खरी-खरी: कोरोना संकट में बुरी तरह नाकाम केजरीवाल ने खुद को राजनीति का एक ‘बौना’ ही साबित किया

सरकारी आंकड़ों को ही मानें तो दिल्ली में 6 जून तक 27,000 से ज्यादा केस हो चुके हैं। वह भी तब जबकि टेस्टिंग का काम बहुत ढीला-ढाला है। सरकारी और निजी अस्पतालों की दुर्दशा और मरीजों को लेकर रवैया किसी से छिपा नहीं है।

फोटो : सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

क्या किसी को 2012 वाले अरविंद केजरीवाल याद हैं! छोटे से कद का एंग्री यंगमैन, लेकिन बड़े हौसले वाला, हाथों में तिरंगा लिए इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले तल रहे अन्ना हज़ारे के अनशन मंच से देश के लाखों लोगों के मन में उम्मीद जगाने वाला कि यही शख्स है जो देश की राजनीति को स्वच्छ कर सकता है। ऐसा लगा था केजरीवाल में वह जज्बा और काबिलियत है कि वह राजनीतिक को पारदर्शी और भ्रष्टाटार मुक्त कर सकता है।

दिल्ली ने बाहें खोलकर भ्रष्टाचार विरोध के इस प्रतीक का स्वागत किया और उनकी आम आदमी पार्टी को अभूतपूर्व विजय दिलाई। पहली बार 2015 में और फिर एक बार 2020 में। भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति की दिशा में यह एक स्वागत लायक शुरुआत थी, और लोगों को लगा कि कम से कम दिल्ली में तो ऐसा होने ही वाला है।

यही केजरीवाल उस वक्त बेहद बौने नजर आते हैं जब वह दिल्ली के ऐसे प्राइवेट अस्पतालों को धमकी देते हैं जो मरीजों से भर्ती करने के लिए ब्लैक मनी की मांग करते हैं। कल्पना कीजिए कि महामारी के वक्त में दिल्ली के अस्पताल ब्लैक मनी की मांग करते हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि दिल्ली शासन में भ्रष्टाचार कितने गहरे तक पहुंच बना चुका है, वह भी भ्रष्टाचार मिटाने का परचम उठाए शख्स के दौर में।

तो क्या यह कहना सही नहीं होगा कि खुद को भ्रष्टाचार विरोध का योद्धा कहने वाले अरविंद केजरीवाल ने सिर्फ लोगों की सहानुभूति हासिल करने और इसके जरिए सत्ता पर कब्जा करने के लिए ढोंग रचा था। क्या अरविंद केजरीवाल ने खुद को किसी भी आम राजनेता की तरह वोट हासिल करने के लिए झूठे वादे करने वाला बौना नहीं साबित कर दिया?

दूसरी बार दिल्ली सरकार की कमान संभालने के महज दो महीने के अंदर ही केजरीवाल एक नाकाम शासक के रूप में सामने आए हैं। बीते कई महीनों से दिल्ली की हालत बेहद खराब है। सबसे पहले तो दिल्ली ने दशकों बाद एक भयावह दंगे की आग झेली। इस दौरान करीब 100 लोगों की जान गई, करोड़ों की संपत्ति आग में झोंक दी गई और हजारों लोग बेघर हो गए। ठीक है कि दिल्ली में पुलिस पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण नहीं है। लेकिन दंगा प्रभावितों की मदद करने से उन्हें कौन रोक रहा था?

दिल्ली सरकार ने दंगा प्रभावितों के लिए एक शेल्टर तक नहीं बनाया। इसकी जिम्मेदारी भी दिल्ली वक्फ बोर्ड पर डालकर हाथ झाड़ लिए। इतना ही नहीं दिल्ली दंगों में पुलिस की भूमिका की तारीफ कर तो केजरीवाल ने सबको भौंचक कर दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने दंगों के दौरान पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से खुलकर समर्थन तक मांगा। दिल्ली के दंगों के दौरान अपनी प्रशासनिक क्षमता दिखाने का केजरीवाल के पास एक मौका था लेकिन वह बुरी तरह नाकाम साबित हुए।


और अब कोरोना वायरस के महासंकट में भी केजरीवाल कुछ करते नजर नहीं आ रहे। जहां तक कोरोना पॉजिटिव मरीजों की संख्या का सवाल है तो मुंबई और अहमदाबाद के साथ दिल्ली भी कोरोना वायरस से सर्वाधिक प्रभावित शहर है। सरकारी आंकड़ों को ही मानें तो दिल्ली में 6 जून तक 27,000 से ज्यादा केस हो चुके हैं। वह भी तब जबकि टेस्टिंग का काम बहुत ढीला-ढाला है। सरकारी और निजी अस्पतालों की दुर्दशा और मरीजों को लेकर रवैया किसी से छिपा नहीं है।

अस्पतालों में बेड की संख्या इतनी कम है कि खुद केजरीवाल ने माना कि प्राइवेट अस्पताल रिश्वत लेकर और ब्लैक मनी लेकर मरीदों को भर्ती कर रहे हैं। किसी तरह कोई मरीज अस्पताल में भर्ती हो भी जाए तो उसे वेंटिलेटर मिलने की संभावना और कम है क्योंकि जरूरत के हिसाब से वेंटिलेटर हैं ही नहीं। इसके अलावा स्वास्थ्य कर्मियों के लिए पीपीई किट की भी बेहद कमी है। इन सबके लिए केजरीवाल ने कुछ नहीं किया, किया तो बस इतना कि सर गंगागराम जैसे अस्पतालों को धमकी दे दी।

इससे स्पष्ट है कि केजरीवाल के पास न तो कोई नजर है और न ही कोई नजरिया और न ही उनकी सरकार कोरोना वायरस जैसी महामारी से निपटने में सक्षम है। और बेचारे दिल्ली वाले राजनीति में एक नए सेवेरे की उम्मीद में लगातार दो बार उन्हें जिताने की भारी कीमत चुका रहे हैं।

साफ है कि केजरीवाल भी आम राजनीतिज्ञ की तरह सत्ता लोभी हैं और उन्हें आम लोगों की तकलीफ से कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन कोरोना संकट ने उस भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा को बौना, बेहद बौना साबित कर दिया है जिसने 2012 में सत्ता के लालच में लोगों की आंख में धूल झोंकी थी।

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