार यह था कि यह ‘विवाह की पवित्रता’ को कायम रखता है। साफ है कि समाज में रातों-रात कोई बदलाव नहीं आएगा। इसके अलावा एक साफ राष्ट्रीय सर्वसम्मति इस बात को लेकर बननी चाहिए कि विवाह की संस्था में महिलाओं के समान अधिकार हों, और सिर्फ पुलिस और प्रशासन में नहीं बल्कि राजनीतिक वर्ग में भी। एक लड़की का हैरान करने वाला हालिया वीडियो, जिसमें पुलिस उसे दूसरे धर्म के लड़के से प्यार करने के लिए मार रही है, इस बात का सबूत है कि भारतीय पुलिस को अभी यह समझने में कुछ वक्त लगेगा कि महिलाओं की समानता का मतलब क्या है, खासतौर पर एक ऐसे प्रदेश में जहां के मुख्यमंत्री गौ-माता को एक मनुष्य से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं।

प्रगतिशील कानूनों की इस नई बयार को एक ऐसे समाज की जरूरत है जो बुनियादी रूप से समानता पर आधारित हो। समय के बदलने के साथ नए कानून आते हैं जो नई परिस्थितियों और उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं, लेकिन व्यवस्था को भी संरचनात्मक बदलाव लाने की जरूरत होती है जिसके जरिये जमीन पर नए कानूनों को लागू किया जा सके। भारत में महाभारत काल से, जब अर्जुन या भीम कई बार विवाह कर सकते थे और द्रौपदी को पांच पतियों को स्वीकार करना पड़ता था, परिवार और कुल के नियम और यौन नैतिकता पुरूषों को पुनर्उत्पादन पर अधिकार और नियंत्रण और यौन जीवन पर पूरी पकड़ प्रदान करते रहे हैं। ऐसे समाजों में पुरूषों द्वारा की गई जबरदस्ती को कानून निर्माताओं द्वारा महिलाओं की स्वाभाविक सहमति मान लिया जाता है। इसलिए संभावना यह है कि आने वाले दिनों में महिलाएं जबरदस्ती के यौन संबंधों से शायद मुक्त न हो सकें, लेकिन कानूनी तौर पर ऐसा माना जाए कि उनकी सहमति है क्योंकि ऐसा करने वाले, न्यायविद् और पुलिस वाले ज्यादातर पुरूष हैं।

भारत में सच्ची समानता को बदलाव की जरूरत है, सिर्फ वैचारिक मतों की नहीं। इसके साथ कानून और जीवन में एक नया रिश्ता भी होना चाहिए। समाज में पुरूषों का वर्चस्व ज्यादातर यौनिकता पर आधारित रहा है और जेंडर सारी विशिष्टताओं का मूल तत्व रहा है। जेंडर ही सत्ता विभाजन का जरिया रहा है और इसलिए यह एक सामाजिक व्यवस्था है। यह इस साधारण तथ्य से साबित होता है कि एडल्टरी कानून को खत्म करने के लिए की गई मांग किसी महिला नहीं, बल्कि पुरूष की तरफ से आई, और राज्य इस आधार पर धारा 497 को खत्म करने के मामले में उनका विरोध कर रहा था कि यह विवाह की पवित्रता का उल्लंघन करेगा। ऐसा माना जाता है कि विवाह जायज संतानों (प्राजाप्तये) के जन्म का साधन है। ग्रीक परंपरा में कहा गया है कि सारी चीजों का माध्यम पुरूष ही है। उपनिषद् में भी ऐसा ही कहा गया है, “पूर्णम पुरूषेण सर्वम” - पुरूष ही सारी चीजों को पूर्ण करता है। (श्वेतांबर उपनिषद् 3.9)

कुल मिलाकर एडल्टरी को अपराध से मुक्त करना एक तार्किक कदम है और बदलते समय को देखते हुए समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करने के मानस को एक कदम आगे ले जाता है। एडल्टरी अब तलाक का आधार हो सकती है, अपराध का नहीं। अगला तार्किक कदम यह साफ करना होना चाहिए कि सहमति से बनने वाले यौन संबंध का क्या अर्थ है और तलाक के लिए ऐसे कानून बनने चाहिए जो ज्यादा मानवीय और महिलाओं के लिए ज्यादा आसान हों।

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