जी-20 के सफल आयोजन के जश्न के बीच जानना जरूरी कि इस मखमली कालीन के नीचे क्या है?

पश्चिमी देशों, खास तौर पर अमेरिका की रणनीति यह है कि पूर्व-पश्चिम के टकराव के मामले में भारत को पारंपरिक तटस्थता से धीरे-धीरे दूर करके उसे भारत-प्रशांत क्षेत्र में राजनीतिक और रक्षा मामलों में अपना सहयोगी और सक्रिय भागीदार बनाना।

Getty Images
Getty Images
user

आशीस रे

यूरोपीय राजधानियों से जी-20 शिखर सम्मेलन के बारे में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उससे पता चलता है कि जी-7 देशों ने भारत को अपना चेहरा बचाने और अपनी सफलता का ढोल पीटने का मौका दिया। अगर सम्मेलन सफल नहीं होता तो स्वाभाविक तौर पर यह मेजबान देश की विफलता होती। लेकिन सवाल यह उठता है कि जी-7 की इस मदद की कीमत क्या है?

नई दिल्ली घोषणा पर सहमति बनाना चुनौतीपूर्ण काम था। 2022 में इंडोनेशिया के बाली में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन की विज्ञप्ति में यूक्रेन का मामला जोड़ते हुए रूस को आक्रमण का दोषी बताया गया और इसका परिणाम यह हुआ कि रूस और चीन ने बयान से खुद को अलग कर लिया। दूसरी ओर, दिल्ली घोषणापत्र पर दोनों ने न केवल दस्तखत किए बल्कि अपने-अपने तरीके से जीत का दावा भी किया।

रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव की टिप्पणी ने सारा खुलासा कर दिया: ‘हम शिखर सम्मेलन के एजेंडे के यूक्रेनीकरण के पश्चिम के प्रयासों को रोकने में कामयाब रहे।’ वहीं, चीनी विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया थी कि घोषणा ने दुनिया को ‘सकारात्मक संकेत’ भेजा है।

अहम बात यह है कि इन दोनों ही देशों का प्रतिनिधित्व उनकी सरकार के प्रमुख ने नहीं किया। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और उनके चीनी समकक्ष शी जिनपिंग सम्मेलन में नहीं आए जिसमें अफ्रीकी संघ को 21वें सदस्य के तौर पर जी-20में शामिल करने का महत्वपूर्ण फैसला हुआ।

पुतिन अगस्त में जोहान्सबर्ग में हुई ब्रिक्स की बैठक में भी शामिल नहीं हुए थे क्योंकि वह पश्चिम समर्थित यूक्रेनी जवाबी हमले से निपटने में व्यस्त थे। इसी वजह से वह जी-20 में भी नहीं आए। लेकिन इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं था कि मॉस्को नई दिल्ली के साथ खड़ा होगा। दोनों देशों के बीच विशेष संबंध जो अब लेन-देन तक सीमित हो गए हैं, इसके बावजूद लावरोव दिल्ली में थे। उन्होंने यूक्रेन में रूस के कार्यों की अप्रत्यक्ष आलोचना को नजरअंदाज कर दिया। लेकिन चीन के इरादों को लेकर पश्चिमी देश जरूर अनिश्चित थे और उन्होंने रंग में भंग डालने के किसी भी चीनी प्रयास को रोकने का मन बना रखा था।

इसमें संदेह नहीं कि मौजूदा समय में रूस को लेकर पश्चिमी देशों में खासी नाराजगी है लेकिन जी-7 का असली नेता अमेरिका के लिए चीन प्रतिद्वंद्वी नंबर-1 है। चीन के ऐसे किसी भी प्रयासों को विफल करने और इस तरह भारत की छवि बचाने के संकल्प के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन दिल्ली जी-20 में आए।

यह रणनीति ऐसे ही नहीं थी, इसके पीछे एक सोची-समझी रणनीति थी। पश्चिमी देशों, खास तौर पर अमेरिका की रणनीति यह है कि पूर्व-पश्चिम के टकराव के मामले में भारत को पारंपरिक तटस्थता से धीरे-धीरे दूर करके उसे भारत-प्रशांत क्षेत्र में राजनीतिक और रक्षा मामलों में अपना सहयोगी और सक्रिय भागीदार बनाया जाए।


कांग्रेस पार्टी के शासन में कभी भी- जवाहरलाल नेहरू से लेकर अमेरिका के साथ ऐतिहासिक करार करने वाले मनमोहन सिंह तक- भारत का झुकाव पश्चिम की ओर उतना नहीं हुआ जितना मोदी शासन के पिछले नौ वर्षों में हुआ है। यहां तक कि भारत ने तब भी गुटनिरपेक्षता की नीति को नहीं छोड़ा जब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की सैन्य सहायता देने के वादे के बाद चीन को अरुणाचल प्रदेश के कब्जाए हिस्से को छोड़कर पीछे हटना पड़ा था। चीन ने 1962 के हमले में अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्से को अपने कब्जे में ले लिया था।

इसके उलट, जब रिचर्ड निक्सन ने 1971 में भारत के खिलाफ संभावित सैन्य कार्रवाई की आक्रामकता दिखाई तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मैत्री संधि के लिए सोवियत संघ का रुख किया। इसका नतीजा भारत की सबसे बड़ी सैन्य विजय थी जिसने पाकिस्तान को विभाजित कर बांग्लादेश को जन्म दिया। लेकिन तब भी भारत सोवियत खेमे का हिस्सा नहीं बना और 1979 में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया तो श्रीमती गांधी ने भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति के अनुकूल ही इसका विरोध किया।

जी-20 शिखर सम्मेलन की पूर्व संध्या तक जब घोषणापत्र पर हो रही बातचीत यूक्रेन के मुद्दे पर गतिरोध की ओर बढ़ रही थी, तब पश्चिम देशों ने भारत को अपनी छवि बचाने का रास्ता दिया। अमेरिका जानता है कि रूस के मामले में भारत की स्थिति में तत्काल बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन उसका मानना है कि अगर जी-7 देश और इजराइल हथियारों के मामले में रूस पर भारत की निर्भरता को खत्म कर दें, तो भारत के लिए भी रूस के प्रति अपने रुख को बदलना आसान हो जाएगा।

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटेजिक स्टडीज का अनुमान है कि भारत के सैन्य हार्डवेयर का लगभग 45 फीसदी आयात अब भी रूस से होता है। हकीकत यह है कि रूस में निर्मित, भारत में संयुक्त रूप से निर्मित (प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के आधार पर), ये युद्धपोत, लड़ाकू विमान, मिसाइलें और टैंक भारत के रक्षा उपकरणों की रीढ़ हैं। इस निर्भरता को कम करने का लक्ष्य 1981 में निर्धारित किया गया था; लेकिन अब भी जो स्थिति है, भारत को अपनी रक्षा जरूरतों के स्रोतों में विविधता लाने में 20 साल लग सकते हैं।


अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिम का दोहरा उद्देश्य है। एक, सैन्य जरूरतों के लिए भारत की रूस पर निर्भरता को कम करना और भारत को कूटनीतिक तौर पर बढ़ावा देना, जैसा कि अभी जी-20 शिखर सम्मेलन में दिखा। उद्देश्य सिर्फ भारत-रूस की गलबहियां को ढीला करना नहीं; बल्कि भारत को चीन के खिलाफ पश्चिम की भाषा बोलने के लिए मजबूर करना भी है।

चीन के खिलाफ भारत को अपनी ओर करना निश्चित ही एक आसान लक्ष्य है। भारत स्पष्ट रूप से लंबे समय से चले आ रहे और अनसुलझे क्षेत्रीय विवाद को लेकर आक्रामक चीन के साथ तनावपूर्ण स्थिति में है और इसलिए उसे सुरक्षा आश्वासनों के बदले अपनी ओर झुकाना संभव है। दूसरे शब्दों में, पश्चिम भारत को अपनी सीमाओं और जलक्षेत्रों से परे एक सशस्त्र भूमिका में लाना चाहेगा। लेकिन अगर ऐसा हुआ तो यह भारत के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के उसके प्रशंसनीय और मूलभूत सिद्धांत को खत्म कर देगा और यह उसके अपने राष्ट्रीय हित के भी खिलाफ होगा।

भारत की अफ्रीका में चीन से आगे निकलने की कोशिश रही है और इस मामले में उसे अच्छी सफलता भी मिली है, फिर भी उस महाद्वीप में भारत अपेक्षित कामयाबी नहीं पा सका है क्योंकि वह चीनी धन-बल का मुकाबला नहीं कर सका। पश्चिम के देशों ने इस मामले में भी इसलिए भारत का साथ दिया क्योंकि जी-20 में अफ्रीकी संघ को प्रवेश दिलाकर भारत अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है और भारत की यह तीव्र इच्छा है कि अफ्रीकी देशों में वह चीन के पर कतरे।

किसी भी महाशक्ति के खेमे में शामिल हुए बिना विभिन्न गुटों के साथ रिश्ते रखना भारत की आदर्श परंपरागत नीति है और इसके लिए हमेशा प्रयास करना चाहिए। लेकिन पड़ोसियों के साथ अच्छे रिश्ते बनाए रखने में नरेंद्र मोदी की गंभीर विफलता के कारण इसे हासिल करना मुश्किल हो गया है। चीन के साथ ऐतिहासिक तनाव को प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहराव राव ने कम किया तो अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने यही रुख बनाए रखा। लेकिन चीन से रिश्ते वापस चिंताजनक स्तर पर पहुंच गए हैं।

पाकिस्तान के साथ रिश्तों का भी वही हाल है। मनमोहन सिंह के समय दोनों देशों के रिश्तों में अच्छी-खासी प्रगति हुई थी लेकिन आज वह एकदम निचले स्तर पर पहुंच गए हैं। अगर बांग्लादेश में अगले साल के आम चुनाव में सत्तारूढ़ अवामी लीग हार जाती है, तो उस छोर पर भी सिद्धांत रूप से भारत के खिलाफ एक आक्रामक सरकार होगी।

जनवरी, 2014 में पाकिस्तान के साथ एक गैर-भेदभावपूर्ण बाजार पहुंच समझौते की रूपरेखा तैयार हो गई थी जिसे पाकिस्तान की कैबिनेट ने मंजूरी भी दे दी थी लेकिन वाशिंगटन में पाकिस्तानी राजदूत के पास कथित तौर पर एक आरएसएस कार्यकर्ता के माध्यम से मोदी का अनुरोध मिलने के बाद नवाज शरीफ सरकार ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किया। बीजेपी की ओर से राष्ट्रीय नेता बनने की चाहत रखने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं चाहते थे कि उस साल के आम चुनाव से पहले यह समझौता हो और कांग्रेस को इसका श्रेय मिले। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी न केवल समझौते पर आगे नहीं बढ़े बल्कि 2019 में उन्होंने पाकिस्तान को ‘सर्वाधिक पसंदीदा राष्ट्र’ (एमएफएन) का व्यापारिक दर्जा देने के भारत के 1996 के एकतरफा फैसले को वापस ले लिया।


पाकिस्तान के साथ सामान्य रिश्तों की दिशा में पहला कदम संभवत: व्यापार समझौता होगा और अगर पाकिस्तान से व्यापारिक रिश्ते ठीक हो गए तो इसके कारण भारत के लिए चीनी खतरे में भी कमी की अच्छी संभावना होगी। पाकिस्तान को जब भारत से आर्थिक फायदा होगा तो वह भारत को परेशान करने से भी परहेज करेगा।

वास्तविकता तो यही है कि चीन हमारा पड़ोसी है जबकि जी-7 के देश हजारों मील दूर हैं। चीनियों के साथ तालमेल बैठाना कितना भी जटिल क्यों न हो, यह हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। भारत के पास राजनयिक और आर्थिक उपकरण हैं लेकिन हैरानी की बात है कि मोदी ने इनका जरा भी उपयोग नहीं किया है। अगर हमारी सीमाएं असुरक्षित हैं तो अमेरिका का कोई भी सुरक्षा आश्वासन हमें सुरक्षित नहीं बना सकता। सच तो यह है कि किसी सुदूर महाशक्ति की उंगली थामना न तो सम्मानजनक है और न ही चीन के साथ समस्या का समाधान।

ज्यादा से ज्यादा एक दशक में चीनी आक्रामकता शांत होनी शुरू हो जाएगी। चीन के निर्यात जो उसकी समृद्धि की बुनियाद है, पर शिकंजा कसने की जी-7 की नीति खटाई में पड़ने लगी है। चालीस से अधिक वर्षों की तेज वृद्धि के बाद चीनी अर्थव्यवस्था धीमी हो रही है। जैसे-जैसे इसकी खर्च करने की ताकत कम होगी, इसकी विस्तारवादी प्रवृत्ति भी घटती जाएगी। हालांकि अगर भारत जल्दबाजी में पश्चिमी खेमे में अपना तंबू गाड़ने का विकल्प चुनता है, तो उसके लिए तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

जहां तक खाड़ी और पश्चिम एशिया होते हुए भारत और यूरोप के बीच एक बहुराष्ट्रीय रेल और शिपिंग मार्ग बनाने की बात है, संदेह नहीं कि यह एक बहुच अच्छा विचार है लेकिन निस्संदेह इसकी रूपरेखा चीन की बेल्ट एंड रोड (बीआरआई) पहल को टक्कर देने को ध्यान में रखकर तैयार की गई। इस परियोजना की सफलता कई देशों के बीच आपसी विश्वास पर निर्भर है। इजराइल और अरब देशों के बीच संपर्क अभी शुरुआती चरण में हैं और शायद इतनी महत्वाकांक्षी परियोजना के लिहाज से लिए यह वक्त अभी सही नहीं।

इसके अलावा, भारत के लिए इस परियोजना पर आगे बढ़ने का मतलब होगा वैसे देशों से घनिष्ठता बढ़ाना जिनका लोकतंत्र के मामले में खराब रिकॉर्ड है।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia