हिंदी पट्टी की हताशा और नागरिकता बिल की आंच से पूर्वोत्तर में कुम्हलाया कमल, बंगाल में भी हाथ जला बैठी बीजेपी

बीजेपी का मूड बंगाल के माहौल से मेल नहीं खाता, लेकिन फिर भी कुछ लोग उसमें एक विकल्प देख रहे थे। लेकिन बीजेपी की इस हरकत और ममता के दमदार पलटवार ने खेल बिगाड़ दिया है।

फोटो : सोशल मीडिया
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अभिज्ञान शेखर

बंगाल को लेकर बीजेपी बेचैन है। ये बेचैनी ही ममता बनर्जी से उसके हालिया और सीधे टकराव की वजह बन गयी। अब तक अमित शाह और कैलाश विजय वर्गीय ही बंगाल में बवाल मचा रहे थे। इस बार सीबीआई की आड़ में सीधे मोदी सरकार ही मैदान में कूद गई। मगर बंगाल का मामूली मतदाता भी (जिसे मामूली कहना ही पाप है) जानता है कि शारदा स्कैम बहाना है, दरअसल आम चुनाव निशाना है। पार्टी की असल बेचैनी बंगाल की 42 सीटें हैं, जिनमें वो बड़ी सेंध मारने की फिराक़ में है। हालांकि इस पर काम तो 2014 में सरकार बनने के साथ ही शुरु हो गया था, लेकिन अचानक बढ़ी हलचल चौंकाती है।

30 हज़ार करोड़ के इस भयावह शारदा चिट फ़ंड घोटाले का ख़ुलासा 2013 में ही हो गया था। इसमें साज़िश और लूट के अलावा तक़रीबन 40 लोगों की संदिग्ध मौत भी हुई। मई 2014 तक मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट के जरिए सीबीआई के हाथ में चली गयी। तब तक केन्द्र में मोदी सरकार आ गयी। इस बीच ममता बनर्जी की पार्टी के दो सांसद कुणाल घोष, सृंजय बोस और एक मंत्री मदन मित्रा जेल भी गए। लेकिन इस घोटाले का ममता बनर्जी पर सियासी असर कितना पड़ा, ये इसी से समझ लीजिये कि 2011 में 184 विधान सभा सीटें पाने वाली ममता को 2016 में बढ़ कर 211 सीटें मिलीं।

मगर तब से अब तक ठंडी पड़ी जांच की आंच अचानक भड़क क्यों उठी ? अब तक केस का तक़िया बनाकर सोयी पड़ी सीबीआई आम चुनाव से ठीक पहले जाग कैसे उठी ? इसका जवाब आपको बंगाल में नहीं ‘हिंदी हर्ट लैंड’ में मिलेगा।

यूपी-बिहार की जिस गोबर पट्टी से 2014 के चुनाव में बीजेपी 120 में से 105 सीटें लेकर आई वहां खड़ा हो रहा महागठबंधन पार्टी के होश उड़ा देने वाला है। इसकी तपिश का अहसास यूपी में गोरखपुर और फूलपुर की हार से हुआ। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो जिस तरह कांग्रेस ने बीजेपी को पटखनी देकर सत्ता पर कब्ज़ा किया, वो भी लोकसभा चुनाव से पहले अशुभ संकेत ही है।

इन तीनों राज्यों में कुल 65 लोकसभा सीटें हैं, जिनमें 2014 की कथित मोदी लहर में कुल 61 सीटें बीजेपी ने हथिया ली थीं। लेकिन अगर विधान सभा चुनाव 2018 के नतीजों के आंकड़ों से प्रोजेक्शन बनाएं तो बीजेपी को अच्छा खासा नुकसान होता दिख रहा है।

जाहिर है इन नतीजों पर संघ परिवार के चाणक्यों की भी मायूस नज़र है और मोदी शाह की जोड़ी को इसकी भनक है। इसकी भरपाई आख़िर कहां से होगी ?

दरअसल बीजेपी ने नई ज़मीनें तोड़ने की कवायद इसीलिए शुरु भी की थी। इसके पीछे असल दिमाग़ ‘नागपुर के वॉर रूम’ का है। मोदी-शाह की जोड़ी तो बस उनके एक्शन प्लान पर अमल कर रही है। ये नयी ज़मीनें हैं उत्तर-पूर्व की। यानी असम, त्रिपुरा, मिज़ोरम, नागालैंड, मणिपुर, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश की कुल 25 लोकसभा सीटें। इनमें असम और त्रिपुरा विधान सभा पर तो बीजेपी ने साम, दाम, दंड, भेद से कब्ज़ा कर लिया, बाकी के राज्यों का हाल ये है कि वो सत्ता के साथ सरक लेते हैं।

असम में लोकसभा की 14 सीटे हैं और त्रिपुरा में दो। जब असम में तरूण गोगोई की गद्दी हिलनी शुरु हुई तो 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 7 सीटें हासिल कीं और कांग्रेस को मिलीं सिर्फ 3, जबकि 2009 में जब कांग्रेस चरम पर थी, इतनी ही यानी 7 सीटें उसकी झोली में थीं। त्रिपुरा में तो खैर बीजेपी ने पहली बार पांव ही धरा है।

लेकिन कहावत है कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वो शहर की ओर भागता है। बीजेपी के बुरे दिन आते हैं तो वो संघ के एजेंडे पर अमल करती है, जो न देश के ‘फ़ेडरल स्ट्रक्चर’ को रास आता है न देश के तमाम हिस्सों की तबीयत से मेल खाता है। मामला नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) तक था तो भी गनीमत थी, लेकिन जब बात नागरिकता संशोधन बिल की आई तो पूरा उत्तर पूर्व ही उबल पड़ा। सबसे ज्यादा खौल रहा था असम जहां से बीजेपी को सबसे ज्यादा उम्मीदें थीं।

गनीमत है कि संसद का सत्र समाप्त हो गया और नागरिकता संशोधन विधेयक खुद ही ‘लैप्स’ हो गया, वर्ना हालत ये थी कि जिस उत्तर पूर्व को लुभाने के लिए भूपेन हजारिका को भारत रत्न दिया गया (हालांकि वो इसके पूरे हकदार हैं) उनके बेटे ने ही इसे लेने से इनकार कर दिया। असम गण परिषद ने आनन-फानन में एनडीए ही छोड़ने का ऐलान कर दिया। त्रिपुरा का हाल भी कुछ ऐसा ही था जहां तक जाने के लिए ही बांग्लादेश के गलियारे से गुज़रना पड़ता है। प्रधानमंत्री के अरुणाचल दौरे तक का जोरदार विरोध हुआ।

दरअसल संघ परिवार हर मामले को सांप्रदायिक चश्मे से देखता है और उत्तर-पूर्व में सवाल ‘एथिनिसिटी’ यानी क्षेत्रीय और जातीय पहचान का है। वहां नागालैंड और मणिपुर पड़ोसी होकर भी महीनों सुलगते रह सकते हैं चाहे घर में खाने का एक दाना तक न बचे।

हालांकि फिलहाल आप मामला संभला हुआ मान सकते हैं; लेकिन कितना, कहना मुश्किल है !

अब लौटिए बंगाल पर, सच ये है कि यहां बीजेपी की तैयारी 2019 के लोकसभा चुनाव से ज़्यादा 2021 के विधान सभा चुनाव के लिए थी। पार्टी वहां कई तरह के खेल खेल रही थी। माल्दा, मुर्शिदाबाद जैसी जगहों पर हिन्दू-मुसलमान, तो कूच बेहार और पुरुलिया जैसे इलाकों में बिहारी हिंदी भाषियों में घुसपैठ, झाड़ग्राम जैसी जगहों पर आदिवासियों पर डोरे। शहरी वोटरों को लुभाने के लिए सुभाष चंद्र बोस का नाम, श्यामा प्रसाद मुखर्जी से अपने रक्त संबंधों की याद और आख़िर में प्रणव मुखर्जी को भारत रत्न जिन्हें पार्टी पहले ही नागपुर भी ले जा चुकी है, भले ही वो वहां से आइना दिखा कर लौटे हों।

लेकिन जब हिंदी भाषी राज्यों में अंकगणित बिगड़ता नज़र आया तो पार्टी ने बंगाल का मोर्चा खोला। शारदा स्कैम के बहाने सीधे ममता सरकार को निशाने पर लिया गया। हालांकि पार्टी भूल गयी कि इसके छींटे दो ऐसे लोगों पर भी हैं जो अब उसके अपने हैं, पूर्व तृणमूल नेता और रेल मंत्री रहे मुकुल रॉय और असम के ताकतवर वित्त मंत्री हिमंत बिस्व सरमा।

मगर इस हड़बड़ी का हासिल क्या है ?

जवाब कोलकाता के मारवाड़ी समुदाय में ख़ासे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक राजस्थान पत्रिका के एक वरिष्ठ पत्रकार देते हैं -

“देखिए, एक माहौल बन तो रहा था बीजेपी के लिए, हलचल भी थी। हालांकि बीजेपी का मूड बंगाल के माहौल से मेल नहीं खाता, लेकिन फिर भी कुछ लोग उसमें एक विकल्प देख रहे थे। लेकिन बीजेपी की इस हरकत और ममता के दमदार पलटवार ने खेल बिगाड़ दिया है। आम बंगाली फिर बीजेपी में हमलावर और घुसपैठिया ही देखने लगा है।“

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