खरी-खरी: मुसलमानों के दोस्त हैं या दुश्मन हैं असदुद्दीन ओवैसी !

ओवैसी जिस ‘सीधे मुस्लिम हित की बात’ की जज्बाती रणनीति पर चल रहे हैं, वह मुस्लिम नेतृत्व की दशकों पुरानी रणनीति है। हां, इससे कुछ मुल्ला-मौलवियों और कुछ मुसलमान नेताओं के हित तो जरूर चमके लेकिन मुस्लिम समाज भारत में दूसरे दर्जे की नागरिकता के कगार पर पहुंच गया।

फोटो : Getty Images
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ज़फ़र आग़ा

जब किसी एक पूरे समाज की मति मारी जाती है तो वह समाज अपने विनाश के लिए नित-नए साधन ढूंढ निकालता है। बिहार विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद यह साफ नजर आ रहा है कि भारतीय मुस्लिम समाज ने अपने विनाश का एक नया रास्ता ढूंढ निकाला है। और वह साधन है असदुद्दीन ओवैसी और उनकी पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम)। बिहार चुनाव के परिणामों से अब यह जग-जाहिर है कि ओवैसी साहब की पार्टी से मुसलमानों को कम और भाजपा गठबंधन को अधिक लाभ पहुंचा है। यदि एआईएमआईएम चुनाव में नहीं होती तो यह संभव था कि विपक्ष के महागठबंधन की सरकार बन जाती। अरे भाई, पांच सीटें जो ओवैसी साहब की पार्टी को मिलीं, वे महागठबंधन को जाती ही जाती। फिर पांच से दस सीटों पर एआईएमआईएम के प्रत्याशियों ने ‘वोट कटवा’ का काम करके महागठबंधन को गहरा नुकसान पहुंचाया। इस प्रकार कांटे की टक्कर वाली स्थिति में ओवैसी साहब की राजनीति से बिहार में भाजपा की सरकार दनदनाती हुई आ गई। सब जानते हैं कि इस बार बिहार में नीतीश कुमार केवल नाम के मुख्यमंत्री हैं। सत्ता की बागडोर तो भाजपा ही नहीं, सीधे नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथों में है।

अब बताइए, इन परिस्थितियों में बिहार के मुसलमानों के हितों का क्या होगा! क्या अब कोई गारंटी है कि उत्तर प्रदेश और दूसरे भाजपा शासित राज्यों की तरह बिहार में कल को ‘मॉब लिंचिंग’ आरंभ न हो जाए! पिछले तीस वर्षों में बिहार में कोई एक भी बड़ा हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ। सन 1992 में बाबरी मस्जिद गिरी और सारे देश में मुस्लिम समाज खतरे में आ गया। भाजपा के हाथों में सत्ता रहने के बाद क्या यह संभव है कि बिहार में हिंदू-मुस्लिम शांति बनी रहे और वहां कोई दंगा नहीं भड़के। सांप्रदायिक शांति से केवल जान-माल की ही सुरक्षा नहीं होती बल्कि समाज में शांति से हर समुदाय की कुछ-न-कुछ तरक्की होती रहती है। अब बिहार में भाजपा दनदनाएगी और समाज में सांप्रदायिक जहर घोलेगी। जाहिर है कि उसका खामियाजा मुस्लिम समाज को सबसे ज्यादा भोगना पड़ेगा। क्या इन परिस्थितियों के लिए ओवैसी साहब की राजनीति जिम्मेदार नहीं होगी!


हैरत की बात यह है कि अभी भी जब ओवैसी साहब की राजनीति पर प्रश्न किए जा रहे हैं तो केवल बिहार ही नहीं बल्कि उसके बाहर भी मुस्लिम समाज का एक वर्ग ओवैसी साहब के पक्ष में खड़ा है। उनका मानना है कि संसद के अंदर और बाहर केवल और केवल असदुद्दीन ओवैसी एक ऐसा व्यक्तित्व है जो डंके की चोट पर मुसलमानों के हितों को लेकर आवाज उठाता है। ओवैसी ही अकेले नेता हैं जो धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति की पोल खोलते हैं। वह अकेले ऐसे नेता हैं जो टीवी और संसद- हर जगह ताल ठोककर यह कहते हैं कि ‘मैं भारत माता की जय नहीं कहूंगा।’ बहुत अच्छी बात है कि असदुद्दीन ओवैसी साहब खुलकर मुस्लिम हित में अपनी आवाज उठाते हैं। लेकिन हर राजनीति उसी समय सफल समझी जाती है जब उसका लाभ सीधे उस समाज को पहुंचे जिस समाज अथवा वर्ग के लिए वह राजनीति की जाती है। दूसरी बात यह है कि हर राजनीति को करने की एक रणनीति होती है। उस रणनीति का मकसद यह होता है कि उससे समाज को लाभ हो, न कि उसे क्षति पहुंचे।

पहली बात यह है कि ओवैसी साहब जो राजनीति कर रहे हैं, उससे अब तक भारतीय मुसलमानों को कितना लाभ पहुंचा! इस प्रश्न का उत्तर जरा हैदराबाद के मुस्लिम समाज से मांगिए। लगभग तीन दशकों से अधिक समय से एआईएमआईएम पार्टी हैदराबाद में म्युनिसिपल एवं राज्य स्तर पर सत्ता में है। वहां के मुसलमानों का कितना भला हुआ, वह तो आज तक सुनने को नहीं मिला। हां, यह जरूर सुनते हैं कि ओवैसी खानदान के वक्फ फल-फूल रहे हैं। शहर में इन वक्फ के तहत मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज और तरह-तरह की शैक्षणिक संस्थाएं चलरही हैं। ये सब प्राइवेट संस्थानों के हिसाब से उतनी ही फीस लेते हैं जैसे दूसरे लेते हैं। पुराना हैदराबाद एआईएमआईएम की म्युनिसिपल सत्ता के बावजूद वैसे ही गंदा रहता है जैसे दूसरे शहरों की मुस्लिम बस्तियां गंदी रहती हैं।


फिर, ओवैसी साहब जिस डंके की चोट पर ‘मुस्लिम हित’ की बात करते हैं, हम ‘मुस्लिम नेतृत्व’ पर पिछले तीन दशकों के अधिक समय से उसी ऊंचे स्वर में मुस्लिम मुद्दों की बात सुनते आए हैं। आखिर, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का बाबरी मस्जिद के मामले में क्या स्वर था? ‘हम मस्जिद नहीं हटाएंगे, एक बार मस्जिद तो कयामत तक मस्जिद’-जैसे बयान नारा-ए- तकबीर अल्लाह हू अकबर के साथ हमने स्वयं सुने हैं। क्या यह सीधी मुस्लिम हित की बात नहीं थी। ऐसे ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक के मुद्दे पर लगभग चालीस वर्षों तक ‘तीन तलाक’ पर ‘मुस्लिम समाज नहीं झुकेगा’ का रवैया अपनाया। यह भी तो सीधे मुस्लिम हित की बात थी। परंतु इस प्रकार सीधे-सीधे ‘मुस्लिम हित’ की बातों से किसको लाभ और किसको क्षति पहुंची। आज बाबरी मस्जिद का कहीं नामो-निशान नहीं है। वहां अब जल्द ही एक भव्य राम मंदिर खड़ा होगा। तीन तलाक के खिलाफ अब देश में कानून बन चुका है। वह तो जाने दीजिए। बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के समय से अब तक इस सीधी-सीधी मुस्लिम हित की बात करने और जज्बाती भाषणों का नतीजा यह है कि आज इस देश में एक ऐसी हिंदू प्रतिक्रिया उत्पन्न हो चुकी है जिसने भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को ऐसा सशक्त बना दिया है कि वे जैसे चाहें मुस्लिम हितों को ही नहीं बल्कि पूरे मुस्लिम समाज को रौंदें। याद रखिए, यदि नारा-ए-तकबीर की राजनीति होगी तो फिर जय श्रीराम की प्रतिक्रिया जरूर होगी। और इस राजनीति का अंततः लाभ किसको और क्षति किसको होगी, यदि अभी भी मुस्लिम समाज को यह बात समझ में नहीं आ रही है तो फिर तो अल्लाह भी शायद इस समाज का संरक्षण नहीं कर सकता है।

असदुद्दीन ओवैसी साहब जिस ‘सीधे मुस्लिम हित की बात’ की जज्बाती रणनीति पर चल रहे हैं, वह मुस्लिम नेतृत्व की दशकों पुरानी रणनीति है। हां, इस जज्बाती सीधी बात की रणनीति से कुछ मुल्ला-मौलवियों और कुछ मुसलमान नेताओं के हित तो जरूर चमके लेकिन मुस्लिम समाज भारत में दूसरे दर्जे की नागरिकता के कगार पर पहुंच गया। अतः असदुद्दीन साहब की राजनीति से सावधान रहिए। ऐसी जज्बाती राजनीति से मुस्लिम समाज का तो नहीं, हां, भाजपा का भला जरूर हो रहा है। क्योंकि जब ‘सीधे मुस्लिम हित’ की बात होगी तो नरेंद्र मोदी डंके की चोट पर सीधे हिंदू हित की बात करेंगे। उसका नतीजा यही होगा कि बिहार-जैसे प्रदेश में जहां पिछले तीन दशकों से एक भी बड़ा दंगा नहीं हुआ, वहां भी भाजपा का डंका बज गया है। अतः मुस्लिम समाज को जज्बाती ‘सीधी बात’ की राजनीति से सावधान रहने और सद्बुद्धि से अपनी क्षति नहीं बल्कि अपने हित की राजनीति का रास्ता ढूंढना चाहिए।

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