आकार पटेल का लेख: 'अग्निपथ' का विरोध भले ही ठंडा पड़ जाए, लेकिन 'न्यू इंडिया' में हैं नहीं पर्याप्त नौकरियां

अग्निपथ योजना उसी कड़ी का हिस्सा है जिसमें कृषि कानून, सीएए, नोटबंदी और लॉकडाउन जैसी घोषणाएं हुई हैं। इन सभी को सरकार ने घोषित पहले कर दिया और इसके नतीजों के बारे में बाद में सोचा।

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आकार पटेल

अग्निवीर मुद्दे पर भी सरकार ने फैसला पहले ले लिया और इसके नतीजों के बारे में बाद में सोचना शुरु किया। जो सिर्फ प्रयोग के तौर पर सेना में भर्ती की प्रक्रिया के एक छोटे से हिस्से में होना था, अचानक उससे पूरी प्रक्रिया को ही बदल डाला गया। अब धड़ाधड़ संशोधन किए जा रहे हैं, पहले 21 साल से ऊपर के युवाओं को सिर्फ इस साल आवेदन की छूट दी, फिर बेरोजगार होने वाले अग्रिवीरों को अर्धसैनिक बलों में आरक्षण का ऐलान हुआ, इस सबसे साफ होता है कि जिन भी लोगों ने यह योजना बनाई है उन्हें इसके बार में गहनता से विचार किया ही नहीं।

इस मुद्दे पर हिंसा होने की आशंका थी ही। इसी साल, इसी तरह की घटनाएं उन्हीं जगहों पर हुई थीं जब रेलवे में भर्ती की प्रक्रिया में घालमेल हुआ था। इस योजना के जरिए उन युवाओं को संदेश दे दिया गया कि दो साल से (महामारी के कारण भर्ती प्रक्रिया बंद थी) सेना में भर्ती होने की जो युवा तैयारी कर रहे थे, अब वह मौका नहीं मिलेगा। उन्हें अब उस तरह सेना में सेवा का मौका नहीं मिलेगा जिस तरह उनके पिता या पुरखों ने सेना में सेवाएं दीं और सम्मान से रिटायर होकर आजीवन फौजी का तमगा लिए रहे। अब इन युवाओं को ठेके पर सेना में भर्ती किया जाएगा और चार साल बाद कहा जाएगा कि अब घर जाओ। आखिर इसके लिए तो ये युवा तैयारी नहीं कर रहे थे। हिंसा की घटनाओं के लिए सरकार विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रही है लेकिन इस आरोप में कोई विश्वसनीयता नहीं है।

एक संकेत ऐसा है जिससे लगता है कि सरकार को इस योजना लागू करने के बाद समस्याएं सामने आने का अनुमान था, और वह यह है कि प्रधानमंत्री ने खुद इस योजना को लॉन्च नहीं किया। इस योजना के लिए सरकार ने रक्षा मंत्री और सैन्य प्रमुखों को मैदान में उतारा। मोदी भक्त कहेंगे कि इसमें क्या बुराई है और बात भी सही है कि यही तरीका होना भी चाहिए। लेकिन फिर बात आती है कि 2014 के बाद से तो ऐसा नहीं हो रहा है। कुछ भी महत्वपूर्ण हो रहा हो तो सिर्फ एक ही शख्स कैमरे के सामने आता है और बताता है कि कोई महान काम किया जा रहा है। लगभग 225 साल की भर्ती प्रक्रिया की परंपरा को रातोंरात बदलने वाली मास्टरस्ट्रोक योजना का तो सिर्फ मोदी को ही ऐलान करना चाहिए था।

अब देखें तो अग्निपथ योजना उसी कड़ी में शामिल हो गई है जिसमें कृषि कानून, सीएए, नोटबंदी और लॉकडाउन जैसी घोषणाएं शामिल हैं जिन्हें सरकार ने घोषित और लागू पहले कर दिया और फिर इसके परिणामों के बारे में बाद में सोचा। सवाल है कि क्या अग्रिपथ योजना का हश्र भी कृषि कानूनों और सीएए की तरह होगा जिन्हें या तो वापस ले लिया गया या विरोध के चलते ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। मेरे विचार में अग्रिपथ योजना लागू हो ही जाएगी क्योंकि इस तरह की हिंसा लंबे समय तक नहीं चल सकती और विरोध कर गुस्सा जता रहे अंतत: थक कर अपने घरों को लौट जाएंगे।


बेरोजगारी के मुद्दे पर आंदोलन पहले भी हुए हैं, मसलन 2015 में गुजरात में हुआ पाटीदार आंदोलन सामने है। शुरु में कुछ ही दिनों के अंदर यह जनांदोलन बन गया था लेकिन फिर यह ठंडा पड़ गया और वह भी नौकरियों में आरक्षण की मांग पूरी हुए बिना ही। सिर्फ सीएए और किसानों का आंदोलन ही ऐसा है जो शांतिपूर्ण तरीके से लंबे समय तक चला और आखिरकार उसमें जीत हुई। बेहतर होता कि युवाओं ने अग्निपथ योजना के विरोध के लिए भी वही तरीका अपनाया होता और लंबे संघर्ष के साथ सड़क पर उतरते। लेकिन इनके पास कोई संगठित नेतृत्व नहीं था और युवाओं का कोई ऐसा औपचारिक समूह भी नहीं था जो इस दिशा में सोचता।

मसला यह है कि बेरोजगारी या बेकारी ऐसा मुद्दा है जिसे आत्मग्लानि होती है। ऐसे लोगों को जमा करना और सड़क पर उतारना आसान नहीं है जो काम न करने वाले लोगों के साथ खुद को जोड़ना चाहें। और अगर वे साथ आ भी जाएं (जैसाकि इस साल दो बार हुआ है) तो वे अपनी भावनाओं और गुस्से बेतरतीब तरीके से सामने रखते हैं न किसी किसी शांतिपूर्ण संगठित आंदोलन के रूप में। यही कारण है कि मुझे लगता है कि जल्द ही यह आंदोलन भी शांत हो जाएगा और सरकार अपनी अग्निपथ योजना को लागू कर देगी। मुझसे कहीं ज्यादा काबिल लोगों ने इस योजना की खूबियों-खामियों के बारे में लिखा है, लेकिन अगर कोई दोनों तरफ के तर्क ध्यान से सुने तो स्पष्ट हो जाता है कि इस योजना में कई किस्म की खामियां हैं जबकि खूबी सिर्फ यह है कि इससे खर्च कम करने में मदद मिलेगी।

और आखिरी बात जो गौर करने लायक है वह यह कि बेरोजगारी के मुद्दे पर लोगों को जमा करना थोड़ा कठिन काम है, और यह समस्या बेहद गहरी है और आसानी सेखत्म होने वाली भी नहीं है। इसी महीने सरकार द्वारा जारी पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे में सामने आया है कि देश में नई नौकरियां सृजित होने के बजाए कम हो रही हैं। पूरे 17 फीसदी लोग जिन्हें रोजगार वाला माना गया है वे बिना वेतन के घरेलू काम की श्रेणी है, यानी ये गृहणियां हैं।

और इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है कि लोग मैन्यूफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर से निकलकर कृषि क्षेत्र में जा रहे हैं। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यह छद्म बेरोजगारी है। यानी जो लोग काम छोड़कर शहरों से गांवों में आ गए हैं वे दावा तो कर रहे हैं कि वे कृषि कर रहे हैं, लेकिन दरअसल उन्हें यह बताने में संकोच हो रहा है कि वे बेरोजगार हैं।


कुल मिलाकर स्थिति यह है कि सरकारी और निजी फर्म सीएमआईई के आंकड़ों में कोई अंतर नहीं है, और ये आंकड़े बताते हैं कि 15 से ऊपर आयुवर्ग के ऐसे लोग जो काम कर रहे हैं या काम तलाश रहे हैं उनकी संख्या 40 करोड़ है। यह भागीदारी पूरे दक्षिण एशिया में सबसे कम है। न्यू इंडिया में नौकरियां नहीं हैं और सेना में भर्ती की अग्निपथ योजना ने आग में घी का काम किया है।

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