बलात्कारियों को सजा ए मौत के शोर के बीच बड़ा सवाल- क्या इससे रुक जाएंगे रेप?

आंकड़े बताते हैं कि सौ में सिर्फ 25-26 मामलों में ही दोष तय हो पाता है। अगर सजा मिलने की दर इतनी कम होगी तो अपराध करने वालों में डर ही नहीं रहेगा। कुछ ही मामले हैं जिनकी फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई होती है। और बाकी केस सालों-साल लटके रहते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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नासिरुद्दीन

बलात्कार की सजा क्या हो...हर बार जब बलात्कार की कोई घटना सुर्खियों में आती है तो कड़ी से कड़ी सजा की बात होने लगती है। हमारा समाज ‘बदला’ लेने को बेचैन हो जाता है। फिर उसके पास ही एक ही नारा है- बलात्कारी को मौत की सजा दो। उसका मानना है कि मौत की सजा के बिना बलात्कार नहीं रुकने वाला। सजा देने की तरह-तरह की तजवीज भी आने लगती है। जैसे- बलात्कारी को सरेआम फांसी पर लटका दिया जाए। बलात्कारी को पकड़ते ही गोली मार दी जाए। जला दिया जाए। नपुंसक बना दिया जाए। बलात्कारी की लिंचिंग की जाए। यानी हम समाजी बलात्कारी को मिल कर मारें। वगैरह...वगैरह।

मगर हमारे सामने बड़ा सवाल क्या है- मौत की सजा या बलात्कार न होना? क्या अपराधियों को मौत की सजा बलात्कार रोक देगी? बेहतर है कि इसके बारे में उन महिलाओं से ही बात की जाए, जिन्होंने अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा महिलाओं पर होने वाली हिंसा के खिलाफ लड़ते हुए गुजारा है। ये वे महिलाएं हैं जो मजबूत से मजबूत आरोपितों के सामने, यौन हिंसा की मार झेलने वाली महिलाओं के साथ खड़ी रहती हैं। उनके साथ कानूनी जद्दोजहद में शामिल होती हैं। सड़क पर महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा को रोकने के लिए आवाज बुलंद करती हैं। इन्हें सजा की प्रक्रिया का भी खासा अंदाजा है। तो आइए इनसे सुनते हैं, वे क्या सोचती हैं।

हर मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो

कई दशकों से महिला आंदोलन से जुड़ी जनवादी महिला समिति की राष्ट्रीय नेता सेहबा फारूकी कहती हैं, “बलात्कार की सजा फांसी हो, हम यह नहीं मानते हैं। इसकी कई वजहें हैं। सजा के रूप में फांसी तक पहुंचने की प्रक्रिया बहुत लंबी है। इसमें पीड़ितों को लड़ते-लड़ते निराशा/थकान आ जाती है। दूसरा, हमारा मानना है कि राज्य को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह किसी की जान ले। चाहे वह बलात्कारी ही क्यों न हो। तीसरी बात, अध्ययन बताते हैं कि बलात्कारी ज्यादातर परिचित/अपने होते हैं। अब अगर किसी परिचित ने या परिवारीजन ने ही बलात्कार किया है तो फांसी की सजा की सूरत में पीड़ित पर हमेशा दबाव रहेगा कि वह इसकी शिकायत न करे। अब भी यह दबाव रहता है। अगर बलात्कार की फांसी की सजा हो जाएगी तो शायद कभी शिकायत ही न करने दी जाए।”

वह कहती हैं, “हमें लगता है कि फांसी की सजा से पीड़िता की जान को भी खतरा हो जाएगा। अगर अपराधी को यह लग जाएगा कि वह पहचाना और पकड़ा जा सकता है तो वह पीड़ित को खत्म करने की कोशिश करेगा।” सेहबा को लगता है कि फांसी की सजा हो जाने से बलात्कार कम हो जाएंगे, यह सोच ही गलत है। सबसे अहम है, सजा मिल भी रही है या नहीं। अभी जो हमारे पास आंकड़े हैं, उसके मुताबिक सौ में सिर्फ 25-26 मामलों में ही दोष तय हो पाता है। तो सजा मिलने की दर इतनी कम होगी तो अपराध करने वालों में डर ही नहीं रहेगा। हमारे यहां केस लंबे चलते हैं। कुछ सालों बाद आरोपित को बेल मिल जाती है। फिर वह जब तक सजा न हो आजादी से घूमता है।


अगर यह हो कि बलात्कार की सजा 30-40 साल होगी। कभी बेल या पैरोल नहीं मिलेगा। अपराध करने वाला सारी जिंदगी जेल में ही रहेगा तो शायद इससे कुछ डर पैदा हो। हमारी एक पुरानी मांग है, ऐसे मामलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट होना चाहिए। कुछ ही मामले हैं जिनकी फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई होती है। वरना हम देख सकते हैं कि केस सालों लटके रहते हैं। सेहबा जोर देकर कहती हैं, “महिलाओं के प्रति हिंसा तब ही रुक सकती है, जब सत्ता में बैठे लोगों की इच्छाशक्ति मजबूत हो। समाज में स्त्रियों को देखने का नजरिया बदले। महिलाओं को ही बलात्कार की जिम्मेदार न बताया जाए। बलात्कार की पीड़ित को ही बलात्कार की वजह बताना, अपराधियों को आजादी देता है। अगर हम यह नहीं करते हैं तो महिलाओं के प्रति अपराध कम करने में वक्त लगेगा।

हिंसा से न्याय नहीं मिलता

वरिष्ठ पत्रकार और बिहार में महिला आंदोलन की मजबूत आवाज निवेदिता का कहना है कि फांसी किसी अपराध का अंत नहीं है। यह बलात्कार जैसे अपराध को खत्म करने का रास्ता नहीं है। अगर सरकार और समाज अपना काम ठीक से करें तो ये दिन देखने नहीं पड़ेंगे। आंकड़े कहते हैं, जब से फांसी की सजा हुई है, स्त्रियां मार दी जाती हैं या जला दी जाती हैं। महिला आंदोलन किसी भी तरह की हिंसा के साथ नहीं है। निवेदिता फास्ट ट्रैक के साथ ही सभी जगह वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर बनाने का सुझाव देती हैं। वह जोर देकर कहती हैं कि जिस देश की राजनीति जितनी हिंसक होगी उस देश में हिंसा सबसे ज्यादा कमजोर वर्ग पर होगी।

हम किस-किस की लिंचिंग करेंगे

महिला अधिकार कार्यकर्ता और जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) की राष्ट्रीय संयोजकों में से एक अरुंधति धुरु का मानना है कि महिलाओं को बलात्कार से बचाने के लिए संसद और दूसरी जगहों पर फांसी देने की मांग, हिंसक समाज का प्रतीक है। वह यह भी मानती हैं कि फांसी की सजा, महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार को रोकने का रास्ता नहीं है। हां, ऐसे मामलों की तेज सुनवाई और बड़े-बड़े दोषियों को सजा जरूर अपराध रोकने में मददगार हो सकती है। अरुंधति समाज से पूछती हैं, “हम सभी जानते हैं कि ढेर सारे मामलों में घर के परिचित ही बलात्कार में शामिल होते हैं। तो सवाल है, हम किस-किस की लिंचिंग करेंगे।”

वह तेलांगना वाली घटना के हवाले से कुछ अहम बिंदु उठाती हैं- “अगर पुलिस ने तुरंत एफआईआर दर्ज की होती या कार्रवाई की होती या यह न मान लिया होता कि लड़की किसी के साथ ‘भाग’ गई है तो शायद हालत कुछ और होते। ऐसी मानसिकता, बलात्कार को बढ़ावा देती है। हम ऐसे कई सारे मामले देख सकते हैं। दिल्ली की छोटी बच्ची के साथ बलात्कार के मामले में भी पहले पुलिस ने यही कहा था कि वह कहीं, किसी के साथ चली गई होगी। दो साल की बच्ची कहां, अपनी मर्जी से चली जाएगी। पुलिस ने रात भर इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की। दूसरे दिन बच्ची मरी हुई मिली। पुलिस को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए, यह सबसे जरूरी है। अगर उन्होंने तुरंत कार्रवाई नहीं की तो उन्हें सजा होनी चाहिए। हमने देखा है कि कई मामलों में आरोपितों को राजकीय संरक्षण मिला। तो अपराधियों को क्या लगता है कि आज जब ऐसे लोग बच सकते हैं तो हम भी बच सकते हैं।


मुकदमों की समय सीमा तय हो

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में काम करने वाली संस्था ‘अस्तित्व’ की रेहाना अदीब भी मानती हैं कि फांसी की सजा से बलात्कार नहीं रुक सकते हैं। फांसी से इतर कठोरतम सजा जल्द से जल्द देने की जरूरत है। फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलने वाले केसों में मुकदमे की समय सीमा निश्चित करने की आवश्यकता है। रेहाना का कहना है कि पुरुषों/लड़कों से इस बारे में बात ही नहीं की जाती। अब समय है, लड़कों के साथ संवेदनशीलता का काम पुरजोर तरीके से किया जाए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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