ASER 2022: सरकारी स्कूलों में बढ़ती बच्चों की संख्या, पर पढ़ने और जोड़-घटाने की समझ में कमी ने बढ़ाई चिंता

सरकारी स्कूलों में नामांकन या दाखिलों की संख्या में 2022 में बढ़ोत्तरी हुई है, हालांकि यह संख्या 2006 के मुकाबले कुछ कम है। लेकिन इसका कारण शायद यह है कि अधिकतर माता-पिता निजी स्कूलों में शिक्षा का खर्च नहीं उठा सकते।

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आकार पटेल

शासन को उस प्रणाली के तौर पर में परिभाषित किया जाता है जिसके तहत एक संगठन को संचालित और नियंत्रित किया जाता है। यह काम एक ऐसे तरीके से किया जाता है कि यह प्रणाली और इससे जुड़े लोग जवाबदेह हों। नैतिकता, जोखिम प्रबंधन, अनुपालन और प्रशासन, ये सभी शासन के तत्व हैं।

अच्छे शासन या सुशासन की 8 विशेषताएं बताई जाती हैं। यह सहभागिता, सर्वसम्मति से निर्णय लेने वाला, जवाबदेह, पारदर्शी, जिम्मेदार, प्रभावी और कुशल, न्यायसंगत और समावेशी होता है और कानून के शासन का पालन करता है।

"यह आश्वासन देता है कि भ्रष्टाचार को कम किया गया है, अल्पसंख्यकों के विचारों को ध्यान में रखा गया है और निर्णय लेने में समाज में सबसे कमजोर लोगों की आवाज सुनी जाती है। यह समाज की वर्तमान और भविष्य की जरूरतों के प्रति भी उत्तरदायी है।" सरकार का सबसे महत्वपूर्ण कार्य शासन है और भाग्यशाली राष्ट्रों में, यही अक्सर सुशासन होता है।

एएसईआर शिक्षा के क्षेत्र में 2005 से ही सर्वे करता आ रहा है। इस वर्ष इसने 616 ग्रामीण जिलों (जोकि कुल आबादी का 85% से अधिक हिस्सा है) को अपने सर्वे में शामिल किया और 3 से 16 वर्ष आयुवर्ग में 6.9 लाख बच्चों की स्थिति का जायजा लिया है। इस सर्वे को 27,000 से अधिक स्वयंसेवकों ने किया है। यह एक सरल सर्वे हैं जिसमें तीन चीजों का आकलन किया गया है: नामांकन यानी स्कूलों में दाखिले, बच्चों की पढ़ने की क्षमता और गणित यानी मैथ्स की समझ।

सर्वे के दौरान छात्रों को चार स्तर का पाठ यानी टेक्स्ट एक कागज पर दिया गया। इनमें पहला टेक्स्ट वर्णमाला के अक्षर, दूसरा सामान्य शब्द, तीसरा, एक छोटा पैराग्राफ जिसमें चार आसान वाक्य होते हैं, और चौथा एक लंबा पाठ जिसमें थोड़ी जटिल शब्दावली होती है।

तीसरी कक्षा के बच्चों की आमतौर पर उम्र 8 साल होती है। असर के सर्वे में सामने आया कि तीसरी कक्षा के जो बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ या टेक्स्ट पढ़ पाए उनकी संख्या 20 फीसदी है। इसका अर्थ हुआ कि हर पांच में से 4 बच्चे उस पाठ को नहीं पढ़ सकते। 2018 के 27 फीसदी के मुकाबले इस प्रतिशत में गिरावट आई है। 2014 में यह प्रतिशत 23 फीसदी था, यानी इसका अर्थ है कि एक दशक पहले बच्चों में सीखने की जो प्रतिभा या कौशल था वह आज पहले से बदतर है। सीखने में यह गिरावट निजी और सरकारी दोनों स्कूलों में बराबर का है।

इसी तरह पांचवीं कक्षा के जो बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ पढ़ सके उनका प्रतिशत 42 पाया गया, जबकि 2014 में यह 48 प्रतिशत और 2018 में 50 प्रतिशत था।


2014 के सर्वे में ऐसे बच्चों का प्रतिशत 25 था जो तीसरी कक्षा में घटाने का प्रश्न हल कर पाए यानी हर 4 में से 3 बच्चों को नहीं पता है कि माइनस या इकुअल का अर्थ क्या होता है। 2018 में ऐसे बच्चों का प्रतिशत बढ़ा था और 28 फीसदी तक पहुंचा था, जोकि इस साल गिरकर फिर से 25 फीसदी पहुंच गया है।

इसी प्रकार करीब 10 साल की उम्र के कक्षा पांच के ऐसे छात्र जो आसान का भाग या डिवीजन कर सकते हैं उनका प्रतिशत 2014 में 26 फीसदी, 2018 में 27 फीसदी था। लेकिन इस बार यह प्रतिशत गिरकर 25 फीसदी पहुंच गया है। सवाल है कि अगर हमारे बच्चे साधारण सा जोड़-घटाना या गुणा-भाग नहीं कर पा रहे हैं तो वे किस प्रकार की शिक्षा या कौशल लेकर बड़े हो रहे हैं?

करीब 15 हजार कर्मचारियों वाली बेंग्लोर की सूचना प्रोद्योगिकी कंपनियों यानी इंफोटेक कंपनियों में नौकरी की अर्जी देने वाले 10 में से 9 इंजीनियरों को खारिज कर दिया जाता है। इसका कारण यह नहीं है कि वह नौकरी किसी और को दे दी गई है, बल्कि यह है कि इन इंजीनियरों के पास नौकरी की जरूरत के हिसाब से स्किल या कौशल नहीं है।

हमें हैरानी नहीं होनी चाहिए कि हम एक ऐसा देश हैं जिसके बच्चे स्कूल में तो हैं, लेकिन अशिक्षित हैं, तो वहां के इंजीनियर भी ऐसे होंगे जो मुश्किल से शिक्षित कहे जा सकें। लेकिन यह उनका दोष नहीं है।

हमें यह स्वीकारना होगा कि समस्या नई नहीं हैं। लेकिन हम इस बात को भी अनदेखा नहीं कर सकते कि समस्या और गंभीर होती जा रही है। हम बीते 10 साल में एक ऐसे क्षेत्र में और बदतर हो गए हैं जहां हमारी स्थिति बाकी दुनिया के मुकाबले पहले ही खराब थी। माना जा सकता है कि कोविड महामारी ने समस्या को गंभीर किया है। कुछ महीने पहले हुए सर्वे में सामने आया था कि महामारी के दौरान ग्रामीण क्षेत्र के सिर्फ 8 फीसदी बच्चे ही नियमित पढ़ाई कर सके। अधिकतर बच्चों ने कभी-कभी पढ़ाई की और हर तीन में से एक बच्चे ने पढ़ा ही नहीं।

असर (एएसईआर) के सर्वे से एक और चौंकाने वाली और चिंता की बात सामने आई है। पहली बार सरकारी स्कूलों में दाखिले बढ़े हैं। 2006 में दाखिले 73 फीसदी थे जो 2018 में 65 फीसदी हो गए थे, लेकिन अब फिर से 72 फीसदी पर पहुंच गए हैं। आखिर क्यों? क्या अचानक से सरकारी स्कूल निजी स्कूलों के मुकाबले अधिक आकर्षक हो गए हैं? लेकिन सही जवाब है कि करोड़ो भारतीय परिवार पहले के मुकाबले अधिक गरीब हो गए हैं और अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने में असर्थ हैं। और इस बात को यानी गरीबी खत्म करने का हल सरकार के पास यह है कि वह जी-20 बैठक में आने वाले लोगों से इन्हें छिपाने के लिए पर्दे टांग दे।


किसी समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब हम मान लें कि समस्या है। क्या आपको याद आता है कि पिछली बार सरकार ने कब कहा था कि प्राथमिक शिक्षा की स्थिति सही नहीं है। वह तो गंगा क्रूज और चीतों में व्यस्त है। सरकार ने पिछले बजट में 88,000 करोड़ रुपए शिक्षा के लिए आवंटित किए थे जोकि बुलेट ट्रेन के लिए आवंटित राशि से कम है। देश में हर जरूरी क्षेत्र में ऐसा ही हो रहा है। विश्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि स्वास्थ्य पर पहले के मुकाबले कम खर्च कर रहे हैं। 2013 में स्वास्थ्य पर जीडीपी का 3.7 फीसदी खर्च होता था, आज यह घटकर सिर्फ 3 फीसदी पर रह गया है।

दूसरे देशों में समस्या को पहचान कर और स्वीकार कर उसका हल निकाला जाता है। हमारे यहां सरकार हार मान लेती है। या तो सरकार को पता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्या को सुलझाया नहीं जा सकता है और इसीलिए उसे इस समस्या का कोई अनुमान ही नहीं है। कारण है कि इस किस्म की विशाल या कहें कि विकराल समस्या के समाधान के लिए शासन, कड़ी मेहनत और प्रतिदिन किए जाने वाले प्रयास का इस्तेमाल करना होगा। उद्घाटनों, फैंसी ड्रेस पहनने या फिर भाषणों से तो समस्या का निदान नहीं हो सकता है।

अभी दिसंबर में शहरी इलाकों में बेरोजगारी दर 10 फीसदी थी। बीते सालों के मुकाबले यह तीन गुना है। कृषि में रोजगार, जोकि हाल के दशकों में लगातार कम होता जा रहा है, इन दिनों बढ़ा है क्योंकि लोगों के पास मैन्यूफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में काम करने को है नहीं, इसलिए लोग रोजगार की तलाश में कृषि की तरफ जा रहे हैं। यह एक तथ्य है और इसके आंकड़े खुद सरकार ने दिए हैं। लेकिन सरकार इसके लिए जवाबदेह नहीं है, या उसे जिम्मेदार नही ठहराया जा रहा है, यह भी एक तथ्य है।

हमारे बच्चों को इस तरह शिक्षित किया जाए जिससे वे न सिर्फ अपना जीवन अच्छी तरह गुजार सकें बल्कि दुनिया के बाकी बच्चों से मुकाबला कर सकें, यह एक अच्छे शासन की पहचान है। बाकी सब तो फिर ड्रामा और शोरशराबा ही है।

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