मनुवादी ताकतों से आज भी टक्कर ले रहे हैं अंबेडकर

देश में जहां भी इन मनुवादी ताकतों को मौका मिल रहा है, वे अंबेडकर की मूर्ति को ध्वस्त कर रही हैं, उन पर हमला कर रही हैं। इससे साफ है कि इन ताकतों को सबसे बड़ा खतरा अंबेडकर और उनकी विचारधारा से ही है।

फोटोः सोशल मीडिया
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भाषा सिंह

बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की 127वीं जयंती के मौके पर पूरे देश में जहां जय भीम के नारे गूंज रहे हैं, वहीं उनकी मूर्ति को तोड़ने का मनुवादी अभियान बिना किसी रोक-टोक के चल रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चार साल के शासनकाल में सबसे ज्यादा अंबेडकर की मूर्तियां तोड़ी गईं, शासन का हाल यह है कि उनकी मूर्ति को सींखचों में रखना पड़ा रहा है और उसे भगवा रंग से रंगने की साजिश रची जा रही है। उनके नाम के साथ रामजी जोड़कर उन्हें भगवा खेमे में खड़ा करने की नापाक कोशिशों में बीजेपी व्यस्त नजर आ रही है।

एक बात और साफ है कि जो कद और सम्मान आज की तारीख में अंबेडकर को हासिल है वह किसी और को नहीं। वह निर्विवाद रूप से देश के सबसे बड़े और प्रभावशाली नेता हैं, जिनका नाम वे ताकतें भी जपने को मजबूर हैं, जिन्होंने अंबेडकर का जीते-जी जमकर विरोध किया और आज भी उनकी विचारधारा को ध्वस्त करने पर उतारू हैं। यानी अंबेडकर की अनदेखी करने का साहस कोई भी दल नहीं कर सकता। उनका यह कद बनाए रखने में अंबेडकर की विचारधारा की प्रासंगिकता और उसे मानने वाले अनुयायियों-अंबेडकरवादियों के बेहद कठिन संघर्ष की बड़ी भूमिका है।

आज अंबेडकरवादियों और मनुवादियों के बीच संघर्ष बिल्कुल दूसरे स्तर पर पहुंच चुका है और इसी पर हमारे देश के लोकतंत्र का भविष्य भी टिका हुआ है। मनुवादी एक तरफ जहां संविधान में तब्दीली करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल कर रहे हैं, वहीं अंबेडकरवादी और जनपक्षधर ताकतें संविधान की रक्षा के लिए जान पर खेलने को तैयार नजर आ रही हैं। इसी क्रम में दलित युवक द्वारा घोड़े पर बारात निकालने, घोड़े पर सवारी करने, सहारनपुर के दलित नेता चंद्रशेखर रावण द्वारा द ग्रेट चमार और भीम आर्मी बनाना, गुजरात के ऊना में दलितों द्वारा मरे जानवरों को उठाने से इनकार करना... और इस तरह के अनगिनत प्रतिरोधों को देखा जा सकता है।

दलितों में भी जबर्दस्त आक्रोश है। इसकी बानगी 2 अप्रैल को देशव्यापी भारत बंद में देखने को मिली थी। लंबे संघर्ष के बाद जो हक-अधिकार दलितों ने हासिल किए, उन्हें छीने जाने का डर अब हकीकत में बदल रहा है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसुचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून में तब्दीली करने के फैसले ने दलितों और वंचितों की आशंकाओं में आग लगा दी। केंद्र सरकार द्वारा इस दमनकारी फैसले के खिलाफ हीला-हवाली करने ने आग में घी का काम किया। बीजेपी के दलित सांसदों को मजबूरन खुल कर अपनी केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलना पड़ा। ये अभी तक 4 साल के मोदी शासन में नहीं हुआ था। गुजरात के दलित विधायक जिग्नेश मेवानी का खुलकर कहना कि बीजेपी के नेताओं को अंबेडकर की मूर्तियों के पास जाने से रोकना चाहिए, एक अलग किस्म का प्रतिरोध है। दलित आंदोलनकर्ता अशोक भारती का कहना कि बीजेपी को पता नहीं है कि वे दलितों और अंबेडकर का अपमान करके ऐसी आग से खेल रहे हैं, जो उनके साम्राज्य को नष्ट करने की ताकत रखती है और दलितों के दिल में उबल रहे ज्वालामुखी की गर्मी का अहसास कराती है।

बीजेपी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इनके तमाम आनुषांगिक संगठनों के नेतृत्व में जो वर्चस्ववादी जातियों का राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित हो रहा है, उसने दलितों और आरक्षण की परिधि में आने वाले समूहों को आक्रांत किया है। पिछले कुछ समय में बीजेपी का स्वरूप घोषित तौर पर मनुवादी ताकतों वाली पार्टी और दंबग जातियों वाली पार्टी के रूप में सामने आया है। इसने दलितों और बैकवर्ड को एकसाथ एकजुट किया है।

जातिगत नफरत उफान पर है। सिर्फ इसी वजह से जहां भी इन मनुवादी ताकतों को मौका मिल रहा है, वे अंबेडकर की मूर्ति को ध्वस्त कर रही हैं, उन पर हमला कर रही हैं। इससे यह साफ है कि इन ताकतों को सबसे बड़ा खतरा अंबेडकर और अंबेडकरवादी विचारधारा से दिखाई दे रहा है।

बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर सिर्फ दलितों और वंचितों के ही अगुवा नेता नहीं हैं, वह देश के सबसे पहले नारीवादी नेता हैं। उन्होंने गुलामी और पतीत मानसिकता के प्रतीक मनुस्मृति को जलाने का जो साहसिक काम किया, वह उन्हें बिल्कुल अलग दर्जा देता है। उन्होंने जाति और पितृसत्ता के खिलाफ जो ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी, वह बेमिसाल है। मनुस्मृति को जलाकर अंबेडकर ने जाति और पितृसत्ता सत्ता के नाश का सपना देखा, वह आज भी अधूरा है।

यह सपना न सिर्फ अधूरा है, बल्कि इसे उलटने वाली ताकतों का राजनीतिक वर्चस्व स्थापित हो गया है। आज देश में मनुस्मृति को पाठ्यक्रम में शामिल करने की तैयारी हो रही है। बलात्कारियों के पक्ष में सरकारें, प्रशासन और पूरा तंत्र खड़ा नजर आ रहा है। कानून का राज संकट में हैं। संविधान और लोकतंत्र ही संकट में है। ऐसे में उन सभी तबकों और समूहों के स्वाभाविक नेता भीमराव अंबेडकर बन गए हैं, जो देश के धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक स्वरूप को बचाए रखना चाहते हैं। इस समय मनुवादी, भगवा ताकतों और अंबेडकरवादी-वाम जनपक्षधर लोकतांत्रिक ताकतों के बीच संघर्ष चल रहा है और इस पर ही देश का भविष्य टिका हुआ है।

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