मृणाल पाण्डे का लेखः नागरिकता में धर्म की खिड़की खुलते ही सारे पुराने घाव भी खुलने लगेंगे

जाति भेद, नस्ल भेद, सांप्रदायिक और लैंगिक भेदभाव सब जुड़कर तेजी से बढ़ने वाले विषाणु साबित हो रहे हैं। आज मुसलमानों की आवक से परेशानी है, कल देश के किसी कोने से आए असमिया या अहिंदी भाषी या हिंदी भाषी शरणार्थीयों से उतनी ही उत्कट नफरत नहीं होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं।

इलस्ट्रेशनः अतुल वर्धन
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मृणाल पाण्डे

सारे देश में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जो भूचाल हम देख रहे हैं, वह अकारण नहीं। लेकिन इन्हीं नाजुक क्षणों में हताश बंजर होते देश की आत्मा अपनी युवा पीढ़ी की टहनियों में एक बार फिर नई कोंपलों की उपस्थिति के अहसास से भरने लगी है। यह एक महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक क्षण है जब देश की सारी जातियों, धर्मों और विचारधाराओं के बच्चे, बूढ़े तथा जवान पुरुष और औरतें अचानक घर से बाहर निकल कर सड़कों-नुक्कड़ों पर भारतीय संविधान की मूल आत्मा की रक्षा के लिए समवेत आवाज बुलंद कर रहे हैं।

दिल्ली में विपक्षी एकजुटता के लिए कांग्रेस की बैठक इसी आशय से बुलाई भी गई थी। जिन दलों ने निजी हित स्वार्थों का हिसाब-किताब लगाते हुए अभी यह अवसर गंवाया, उनके वक्तव्यों से साफ है कि उनको भी इस बात का अहसास है कि जनविरोध के कारण इस कानून तथा नागरिक रजिस्टर का समर्थन उनको क्षेत्रीय चुनावों में भारी पड़ेगा। औसत भारतीय की सोच आज भी इस दिशा के विपरीत जाती है। सदियों पहले तुलसीदास ने लिखा था कि “शरण में आए हुए को अपने हित अनहित का हिसाब लगा कर त्याग देना इतना निंदनीय है कि उसके दोषी की तरफ देखना भी महापाप होगा”:

शरणागत कहुं जे तजहिं, निज अनहित अनुमानि,

तुलसी ते नर पापमय, तिनहिं बिलोकत हानि।।

यह सिरे से गलत धारणा है कि भारत की सभ्यता सदियों से विशुद्ध और बाहरी लोगों के संसर्ग से रहित रही है। जब से मनुष्य की प्रजाति ने चलना सीखा दुनिया भर में अलग-अलग भूभागों से लोगों की आवाजाही और सभ्यताओं का संकरण जारी है। किसी भी बड़ी सभ्यता को उठाकर देख लीजिए, उसके डीएनए में तमाम भूभागों से आए खानाबदोश लोगों के डीएनए शामिल होंगे। भारत भी अपवाद नहीं। इस बात ने हमारी सभ्यता-संस्कृति को समृद्ध बनाया है। पूंजी भी तभी पनपती है जब वह चरणशील हो। लक्ष्मी का नाम चंचला सेंतमेंत में नहीं पड़ा है।

जब-जब नए कबीले आकर हमारे यहां बसे एक विचित्र रूपांतर और समन्वय ने देश को नई तरह की ऊर्जा दी है, सोचने और सामाजिक आचार-व्यवहार से व्यापार करने तक के नए उदार तरीके दिए हैं। जो सभ्यता थिराई रहती है, सड़ने लगती है। जो मनुष्य बैठा रहता है उसका नसीब भी बैठा रहता है। इसीलिए बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा था, चरैवेति, यानी चलते रहो। वृद्ध ॠवा इंद्र भी कहते हैं, चरतिचरतो भग:। चरैवेति चरैवेति, का मंत्रवेद भी देते हैं। खुद आर्यों से लेकर शक, हूण, कुषाण, यूनानी और इस्लामी जत्थे सब यहां दुनिया के जिस-तिस हिस्से से लगातार आए समाए। और बहुसंख्य समाज में पूजित 33 करोड़ देवी-देवताओं के परिवार में उन सबके आराध्य अग्नि से लेकर यक्ष तक और पीर-फकीर, योगी, जती सब बखुशी विराजमान हैं।


साल 1947 में आजादी के बाद जनता को अधिकार तथा उसके चुने हुए नेताओं को ताकत मिली पर यह कहना गलत होगा कि हम हमेशा सही लोकतांत्रिक मूल्यों वाले नेताओं को ही चुनते रहे। या राजकाज की बागडोर हाथ में आ जाने के बाद हमारे वे लोकप्रिय नेता भी रातों-रात जनतंत्र का सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय उपयोग करो वाले साबित हुए। स्वराज्य ने हमको जो कुछ दिया था उसके इस्तेमाल के लिए हमारा नया नागरिकता कानून या उससे उपजी नागरिक रजिस्टर या आबादी रजिस्टर की प्रक्रिया पुरानी उदारता से खुले नहीं रह सकते।

गांधी जी के सर्वधर्म समभावी सपने तो उनके जीवनकाल में ही खट्टे पड़ चले थे और हिंदू-मुसलमान एकता बचाने में उनकी जान ही चली गई। इसलिए यह उम्मीद करना फिजूल है कि उनकी 150वीं जयंती में गांधीवादी मूल्यों में भेदकारी नया कानून लाने वाले शासन की आस्था सौ फीसदी सच्ची होगी। गांधी की 150वीं जयंती के सारे तामझाम के बाद भी 2019 में दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों को हर तरह से असुरक्षित महसूस कराते हुए उनको हाशिये पर धकेलने वाले वाकये हुए हैं। निर्भया के बलात्कारियों को फांसी तय हुई तो उसी समय गुजरात में एक और लड़की से सामूहिक बलात्कार हुआ और फिर उसका शव पेड़ पर लटका दिया गया। या अफजल गुरु से अनसुझे संबंधों के बाद भी उसको पकड़वाने वाला कह कर सम्मानित हुआ पुलिस इंस्पेक्टर कुछ आतंकियों को अपनी सुरक्षा में रखता हुआ पकड़ा गया।

जामिया परिसर में बिना कुलपति की अनिवार्य सहमति के पुलिस घुसकर तोड़फोड़, हिंसा कर गई लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वीसी की प्राथमिकी शिकायत दर्ज नहीं हुई। उधर, जेएनयू में भी हिंसा हुई, पुलिस बुलाई गई लेकिन कुलपति अज्ञातवास पर रहे और निष्क्रिय खड़ी पुलिस के सामने बाहरी गुंडों द्वारा एक छात्रा का कपाल फोड़ा गया। जब छात्रों ने हो हल्ला किया तो चारेक दिन बाद पुलिस ने अचानक हरकत में आकर लड़की का नाम गुंडई करने वालों में दर्ज कर दिया लेकिन उसके हमलावरों के नाम या उनके राजनीतिक जुड़ाव पर आश्चर्जनक खामोशी है।

इन तमाम बातों में भयावह विडंबना जरूर है, लेकिन एक औचित्य भी है। जितनी गंदगी और आपसी वैरभाव पिछले छ: सालों में देश में बिखराया गया है, देर सबेर उसे हमारे शिक्षा के मंदिरों के गर्भगृह में पुलिस मुख्यालय, सड़कों और राजपथ पर सरेआम दिखना था ही। जब बंद तहखानों में इतने पाप के घड़े लगातार जमा हो जाएं तो लाजिमी है कि वे फूटना शुरू करेंगे। तब उनकी बदबूदार गैस के विस्फोट दीवानखाने से मूर्तियों तक सबको ढहा देंगे। अपने अंतिम बरसों में सांप्रदायिकता की जिस गुत्थी से गांधी जी जूझे थे, यह उसी का कश्मीर से कन्याकुमारी और असम से पंजाब तक पुनराभिनय है।

आज सीएए का विरोध इसलिए किया जा रहा है कि वह धार्मिक पहचान के आधार पर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों का उत्पीड़न अस्वीकार करते हुए सिर्फ गैर मुस्लिम शरणार्थियों को शरण देने को फास्ट ट्रैक कर रहा है। पर फिर असम या तमिलनाडु में उसका विरोध किस लिए हो रहा है? यहां हम भारत की एक अनकही भीतरी क्षेत्रीय ग्रंथि से रूबरू होते हैं, जो हिंदू-मुस्लिम गुत्थी से कहीं बड़ी है।


असमिया लोग हर तरह के शरणार्थियों को बाहर रखने के पक्षधर हैं। उनको डर है कि इससे पूर्वी क्षेत्र से शरणार्थी हिंदुओं खासकर बंगालियों की बाढ़ उनकी जमीन और संस्कृति को मटियामेट कर देगी। बंगाल में जाइए तो वहां बाहरी मारवाड़ियों के प्रति अनकहा गुस्सा दिख जाएगा। दक्षिण में तमिल नाराज हैं कि जो हिंदू मूल के तमिल श्रीलंका से आकर 2014 से वहां पहले बस चुके हैं, उनको अब स्थायी नागरिकता नहीं मिल जाएगी। सच तो यह है कि पिछले सत्तर बरसों में बाहरी देशों से आए शरणार्थियों के बरक्स दूसरे राज्यों से आने वाले प्रवासी कामगरों के खिलाफ बार-बार विस्फोटक आंदोलन हुए हैं।

साल 1942 में जिस बंबई से (जो अब मुंबई है), अंग्रेजों, भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ था, आजादी के बाद 1957 में भाषा का ज्वार उठने पर वह रातोंरात गुजरातियों के खिलाफ मराठी भाषियों के पक्ष में उतर आया। होते-होते सारे दल अपनी किश्तियां महाराष्ट्रवादी नदी में खेने लगे। 1960 में जब महाराष्ट्र बना, तो पहले गुजरातियों, फिर तमिलों और अंत में उत्तर भारत के भैयाओं के खिलाफ जब-तब आंदोलन छेड़े गए और वोट बैंक पुख्ता किए गए। इस गदर के बीच हम अगर मोदी जी की बात मान भी लें कि नया नागरिकता कानून नागरिकता लेने का नहीं देने का है, तो भी सरकार का धर्म के प्रति भेदभावी रुख भारत में हर कहीं कई नए-पुराने भूचालों को सक्रिय कर देगा।

यहां यह बात भी जानने लायक है कि इस समय खुद भारत से लगभग दो करोड़ भारतीय शरणार्थी बनकर सारे एशिया, योरोप और अमेरिका में छितराये हुए हैं। हम बाहरियों को भगाएं तो क्या कल उनपर कहर नहीं टूटेगा? आज पंजाब और केरल की समृद्धि की बड़ी वजह उनके द्वारा विदेश से घर भेजा जा रहा उनकी कमाई का पैसा है। आकलन है कि हर साल वे लगभग 8 अरब डॉलर भारत भेजते हैं। पर अब उनपर भी खतरा है। 2020 में दुनिया ग्लोबलाइजेशन त्याग रही है। शरणार्थियों को लेकर समृद्ध देश रोकथाम के पक्ष में लामबंद हैं। उनका सरताज अमेरिका तो बाकायदा मैक्सिको की सीमा पर दीवाल बनवा रहा है। शेष भी नावों पर बहकर आ रहे शरणार्थियों को कैंपों में भरकर जबरन वापिस भेज रहे हैं और अपने वीज़ा नियम सख्त बना रहे हैं।

हमको अब यह समझना होगा कि इतनी तादाद मे दुनिया भर में शरणार्थी क्यों भटक रहे हैं? अब तक तो गरीबी इसकी मुख्य वजह रही है, पर उस लिस्ट में युद्ध तथा पर्यावरण की छीजन से आई तबाही भी जुड़ गए हैं। जेनेवा से प्रकाशित 2020 की ताजा विश्व प्रवास रपट के अनुसार पिछले दशक में कुल 27 करोड़ बीस लाख शरणार्थियों में से 60 फीसदी शरणार्थी पर्यावरण बिगड़ने की वजह से उपजे भीषण बाढ़-सुखाड़ के पीड़ित लोग थे। अफ्रीका से 8 लाख लोग सूखे के शिकार होकर शरण लेने बाहर आए, जबकि फिलिपींस से आए अधिकतर लोग भीषण बारिश और चक्रवाती तूफानों के शिकार थे। हमको भी इसके कारण तटवर्ती इलाकों से जो डूब का शिकार होंगे या जल संकट से उजड़े घरेलू शरणार्थियों की तादाद में भारी बढ़ोतरी का सामना करना होगा।

इस समय आज हलचल भरी दुनिया में अब तक लाभकारी साबित होते आए भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों में पलीता लगाना लोकतंत्र की सारी नाव को डुबाने का जोखिम मोल लेना है। जाति भेद, नस्ल भेद, सांप्रदायिक और लैंगिक भेदभाव सब एक दूसरे से जुड़कर तेजी से बढ़ने वाले मिश्रित संक्रमण के विषाणु साबित हो रहे हैं। आज हमको मुसलमानों की आवक से परेशानी है, कल हमको देश के किसी और राज्य से आए असमिया या अहिंदी भाषी या हिंदी भाषी शरणार्थियों से उतनी ही उत्कट नफरत नहीं होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं।

हिंदुओं में शैवों, सनातनियों, वैष्णवों, अवर्णों, सवर्णों के बीच समय-समय पर टकराहटों का हमारे यहां लंबा ज्ञात इतिहास है जिसके बुरे नतीजों से संविधान ही ढाल बनकर हमको बचाता रहा है। नागरिकता के क्षेत्र में धर्म की खिड़की खुलते ही हमारे यहां यह सब पुराने घाव भी नहीं खुलने लगेंगे क्या इसकी कोई गारंटी है? अभी भी समय है कि सारी विपक्षी पार्टियां समवेत कसम खाएं कि वे हिंदू वोट बचाने के लिए हिंदुत्व के अंध राष्ट्रवाद का हाथ नहीं थामेंगी। क्षणिक फायदे और लोकप्रियता के लिए वे सारे देश को आग की भट्टी में नहीं झोंकेंगी।

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