एक आर्मी डॉक्टर का एम्स निदेशक डॉ गुलेरिया को खुला पत्र: भ्रामक दिशा-निर्देशों पर कोई सफाई देंगे क्या!

कोरोना काल की दूसरी लहर में इलाज, तरीकों और उपायों को लेकर एक के बाद एक कई दिशा निर्देश एम्स निदेशक डॉ गुलेरिया की तरफ से जारी हुए। कई बार उन दवाओं को व्यर्थ बताया गया जिन्हें पहले कारगर बताया गया था। इसी पर एएफएमसी पुणे के डॉ वी के सिन्हा ने एम्स निदेशक को पत्र लिखा है।

फोटो : Getty Images
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डॉ वी के सिन्हा

माननीय गुलेरिया जी,

चूंकि यह खुला पत्र है, मैं अपना परिचय मेडिकल क्षेत्र से जुड़े ऐसे तर्कशील व्यक्ति के तौर पर कराना चाहूंगा जिसने तर्क की कसौटी पर कसने के बाद ही किसी बात को मानने की प्रवृत्ति चिकित्सा क्षेत्र के प्रणेताओं से ही विरासत में पाई है। पर आप किसी परिचय के मोहताज नहीं। आप घर-घर में जाने जाते हैं। आप इसके हकदार हैं क्योंकि आप देश को ऐसी मेडिकल इमरजेंसी में रास्ता दिखा रहे हैं।

लोग डॉक्टरों की ओर देखते हैं और डॉक्टर उत्कृष्ट संस्थानों की ओर। आप अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं जो बड़ा ही प्रतिष्ठित पद है और इसका अपना ही आभामंडल है। होना भी चाहिए। कोई हैरत नहीं कि आपके शब्दों को न केवल देश के आम लोग बल्कि पूरी चिकित्सा बिरादरी देववाणी की तरह लेती है। इसलिए, आपकी जिम्मेदारी बहुत अधिक हो जाती है।

इस पृष्ठभूमि में मैं आपका ध्यान एम्स के 7 अप्रैल के दिशा-निर्देशों की ओर दिलाना चाहता हूं। एक पन्ने का दिशा-निर्देश देश भर के विशेषज्ञों से लेकर दूर-दराज के इलाकों में चिकित्सा व्यवस्था की रीढ़ की तरह काम करने वाले झोलाछाप डॉक्टरों के लिए बाइबल बन गया। एम्स के इस दिशा-निर्देश में हल्के संक्रमण की स्थिति में होम आइसोलेशन के मामले में आइवरमेक्टिन देने की सलाह दी गई थी। लेकिन 7 अप्रैल की तारीख तक कोविड के इलाज में इस दवा की उपयोगिता से कहीं ज्यादा सामग्री उसके खिलाफ ही थी। मार्च में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा था कि “कोविड-19 के रोगियों के इलाज में आइवरमेक्टिन के इस्तेमाल को लेकर मौजूदा साक्ष्य अनिर्णायक हैं”। वास्तविकता तो यह है कि मेडिकल साक्ष्य व्यवस्था को समझने वाले लोगों के लिहाज से कभी ऐसा कोई साक्ष्य था ही नहीं।

इस तरह की कोई भी बात कि आपका ध्यान डब्ल्यूएचओ के दिशा-निर्देशों पर नहीं गया या चिकित्सीय साक्ष्य नहीं होने को आपने गलत समझ लिया, असंभव और समझ से परे है। चिकित्सा में क्या सही है और क्या गलत, इस बारे में फैसला सुनाने वाले देश के सबसे बड़े जज होने के नाते आप इस तरह की चूक नहीं कर सकते।

इसमें आश्चर्य नहीं कि एक माह के भीतर ही आइवरमेक्टिन के उपयोग पर आपके रुख के खिलाफ सरकार और आईसीएमआर सार्वजनिक तौर पर सामने आ गए। लेकिन तब तक आइवरमेक्टिन के लिए मारामारी मच चुकी थी। यह दुकानों से गायब हो चुकी थी और संभवतः ज्यादा कीमत पर बेची जा रही थी और निर्माता और डीलर जमकर कमाई कर रहे थे।

लेकिन चलिए, इसे जाने दें क्योंकि घबराहट की स्थिति में मरीजों को एक-दो गोली निगल लेने से कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ होगा। लेकिन अस्पतालों में भर्ती के मामलों में अनिवार्य रूप से रेमडेसिविर देने की सिफारिश की गई। एम्स की यह सिफारिश चौंकाने वाली थी क्योंकि जैसा कि आप निस्संदेह जानते ही होंगे, कोविड में इसके उपयोग का समर्थन करने वाला (कुछ घटिया बनावटी साक्ष्यों को छोड़कर जिनकी पोल पहले ही खुल चुकी है) कोई सबूत नहीं। वास्तविकता तो यह है कि डब्ल्यूएचओ ने तो पिछले साल नवंबर में ही इसे कोविड की दवाओं की सूची से हटा दिया था।

अब जब महामारी की दूसरी लहर नियंत्रण से बाहर हो गई, रेमडेसिविर ने आधुनिक चिकित्सा के हॉल ऑफ शेम में अपने लिए जगह बना ली है। रेमडेसिवर हर गलत कारण से सुर्खियों में रही- कालाबाजारी, मुनाफाखोरी से लेकर जमाखोरी और बाजार में बिकती नकली दवा तक के लिए।

आपने हमें यह बताने में भी तीन हफ्ते से अधिक का समय लगा दिया कि कोविड में इस दवा के उपयोग के पक्ष में कोई साक्ष्य नहीं। क्या आपको यह बात पता नहीं थी कि भ्रामक दिशा-निर्देश पर इलाज चल रहा था? एक पल्मोनोलॉजिस्ट होने के नाते मेरे पास यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि टैमीफ्लू संबंधी गड़बड़झाले के बारे में आपको भी जानकारी होगी। एक बार फिर यह भी आपकी ही निगरानी में हुआ।

जब भी पर्चे पर रेमडेसिविर लिखा जाता, कुछ पहुंच वाले लोगों को छोड़कर ज्यादातर आम लोगों के लिए इसे पाना असंभव ही था। लोगों में इतनी हताशा थी कि वे अपने रिश्तेदारों और प्रियजनों को बचाने के लिए इस दवा की कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थे- एक ऐसी दवा जिससे रोगियों के बचने की संभावना पर कोई असर ही नहीं पड़ना था। चूंकि अब तक सारे लोग चुप हैं तो मैं यह कहना चाहूंगा कि यह अपने आप में एक चिकित्सा घोटाला है जिसकी कोई मिसाल नहीं मिलती।

स्टेरॉयड के उपयोग पर सलाह तो सबसे भयावह और कपटपूर्ण है। पिछले दो हफ्तों के दौरान आप खुद भी कोविड के मामलों में स्टेरॉयड के अंधाधुंध उपयोग के खिलाफ आगाह कर रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी से लेकर छोटे गांवों तक हर एक अस्पताल, डिस्पेंसरी और डॉक्टर (नीम-हकीम समेत) सभी तरह के रोगियों के लिए स्टेरॉयड टैबलेट या इंजेक्शन लिख रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इसके कारण रोग के बढ़ने से लेकर दूसरे बैक्टेरिया और फंगस संक्रमण के रूप में विनाशकारी परिणाम सामने आए।

वायरल संक्रमण के शुरुआती दिनों में स्टेरॉयड नहीं दिया जाना चाहिए- एक डॉक्टर के लिए यह आम समझ की बात है। लेकिन रोगियों की बेशुमार भीड़ और विकराल संकट के इस दौर में डॉक्टरों ने आप परऔर एम्स द्वारा जारी दिशा-निर्देशों पर भरोसा किया।

डॉ. गुलेरिया, आपके अधीन एम्स ने एक अस्पष्ट और भ्रामक फ्लो-चार्ट जारी करने की घातक गलती की जिसमें किसी भी समय-सीमा की परवाह किए बिना स्टेरॉयड के उपयोग का सुझाव दिया गया था। दवा लिखने की अपनी बारीकियां होती हैं जो डॉक्टरों के सोचे-समझे फैसलों से जुड़ी होती हैं। महामारी की भयावहता के युद्ध जैसे मौजूदा हालात में यह समझ-बूझ की स्थिति जाती रही। आपका एक दिशा-निर्देश/ फ्लोचार्ट लोगों के जीवन-मौत का फैसला करने वाला बन गया। इसे एक अप्रत्याशित या अनपेक्षित चूक कहें या स्पष्टता की कमी, यह वास्तव में एक बड़ी गलती है। लेकिन इन परिस्थितियों में?

कोविड से हुई मौतों में स्टेरॉयड के दुरुपयोग से हुई मौतों का अनुपात क्या रहा, इसका पता कभी नहीं चल सकेगा; न ही उन परिवारों की संख्या का पता चल सकेगा जिन्होंने अपनी संपत्ति गिरवी रखकर या अपनी जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को बेहद महंगे लेकिन बेकार रेमडेसिविर खरीदने के लिए बेच दिया।

दिशा-निर्देशों में दिए गए टॉसिलजुमाब या प्लाज्मा से होने वाले फायदे को लेकर भी मेरी शंकाओं के ऐसे ही कारण हैं क्योंकि ये भी वैज्ञानिक जांच की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।

मुझे नहीं पता कि हमें इस नाजुक स्थिति में डालने के दोषी को आप कठघरे में खड़ा करेंगे या नहीं। मैं तो बस आपको नायक की जिम्मेदारी के सिद्धांत की याद दिलाना चाहता हूं।

आपका,

मेजर जनरल (डॉ) वीके सिन्हा, वीएसएम (सेवानिवृत्त)

(लेखक प्रोफेसर और एएफएमसी पुणे में ऑर्थोपेडिक विभाग के प्रमुख हैं।)

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