एशिया कप: क्रिकेट को खेल ही रहने दो, कोई काम न लो!
खिलाड़ियों को दोष देना बेमानी होगा। वे अपनी तरफ से वह करने की कोशिश कर रहे हैं जो उन्हें कहा गया।

अधिकांश देशवासियों की तरह मैं भी क्रिकेट का शौकीन हूं। तमाम दौड़-भाग और खींच-तान के बीच वक्त मिले तो देख भी लेता हूं, चाहे कुछ ओवर ही सही। और कुछ नहीं तो फोन पर स्कोर ही चेक करता रहता हूं। लेकिन इस बार एशिया कप में भारत-पाकिस्तान के मैच नहीं देखे। मन ही नहीं किया। और उनके बारे में जो कुछ पढ़ने-सुनने को मिला, उससे रही-सही इच्छा भी जाती रही।
इस सारे प्रकरण के बारे में सुनकर बचपन की याद आई। हमारे शहर में किंग कोंग आया था। उसकी फ्रीस्टाइल कुश्ती थी। किसके साथ यह याद नहीं। फर्क भी नहीं पड़ता। कई हफ्ते से रिक्शे पर मुनादी हो रही थी, शहर में बड़े पोस्टर लगे थे। रोज अखबार में खूंखार-सा बयान आता था, कभी किंग कोंग का और कभी उसके प्रतिद्वंद्वी का। मैं उसको स्टेडियम से बाहर फेंक दूंगा, या फिर उसे कच्चा चबा जाऊंगा, आदि। उन दिनों सोशल मीडिया नहीं था। दिन-रात भड़काऊ बयान सुनने की आदत नहीं बनी थी। इसलिए वे बयान हमें चौंकाते थे, मन में कौतूहल पैदा करते थे। इस रणनीति का मनचाहा असर हुआ। पूरा शहर किंग कोंग की कुश्ती देखने पहुंचा, हालांकि पहलवानी से गुरेज के चलते मैं इस सौभाग्य से वंचित रहा। हुआ वही जो होना था — किंग कोंग ने अपने प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ दिया। खेल खत्म, पैसा हजम। बाद में शहर में कुश्ती फिक्स होने की चर्चा रही।
कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि एशिया कप में भारत-पाकिस्तान का मैच फिक्स था। उसकी कोई जरूरत नहीं थी। जबसे आइपीएल के चलते भारतीय क्रिकेट के दरवाजे छोटे शहरों की टैलेंट के लिए खुल गए हैं, तबसे भारत की क्रिकेट टीम एक अलग स्तर पर पहुंच गई है। अगर एशिया कप में भारत की दो टीम होती, तो संभव है दोनों फाइनल में पहुंच जातीं। इसलिए एकाध फीके मैच के अपवाद को छोड़कर भारत और पाकिस्तान का मुकाबला काफी एकतरफा रहता है। अब इन मैचों में वह रोमांच नहीं जो ज़हीर अब्बास, इमरान ख़ान, जावेद मियांदाद, वसीम अकरम या शाहिद अफ़रीदी की पाकिस्तानी टीमों के साथ मुकाबले में होता था। आज भारत अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट की राजधानी है। क्रिकेट के लिहाज से पाकिस्तान की टीम को अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानना भारतीय क्रिकेट टीम की शान के खिलाफ होगा।
लेकिन एशिया कप के मैच न देखने के पीछे मेरी असली वजह यह नहीं थी। दरअसल शुरू से ही यह साफ था कि यह क्रिकेट का खेल नहीं बल्कि बाजार और सरकार का खेल होने जा रहा है। क्रिकेट के खेल की आड़ में कुछ और खेल हो रहे हैं। बाजार के असीमित मुनाफे का खेल। सरकार की विदेश नीति के पैंतरे का खेल। देश की जनता को छद्म राष्ट्रवाद में डुबाए रखने का राजनीतिक खेल।
पहले दिन से ही भारत-पाकिस्तान के मैच को लेकर चली बहस बेमानी थी। जाहिर है मैच में हिस्सा लेने के समर्थन में क्रिकेट बोर्ड की दलील लचर थी। इसे अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट की मजबूरी बताना कुतर्क था। एशिया कप कोई वर्ल्ड कप तो है नहीं कि भारतीय टीम उसे छोड़ नहीं सकती। वैसे राजनीतिक कारणों से अनेक देशों ने ओलंपिक तक का भी बहिष्कार किया है। इसे क्रिकेट बोर्ड का स्वायत्त फैसला बताना और भी हास्यास्पद था। कौन नहीं जानता कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का अध्यक्ष भारत के किस लाल का लाल है, कि भारत के क्रिकेट बोर्ड के पदाधिकारी किस मंत्री के बंगले में चुने जाते हैं। इस सच पर पर्दा डालना नामुमकिन है कि यह सब बाजार का खेल था।
भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच एक बढ़िया बिकाऊ माल है। खासतौर पर एक युद्ध के बाद। खासतौर पर त्यौहार के सीजन से पहले टीवी और फोन की स्क्रीन पर। और खासतौर पर दुबई में जहां दोनों देशों के मालदार असामी अपने-अपने देश से दूर बैठकर बिना जोखिम उठाए देशभक्ति का खेल खेल सकते हैं। कुछ वैसा ही खेल जो रोज शाम को वाघा बॉर्डर पर हुआ करता था। इधर भारत के सुरक्षा बल, उधर पाकिस्तान के। दुश्मनी के उन्माद की प्रायोजित रस्में। लाउडस्पीकर पर देशभक्ति के गीत। और उसका रसास्वादन करते हुए हजारों लोग। बाल भी बांका होने का जोखिम उठाए बिना युद्ध का पूरा मजा। अनगिनत शहीदों की कुर्बानी से बने राष्ट्रवाद का सबसे सस्ता और सुलभ संस्करण।
उधर इस मैच का विरोध करने वालों की दलील भी गले से नहीं उतरती थीं। बेशक मोदी सरकार का पाखंड का पर्दाफाश करना उनका हक था। इधर सरकार दावा कर रही है कि ऑपरेशन सिंदूर जारी है, हर तरह के संबंध तोड़े जा रहे हैं, सरकारी वीसा पर भारत में रह रहे पाकिस्तानी नागरिकों को वापस भेजा जा रहा है। उधर क्रिकेट बोर्ड और टीवी चैनलों के मुनाफे के लिए मैच खेलने में सरकार को कोई ऐतराज नहीं है।
लेकिन जब वे कहते हैं कि दुश्मन के साथ खेल खेलकर हमने देश की तौहीन की है, तो वे भी उसी बीमार मानसिकता के शिकार हो जाते हैं। कला, खेल, संस्कृति का काम राजनीतिक पुलों को तोड़ना नहीं, बल्कि टूटे हुए पुलों को जोड़ना है। इसलिए जब दिलीप कुमार महान पाकिस्तानी गायिका नूरजहां का सम्मान करते हैं, या जब नीरज चोपड़ा अपने प्रतिद्वंद्वी अरशद नदीम के गले में हाथ डालते हैं, तब अपना काम कर रहे हैं।
जब खिलाड़ी एक दूसरे से हाथ नहीं मिलाते, तो वे न अपना मान बढ़ाते हैं, न अपने देश का। क्रिकेट के मैदान में बंदूक चलाने और हवाई जहाज गिराने के इशारों से सिर्फ खेल भावना घायल होती है, क्रिकेट गिरता है। लेकिन इसके लिए खिलाड़ियों को दोष देना बेमानी होगा। वे क्रिकेटर हैं, एक्टर नहीं। वे अपनी तरफ से वह करने की कोशिश कर रहे हैं जो उन्हें कहा गया। बाजार ने कहा कि खेलो, तो वे खेल रहे हैं।
सरकार ने कहा कि खेलते वक्त दोस्ती नहीं दिखनी चाहिए, तो दोनों तरफ से खिलाड़ी दुश्मनी का स्वांग कर रहे हैं। सवाल खिलाड़ियों या उनके मैनेजर से नहीं, बल्कि उनके राजनीतिक आकाओं से पूछा जाना चाहिए। गुलज़ार की अमर पंक्ति “प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो” की तर्ज पर उनसे कहा जाना चाहिए: “क्रिकेट को खेल ही रहने दो कोई काम ना लो”।
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