अयोध्याः इतिहास दर इतिहास, 30 साल में बाबरी मस्जिद की तरह ध्वस्त हुई भारतीय राजनीति

आज से 30 साल पहले 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद उभरे अयोध्या विवाद में ऐसी क्या बात थी कि जिसने भारतीय राजनीति ही नहीं, अपितु देश में ऐसा सामाजिक परिवर्तन पैदा कर दिया जिसकी संभावना बाबरी मस्जिद का ताला खुलने से पहले बिल्कुल नामुमकिन थी।

फोटोः GettyImages
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ज़फ़र आग़ा

अयोध्या इतिहास है, यह तो अब तय ही है। लेकिन अयोध्या अब केवल भगवान राम से जुड़ा इतिहास नहीं है। अयोध्या नवीन भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण अध्याय और इतिहास भी है। हमने इस इतिहास को एक पत्रकार के रूप में बहुत करीब से देखा और इसका आकलन भी किया है। फरवरी 1986 की वह हल्के जाड़े हमें अभी भी याद हैं जब उसी माह बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के पश्चात हम बाबरी मस्जिद के सामने खड़े थे। अंदर ठीक उसी स्थान पर जहां मौलवी खड़ा होकर नमाज पढ़ाता है, वहां रामलला विराजमान थे। हमने रामलला के दर्शन किए और उसी रोज अयोध्या से दूसरे नगरों के लिए निकल पड़े।

उत्तर प्रदेश में उस समय सांप्रदायिक दंगों की आग फैल चुकी थी। हम दंगाग्रस्त नगरों का दौरा करते हुए वापस दिल्ली लौट आए। बस 2 फरवरी 1986 को मस्जिद का ताला खुलने से लेकर नौ नवंबर, 2019 तक अयोध्या का साया भारतीय राजनीति पर किसी न किसी रूप में न केवल छाया रहा बल्कि धीरे-धीरे इस सांप्रदायिक राजनीति ने विभिन्न चरणों में देश की राजनीतिक रूप रेखा ही बदल दी।

अब यह स्थिति है कि भारत लगभग संघ के सपनों का हिंदू राष्ट्र बन चुका है। यह भारतीय राजनीति का एक ऐसा कायाकल्प है जिसकी उम्मीद अयोध्या प्रकरण से पहले नहीं की जा सकती थी। परंतु अब यह एक कटु सत्य है और इसे मानना ही होगा। लेकिन अयोध्या प्रकरण में ऐसी क्या बात थी कि जिसने भारत की राजनीति ही नहीं अपितु भारत में ऐसा सामाजिक परिवर्तन भी पैदा कर दिया जिसकी संभावना बाबरी मस्जिद का ताला खुलने से पहले कर पाना बहुत कठिन था।

अयोध्या प्रकरण में ऐसी हर बात थी जो सांप्रदायिक राजनीति के अनुकूल थी। इस प्रकरण में भारत के दो मुख्य समुदायों, हिंदू और मुसलमान, के बीच आस्था का टकराव था। एक ओर अल्लाह की मस्जिद थी, तो दूसरी ओर भगवान राम की आस्था थी। एक तरफ यह दावा था कि मस्जिद भगवान राम के जन्मस्थान पर मंदिर तोड़कर बनाई गई, तो दूसरी ओर यह दावा था कि यह मस्जिद मुस्लिम वक्फ बोर्ड की मिल्कियत थी। जाहिर है कि भारतीय समाज में यदि दो धार्मिक समुदायों में आस्था के नाम पर मुठभेड़ हो जाए तो फिर मामला नाक का ही बन जाता है।


इसलिए जब बाबरी मस्जिद का ताला खुला, तो पहले मुस्लिम समाज की ओर से नाक बचाने के लिए रातोंरात बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन हुआ। इस बाबरी एक्शन कमेटी ने मस्जिद संरक्षण के लिए मुस्लिम समाज को संगठित करना शुरू किया। भारत में यकायक एक नई राजनीति ने सिर उठा लिया। स्वतंत्रता के पश्चात यह पहला बड़ा मौका था जब पूर्णतः एक मुद्दे पर किसी समुदाय को संगठित किया जा रहा था। मुस्लिम समाज की बड़ी-बड़ी रैलियां और साथ में नाराये तकबीर अल्ला हो अकबर और इन रैलियों में मुस्लिम नेतृत्व मस्जिद के संरक्षण के लिए जान देने की बात करता था।

बाबरी मस्जिद एक साधारण मस्जिद तो थी नहीं। यह स्थल हिंदुओं के लिए राम मंदिर था वह भी उनकी आस्था के अनुसार भगवान राम का जन्मस्थल। अर्थात् यह दो आस्थाओं का टकराव था, जो हिंदुओं और मुस्लिम समुदाय की नाक का सवाल था। भला हिंदुत्व राजनीति करने वाले संगठनों के लिए इस टकराव से उचित और अनुकूल अवसर और क्या हो सकता था। मुस्लिम समाज बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की छत्रछाया में पहले ही एकत्रित होना शुरू हो चुका था। निःसंदेह इसका प्रभाव हिंदू समाज पर पड़ना आरंभ हो चुका था।

ऐसी परिस्थितियों में सबसे पहले हिंदू आस्था के संरक्षण में विश्व हिंदू परिषद मैदान में उतर पड़ा। यह संघ की ओर से अयोध्या प्रकरण में पहली शुरूआत थी। विहिप ने अब हिंदू रैलियां प्रारंभ कीं। देश में मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा उठ खड़ा हुआ। नगर-नगर, पहले उत्तर प्रदेश में विश्व हिंदू परिषद की ओर से रैलियां होने लगीं और मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा उठ खड़ा हुआ। मस्जिद हटाओ, हिंदुओं को रामजन्म भूमि स्थल वापस दो की मांग गूंज उठी। उधर, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का यह इसरार की मस्जिद तो हमारी है हम इसको क्यों वापस दें। दो समुदाय और दो आस्थाएं अब खुलकर टकराव पर थीं।

यह भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ था। भारतीय महाद्वीप के बंटवारे के बाद यह पहला अवसर था जब दो धार्मिक समुदाय आमने-सामने थे। ये दोनों समुदाय अपनी-अपनी आस्था के नाम पर संघर्ष कर रहे थे। स्पष्ट है कि देश की मुख्य राजनीतिक पार्टियों के लिए यह एक बिल्कुल नई स्थिति थी। अब धर्म और आस्था राजनीति का एक मुख्य अंग बनता जा रहा था। यह परिस्थिति केवल और केवल हिंदुत्व की विचारधारा पर आधारित संगठनों के लिए ही अनुकूल हो सकती थी। और ऐसा ही हुआ। सन् 1984 में दो लोकसभा सीटों पर सिमटी भारतीय जनता पार्टी धर्म और आस्था के चढ़े रंग से ऐसी निखरी कि सन 1989 में बीजेपी की सीटें 85 हो गईं।


यह तो था अयोध्या प्रकरण का पहला चरण, जिसने राम की आस्था की आड़ में बीजेपी को भारतीय राजनीति में एक मुख्य पार्टी का रूप दिया। साथ ही सांप्रदायिक राजनीति ने कांग्रेस को भी कमजोर कर दिया। भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर विश्वनाथ प्रताप सिंह उभरकर सामने आए। बीजेपी ने उनको समर्थन दिया। वी. पी. सिंह 1989 में प्रधानमंत्री बने। लेकिन कुछ महीनों में उनकी पार्टी जनता दल में गहरे मतभेद उठ खड़े हुए। केवल 11 महीनों में उनकी सरकार गिर गई। लेकिन वी.पी.सिंह ने सरकार जाने से पहले मंडल आयोग की सिफारिशों पर पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियां और शिक्षा संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी।

भारतीय राजनीति में यकायक मंडल के नाम पर एक नया बवाल उठ खड़ा हुआ। अयोध्या मामले ने धर्म और समुदाय की राजनीति को हवा दी, तो मंडल ने देश में जाति पर आधारित राजनीति का प्रचलन शुरू कर दिया। देखते-देखते हिंदू समाज में अगड़ों और पिछड़ों के नाम पर सामाजिक तथा राजनीतिक दरार पड़ गई। लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और काशीराम तथा मायावती ने उत्तर भारत में जातिगत आधार पर पिछड़ों की राजनीति कर अगड़ों का वर्चस्व तोड़ दिया। यह हिंदुत्व समाज और राजनीति के लिए एक गंभीर परिस्थिति थी।

अब यह चैलेंज था कि जातिगत आधार पर समाज में जो दरार उत्पन्न हुई है उसको कैसे पाटा जाए। इसका केवल एक उपाय यह था कि अंदर की लड़ाई समाप्त करने के लिए लड़ाई को बाहरी बना दो। इसके लिए हिंदू समाज को एक बाहरी शत्रु चाहिए था। वह शत्रु भारत के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में केवल मुसलमान ही हो सकता था। अयोध्या में उत्पन्न आस्था के टकराव ने बड़ी हद तक मुसलमान को हिंदू शत्रु का रूप दे ही दिया था। अतः अब हिंदू सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था के पास केवल संघ और उसके राजनीतिक संगठन बीजेपी का ही एकमात्र रास्ता बचा था।

इस प्रकार संघ तथा बीजेपी अब सामाजिक व्यवस्था के मुख्य छोर हो गए। और इस चरण में इसका नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी ने संभाला। अब देश की राजनीति पूर्णरूप से आडवाणी की रथयात्रा के इर्द-गिर्द सिमटती चली गई और धीरे-धीरे मुसलमान हिंदू मानसिकता में शत्रु का रूप लेता चला गया। मंडल राजनीति करने वाले संगठन सत्ता में तो सामाजिक न्याय के नाम पर आए लेकिन उन्होंने सामाजिक न्याय को त्याग कर यादववाद की राजनीति अपना ली। पिछड़ों में जो उत्साह उत्पन्न हुआ था वह घोर जातिवादी राजनीति ने धीरे-धीरे समाप्त कर दिया। इस प्रकार जो राजनीतिक खला उत्पन्न हुई उसमें मुस्लिम शत्रु की छवि के साथ बीजेपी ने संपूर्णतयाः अपनी पैठ बना ली।


सन 2014 तक हिंदू मानसिकता में मुस्लिम शत्रु की छवि इतनी छा चुकी थी कि गुजरात में मुसलमानों को ‘ठीक’ करने वाले नरेंद्र मोदी संपूर्ण देश के हिंदू हृदय सम्राट बन गए। इस प्रकार अयोध्या की राजनीति से देश का राजनीतिक और सामाजिक कायाकल्प हो गया। अब भारत लगभग एक हिंदू राष्ट्र दिखाई पड़ता है जहां से लौटना कम से कम अभी संभव नहीं दिखाई पड़ता। दूसरी ओर, जैसे बाबरी मस्जिद ध्वस्त हो गई उसी प्रकार भारतीय राजनीति और  समाज में बाबरी मस्जिद में आस्था रखने वाला समुदाय भी लगभग ध्वस्त हो गया।

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