हथियार-बंद झड़पों और युद्ध से महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर गहरा असर, पर्यावरण को भी गंभीर खतरा

यूक्रेन युद्ध के दौरान रूस लगातार रिफाइनरी, बिजली घर, रासायनिक उद्योगों और दूसरे उद्योगों पर बम बरसा रहा है। इससे वायु, जल, और मृदा हरेक तरह का प्रदूषण फैल रहा है और विषाक्त हो रहा है।

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महेन्द्र पांडे

दुनिया भर में हथियार-बंद झड़पों की संख्या और दायरा बढ़ता जा रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध का एक साल पूरा होने जा रहा है, और इसके समाचार चैनलों पर चलने वाले वीडियो पर्यावरण विनाश की कहानी खुद बता देते हैं। यह एक दो देशों के बीच का युद्ध है, पर दुनिया के लगभग सभी क्षेत्र गृहयुद्ध, आतंकवाद, निरंकुश तानाशाही, या फिर हिंसक गिरोहों के हथियार-बंद झड़पों की चपेट में है। इससे पहले कोविड 19 से पूरी दुनिया अस्त-व्यस्त थी। कोविड 19 से संक्रमितों की संख्या फिर से बढ़ने लगी है। अब, दुनिया भर से भीषण तापमान, जंगलों की आग, बाढ़, सूखा और ग्लेशियर के तेजी से पिघलने की खबरें आ रही हैं। राजनैतिक तौर पर भी दुनिया अस्थिर है– इस समय पूंजीपतियों और निरंकुश शासकों का दुनिया में वर्चस्व है। यह एक ऐसा दौर है जब दुनिया में आर्थिक सम्पदा तेजी से बढ़ रही है, पर इसका पूरा लाभ केवल अरबपतियों को ही मिल रहा है और शेष आबादी पहले से भी अधिक गरीब होती जा रही है। इस आर्थिक असमानता की खाई बढ़ने के कारण दुनियाभर में हथियार-बंद झड़पें और युद्ध की संख्या बढ़ती जा रही है।

इन दिनों दो देशों के बीच होने वाले युद्ध से अधिक देशों के भीतर होने वाले गृहयुद्ध या सरकार द्वारा चलाये जा रहे नरसंहार घातक होते जा रहे हैं और मौतें भी इनसे ही अधिक होती हैं। युद्ध के नाम पर रूस-यूक्रेन युद्ध का ही ख्याल आता है, पर सूडान, हैती, म्यांमार, इथियोपिया, अफ़ग़ानिस्तान, यमन, सीरिया, सोमालिया और बेलारूस से भी लगातार हथियार-बंद झड़पों के समाचार आते रहते हैं। कहीं ऐसी झड़पें दो गिरोहों में होते हैं तो कहीं सरकार अपनी ही जनता को बागी बताकर हथियार उठालेती है। हमारे देश में भी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों और जम्मू और कश्मीर से ऐसे समाचार लगातार आते हैं।

जेनेवा एकेडमी ऑफ इंटरनेशनल ह्यूमैनिटेरियन लॉ एंड ह्यूमन राइट्स हरेक हथियार-बंद झड़प या युद्ध का हिसाब रखता है। इसके अनुसार इस समय दुनिया में 110 से अधिक हथियार-बंद झड़पें चल रही हैं। यह संख्या द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से सबसे अधिक है। इनमें से कुछ झड़पें पिछले अनेक वर्षों से जारी हैं, जबकि कुछ नए हैं। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र मध्य पूर्व और अफ्रीका है जहां ऐसी 80 झड़पें होती हैं। इनमें कुछ मुख्य केंद्र सायप्रस, ईजिप्ट, इराक, इजराइल, लीबिया, मोरक्को, पैलेस्टाइन, सीरिया, तुर्की, यमन और पश्चिमी सहारा क्षेत्र है। एशिया में ऐसे 21 केंद्र हैं, जिनमें अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, म्यांमार और फिलीपींस प्रमुख हैं। भारत में तो देश के अन्दर और देश के बाहर से भी झड़पें होती हैं। यूरोप में ऐसे 7 केंद्र हैं, जबकि दक्षिण अमेरिका में ऐसे 6 केंद्र हैं।


इस समय दुनिया की 2 अरब आबादी हथियार-बंद झड़पों वाले क्षेत्र में है, और ऐसे झड़पों का प्रभाव झेल रही है। इससे उत्पन्न होने वाले जहरीले रसायनों के प्रभावों और प्राकृतिक संसाधनों के विनाश को ध्यान में रखकर दिसम्बर 2022 में संयुक्त राष्ट्र में युद्ध और हथियार-बंद झड़पों के समय पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को कम करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए हैं। युद्ध के दौरान जो जहरीले रसायन उत्पन्न होते हैं, उनमें रेडियोएक्टिव विकिरण, वाइट फॉस्फोरस, मस्टर्ड एजेंट, हलोजन, हैवी मेटल, डायोक्सिन और कैंसर जनक पदार्थ प्रमुख होते हैं। जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में जो परमाणु बम गिराए गए थे, उस समय इसके प्रभाव से 2 लाख से अधिक लोग मारे गए थे। पर, इसका मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रभाव आज भी देखा जा रहा है। परमाणु युद्ध का खतरा अभी टला नहीं है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान लगातार इसपर चर्चा की जा रही है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत और पाकिस्तान भी परमाणु युद्ध के कगार पर पहुंच चुके हैं। अमेरिका-वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिका ने एजेंट ऑरेंज नामक रसायन का उपयोग किया था, जिससे कैंसरजनक डायोक्सिन उत्पन होती है। इसके प्रभाव से असामान्य बच्चों का जन्म और बड़ों में भी जेनेटिक पदार्थों में परिवर्तन की घटनाएं बढ़ गईं थीं| डायोक्सिन की सांद्रता आज भी वियतनाम के युद्ध प्रभावित क्षेत्रों के मृदा, नदियों के सेडीमेंट, खाद्य पदार्थों, महिलाओं के दूध और रक्त में सामान्य से अधिक है।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान क्लोरिन गैस और मस्टर्ड गैस का व्यापक उपयोग किया गया था। ये दोनों ही गैसें जहरीली और खतरनाक प्रभाव वाली हैं। अब रासायनिक हथियारों पर प्रतिबंध है, फिर भी इनका उपयोग किया जाता है। दिसम्बर 2022 में संयुक्त राष्ट्र ने बताया था कि सीरिया सरकार गृहयुद्ध को काबू में रखने के लिए रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल करती है। इजरायल और फिलिस्तीन के बीच स्थित गाजा पट्टी हमेशा ही हथियार-बंद हिंसा का केंद्र रहती है, वाहां महिलाओं और शिशुओं के रक्त में हैवी मेटल की सांद्रता सामान्य से अधिक रहती है। वाइट फॉस्फोरस के प्रभाव से असामान्य बच्चों का जन्म होना भी इस क्षेत्र के लिए सामान्य विषय है। चेचन्या और क्रोएशिया के बीच लम्बे समय तक चले युद्ध के बाद से नागरिकों के रक्त में धातुओं की मात्रा अधिक पाई जाती है और रक्त-कैंसर की मामले बढ़ गए हैं।

मध्य-पूर्व के क्षेत्रों में युद्ध के दौरान तेल-कुंओं में आग लगना सामान्य है। इससे निकालने वाला जहरीला धुवां मानव स्वास्थ्य के साथ ही पर्यावरण के हरेक अवयव को प्रभावित करता है। इराक-ईरान युद्ध के बाद इराक ने युद्ध से उत्पन्न कचरे को खुले में जलाया था, जिससे निकले जहरीले धुवाओं का असर आबादी सहित पूरे पर्यावरण पर पड़ा था। हाल के वर्षों में सीरिया में भी ऐसा ही किया गया था। यूक्रेन युद्ध के दौरान रूस लगातार रिफाइनरी, बिजली घर, रासायनिक उद्योगों और दूसरे उद्योगों पर बम बरसा रहा है। इससे वायु, जल, और मृदा हरेक तरह का प्रदूषण फैल रहा है और विषाक्त हो रहा है। युद्ध के दौरान खराब हो गए हथियार और टैंक भी ऐसे ही छोड़ दिए जाते हैं जिनसे खतरनाक रसायन लगातार पर्यावरण में मिलते रहते हैं।


हथियार-बंद युद्ध प्राकृतिक संसाधनों और जैव-विविधता को भी सीधा नुकसान पहुंचाती है। सुरक्षा बलों को घने जंगलों तक पहुंचाने के नाम पर जंगलों को काटा जाता है। ऐसा भारत में बस्तर क्षेत्र में, ब्राजील में अमेज़न क्षेत्र में अफ्रीका के अनेक देशों में किया गया है। इन्टरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के अनुसार दुनिया के घने जंगलों में पिछले 30 वर्षों के दौरान 80000 से अधिक हिंसक गृहयुद्ध या झड़पें हो चुकी हैं। इसके प्रभाव से केवल युद्ध के कारण 219 वन्य जीव विलुप्तीकरण की कगार पर पहुँच गए हैं।

पूंजीवादी व्यवस्था सबसे पहले प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार जमाती है, उसे लूटती है और मुनाफा कमाकर उसे तहस-नहस कर जाती है। पूरी दुनिया में ऐसा ही हो रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था की ही देन जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि भी है। पूंजीवाद ही गृहयुद्ध और युद्ध को जन्म देता है, फिर इसे रोकने के लिए हथियार बेचता है और मदद के नाम पर संसाधनों की लूट करता है। यही आज अफ्रीका में किया जा रहा है। अफ्रीका में संयुक्त राष्ट्र से लेकर तमाम विकसित देश वर्षों से तथाकथित मदद कर रहे हैं, मदद के नाम पर उनके प्राकृतिक संसाधनों को लूट रहे हैं – जिसके असर से अफ्रीका और भी गरीब और अस्थिर हो रहा है। एशिया की स्थिति भी ऐसी ही है। भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका अफ़ग़ानिस्तान, इंडोनेशिया, फिलीपींस, हांगकांग और चीन – सभी में अस्थिरता बढ़ती जा रही है। इनमें से कुछ देश अपने पड़ोसी देशों को भी अस्थिर करते जा रहे हैं। पर, इस अस्थिरता के बीच भी पूरे क्षेत्र में पूंजीवाद लगातार छलांग लगा रहा है, और लोकतांत्रिक व्यवस्था भी निरंकुश और जनता से दूर होती जा रही है। इनमें से हरेक देश अपने प्राकृतिक संसाधनों का अवैज्ञानिक दोहन करते जा रहे हैं, और इसके प्रभावों को बढ़ा रहे हैं।

पूंजीवाद ही दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है, वास्तविक आपदा है। प्राकृतिक आपदाएं तो एक अंतराल के बाद आती हैं, पर पूंजीवाद द्वारा निर्मित आपदाएं तो जनता को लगातार परेशान करती हैं। पूंजीवाद ही सत्ता स्थापित करता है, इसलिए जनता परेशान रहेगी, मरती रहेगी, पूंजीवाद फलता-फूलता रहेगा और दुनिया अस्थिर ही रहेगी। जिस सामान्य स्थिति की हम कल्पना करते हैं, वैसी दुनिया अब कभी नहीं होगी।

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