ऑल दैट ब्रीद्सः दिल्ली के दो भाइयों का जुनून, जो बन गया सह-अस्तित्व और बंधुत्व का संदेश

जिन तीन सालों में फिल्म शूट हुई, उसी दौरान सीएए को लेकर आंदोलन चरम पर था। 2020 के पूर्वार्ध की इस परिघटना और प्रदर्शनों के दौरान भड़की हिंसा ने दिल्ली के इस इलाके को खासा प्रभावित किया। चंद कदम दूर सऊद और नदीम का घर भी इस सब से प्रभावित हुए बिना कैसे रहता।

फोटोः नवजीवन
फोटोः नवजीवन
user

अखिल कात्याल

मोहम्मद सऊद लगभग ग्यारह साल का रहा होगा जब उसने एक घायल चील को पहली बार बचाया था। तीन साल बड़े भाई नदीम शहजाद के साथ वह उस चील (ब्लैक काइट) को दिल्ली में अपने घर के पास वाले पक्षियों के प्रसिद्ध अस्पताल में लेकर गया। लेकिन अस्पताल ने घायल चील का इलाज करने से यह कहकर मना कर दिया कि वह ‘मांसाहारी पक्षी’ था। सऊद बताते हैं: “यही वह घटना है जिसने हम पर असर डाला”। सऊद कहते हैं: “क्या हुआ अगर यह मांसाहारी पक्षी है। क्या इसे इलाज का अधिकार नहीं! क्या इसे ठीक नहीं होना चाहिए?” दोनों भाई यकीन नहीं कर पा रहे थे कि महज इस एक छोटे से अंतर के कारण इस पक्षी को इलाज देने से माना किया जा सकता है।

शौनक सेन की डॉक्यूमेंट्री ‘ऑल दैट ब्रीद्स’ (2022) इन्हीं दो भाइयों और उनके सहायक सालिक रहमान के इर्द-गिर्द घूमती है जो उत्तरी दिल्ली में वजीराबाद के अपने बेसमेंट में ‘बर्ड क्लिनिक’ चला रहे हैं। इनका मकसद अपने शहर के पक्षियों, खासकर आसमान से घायल होकर गिरने वाली चीलों को बचाकर उनका इलाज करना, उन्हें जीवन देना है क्योंकि चीलों का इस तरह घायल होकर गिरना आम बात है।

यह संयोग ही था कि जिन तीन सालों में फिल्म शूट की गई, उसी दौरान सीएए को लेकर आंदोलन उरूज पर था और इसने मुसलमानों के बीच नागरिकता के सवाल को लेकर ज़बरदस्त बहस नए सिरे से छेड़ दी थी। 2020 के पूर्वार्ध की इस परिघटना और विरोध-प्रदर्शनों के दौरान भड़की हिंसा ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली के इस इलाके को खासा प्रभावित किया। चंद कदम दूर सऊद और नदीम का घर भी इस सब से प्रभावित हुए बिना कैसे रहता।

फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जहां यह फिल्म किसी ‘विजय गीत’ सरीखी लगने लगती है, खासतौर से तब जहां ‘पड़ोसी होने का धर्म’ का निर्वहन करते हुए तीन इंसान सहानुभूति के एक ऐसे अनुबंध पर हस्ताक्षर करते दिखते हैं जिसका हासिल अपने आसपास की गैर इंसानी दुनिया के लिए कुछ करने में है। ऐसा करते हुए फिल्म बहुत धीरे-से जीवन के सारे रंगों को एक करते हुए बिना किसी भेदभाव के एक सार्थक सह-अस्तित्व की भावना को स्थापित करने में सफल होती है चाहे वह प्रजातियों की बात हो या भरोसे की। बहुत शालीनता से, बिना किसी भारी-भरकम शब्द या फ्रेम के फिल्म पारम्परिक तौर पर तय की गई रेखाओं से परे जाकर अपना संदेश दे जाती है और वह है क्रूरता या अनुचित के खिलाफ खड़े होना, समानता और बंधुत्व के महीन धागे को महसूस कर उन्हें पकड़ना और इसके लिए उन सभी तरीकों को आजमाना जहां हम औरों से अलग हो सकते हैं। सालिक, नदीम और सऊद कुछ भी हों, सबसे पहले वे पक्षियों के लिए एक अच्छे पड़ोसी हैं।


कौन (या क्या) है पड़ोसी? वे जो हमारे पास रहते हैं? एक इतना सामान्य सा शब्द लेकिन इतने अर्थों वाला। इतना कुछ दांव पर! पड़ोसी एक ऐसा शब्द है जो हमसे पूछता है: हम अपने पास किसे होने की अनुमति देते हैं? पड़ोसीपन का वास्तविक भाव हमेशा जटिल रहा है, इसमें एक तरह की नैतिक सौदेबाजी होती है जिसका न्यूनतम हर भागीदार (पड़ोसी) को निर्वहन करना होता है। पड़ोसी होने का धर्म हमसे कुछ सवाल करता है: हम (दूसरों से) क्या उम्मीद करते हैं जो हमारे इतने करीब हैं और शायद इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि उन्हें हम अपने से क्या उम्मीद करने देंगे?

क्या यह महज हमारी सहज स्वाभाविक शंका मात्र है कि जो हमारे पास है लेकिन हम नहीं। क्या यह घबराहट, पैनी नजर वाली सतर्कता होगी कि देखें अगले क्षण वे क्या कर सकते हैं, या यह एक तथ्य की तटस्थता होगी जो परस्पर बगलगीर बने रहने का अहसास कराएगी। या, क्या यह पड़ोसीपन होगा जैसा कि शास्त्र इसे समझते हैं, एक प्रकार की अनुग्रहपूर्ण एकता या सह-अस्तित्व जिसमें हम एक दूसरे से समझ और उदारता की उम्मीद भी कर सकते हैं? जहां हम हो सकते हैं और जैसा कि मैथ्यू का कहना है: “अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो”- पड़ोसीपन का वह रूप जिसमें स्वयं को दूसरों में देखने के लिए तैयार हैं, खुद को यह महसूस करने दें कि दूसरा क्या महसूस करता है।

फिल्म ‘ऑल दैट ब्रीद्स’ के मध्य में एक संवाद है जहां दोनों भाइयों में से एक विचारशील मुद्रा और स्वर में अपनी सर्वाधिक कोमल संवेदना के क्षण को याद करता है। अपनी पूरी बाल्यावस्था के दौरान वह यही सोचता रहा: अगर वह एक पक्षी होगा तो कौन सा होगा? उसकी चोंच, उसके पंजे, उसके पंख, आवाज कैसी होगी? और जब वह इस शहर के ऊपर से उड़ेगा तो शहर उसे कैसा लगेगा? इसी कौतुक में वह पक्षी बन जाता है और अपने शहर को उसकी आंखों से देखता है, उसी भाव में डूबा रहता है।

किसी को अपने जैसा प्यार करना! यह मुश्किल काम है। यह सब शायद बचपन की यादों में, सपनों की दुनिया में ही इतनी सहजता से संभव है… वह लगभग तत्काल ही इस लगभग असंभव को उसकी असंभवता के रूप में दर्ज कर लेता है। लोग कहते हैं कि आप चील के साथ कितना भी वक्त बितायें, उसकी कितनी भी परवाह करें, आप उसे समझ नहीं सकते हैं। लेकिन आप कोशिश करें, यकीन मानिए आप भरोसे की कई छलांगें भर पाएंगे।


दोनों भाई जैसे ही काम पर निकलते हैं, उनकी खिड़कियों और बालकनियों से सीएए विरोधी प्रतिरोध की आवाजें सुनी जा सकती हैं, जिनमें विश्वास और उत्साह के स्वर हैं। आस-पड़ोस के शामियानों और जमावड़ों की गूंज उनकी दुनिया पर छा जाती है, और सह-अस्तित्व का ऐसा मिला जुला स्वर निकलता है जिसमें असमानता किसी भेदभाव का कारण नहीं बनती। जिसमें हम क्या खाते हैं, किस भगवान में हमारी आस्था है, हम कैसे कपड़े पहनते हैं, हम उड़ते हैं या चलते हैं। अंतर हममें से प्रत्येक के साथ मौलिक समानता को मिटा नहीं देते हैं। नदीम और सऊद की मां कहा करती थीं:  “जो-जो चीजें सांस लेती हैं, उन्मे कोई फर्क नहीं दिखना चाहिए”। अब उनके बाद उनके बेटे कहते हैं: “ज़िंदगी खुद एक तरह की रिश्तेदारी है”। हर दिन क्रूर होते जाते समय में बर्बाद हो रहे अपने शहर को देख दोनों भाई पड़ोसी होने के अपने अहसास के साथ उसे अपनी ओर बुलाते हैं, उसके थोड़ा और करीब जाते हैं, बिना किसी बड़ी उमीद के।

(अखिल कात्याल कवि हैं और दिल्ली में रहते हैं)

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia