बंगाल में भी इस बार बिहार-यूपी मार्का चुनाव के आसार, जातिवाद को उभारने की बडे़ पैमाने पर कोशिश

बीजेपी ने 2016 के विधानसभा चुनावों में अनारक्षित सीटों पर भी बड़ी तादाद में एससी-एसटी और अन्य पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों को उतारने के बाद पार्टी ने दलित और शरणार्थी वोट बैंक पर कब्जे का प्रयास किया और बीते लोकसभा चुनावों में उसे इसका फायदा भी हुआ।

फोटो : Getty Images
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बीजेपी पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक विभाजन की कोशिश तो कर ही रही है, वह जात-पात के हथियार का भी इस्तेमाल कर रही है। वैसे, बिहार और उत्तर प्रदेश के उलट बंगाल में चुनावों पर कभी जात-पांत की राजनीति हावी नहीं रही है लेकिन पहली बार चुनावी राजनीति में मतुआ, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और दलित वोट बैंक की चर्चा हो रही है। राजनीति में जात-पात का यह तड़का बंगाल की राजनीति का नया पहलू है।

कई राजनीतिक विश्लेषकों की राय में, बंगाल की राजनीति में आने वाला यह सबसे अहम बदलाव है। राजनीतिक विश्लेषक समीरन चक्रवर्ती कहते हैं: ‘बंगाल में बीजेपी के उभार के साथ ही धर्म-आधारित राष्ट्रवाद ने पार्टी सोसाइटी को चुनौती दे दी है। बीजेपी ने अन्य पिछड़ी जातियों की राजनीति में अपना सुनहरा भविष्य देखा और उनको लुभाने में जुट गई। उसकी इस रणनीति की काट के लिए मजबूरन ममता बनर्जी को भी जाति-आधारित कल्याण योजनाएं शुरू करनी पड़ीं।’

दरअसल, ममता ने जुलाई, 2019 यानी लोकसभा चुनावों में बीजेपी से मिले झटकों के बाद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के 84 विधायकों के साथ एक अलग बैठक की थी। उसके बाद इन समुदायों की दिक्कतों के निपटारे के लिए सितंबर में एक अलग सेल का गठन किया गया। ममता ने बीते साल सितंबर में दलित साहित्य अकादमी का गठन कर उसे पांच करोड़ का अनुदान सौंपा। बीते साल दिसंबर में तृणमूल कांग्रेस ने जब अपनी सरकार के दस साल के कामकाज पर रिपोर्ट कार्ड जारी की तो उसमें अनुसूचित जाति वअनुसूचित जनजाति तबके के लिए शुरू की गई योजनाओं का खास तौर पर जिक्र किया गया था।

कोलकाता स्थित सेंटर फॉर स्टडीज इन सोशल साइंसेज में राजनीति विज्ञान के प्रो. मइदुल इस्लाम बंगाल के बदलते परिदृश्य की तुलना पूर्वी यूरोप से करते हैं। वह कहते हैं: ‘यहां जातिगत पहचान की राजनीति की अहमियत बढ़ रही है क्योंकि बीजेपी ने हिंदुत्व के छाते तले विभिन्न तबकों को लाने में कामयाबी हासिल की है।’ यहां इस बात का जिक्र प्रासंगिक है कि अपनी इसी रणनीतिके तहत बीजेपी ने वर्ष 2016 के विधानसभा चुनावों में अनारक्षित सीटों पर भी बड़ी तादाद में अनुसूचित जाति/ जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों के मैदान में उतारा था। राज्य में पार्टी का कोई मजबूत संगठन नहीं होने के बावजूद तब राज्य के पश्चिमी और उत्तरी हिस्सों में उसे 15 से 20 फीसदी तक वोट मिले थे। उसके बाद पार्टी ने दलित और शरणार्थी वोट बैंक पर कब्जे का प्रयास किया और बीते लोकसभा चुनावों में उसे इसका फायदा भी हुआ।


अब ताजा मामले में पार्टी के तमाम केंद्रीय नेता मतुआ समुदाय के लोगों को अपने पाले में करने में जुटे हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह हाल में कोलकाता से सटे उत्तर 24-परगना जिले के मतुआ-बहुल ठाकुरनगर की रैली में भरोसा दे चुके हैं कि कोविड-19 का टीकाकरण खत्म होने के बाद उनको सीएए के तहत नागरिकता देने का काम शुरू हो जाएगा। मतुआ समुदाय मूल रूप से पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का रहने वाला है। इस संप्रदाय की शुरुआत 1860 में अविभाजित बंगाल में हुई थी। मतुआ महासंघ की मूल भावना चतुर्वर्ण- यानी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की व्यवस्था को खत्म करना है। इसकी शुरुआत समाज सुधारक हरिचंद्र ठाकुर ने की थी। उनका जन्म एक गरीब और तब अछूत माने जाने वाले नमो शूद्र परिवार में हुआ था। इस समुदाय के लोग विभाजन के बाद धार्मिक शोषण से तंग आकर 1950 की शुरुआत में यहां आए थे। राज्य में उनकी आबादी दो करोड़ से भी ज्यादा है। नदिया, उत्तर और दक्षिण 24-परगना जिलों की कम-से-कम सात लोकसभा सीटों, मतलब 70 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर मतुआ समुदाय की मजबूत पकड़ है। यही वजह है कि मोदी ने बीते लोकसभा चुनावों से पहले फरवरी की अपनी रैली के दौरान इस समुदाय की माता कही जाने वाली वीणा पाणि देवी से मुलाकात कर उनका आशीर्वाद लिया था। यह समुदाय पहले लेफ्ट को समर्थन देता था। राजनीतिक पंडियों का कहना है लेफ्ट की ताकत बढ़ाने में मतुआ महासभा का भी बड़ा हाथ रहा। बाद में वह ममता बनर्जी के समर्थन में आ गया।

लेकिन. वीणा पाणि देवी के निधन के बाद अब यह समुदाय दो गुटों में बंट गया है। वर्ष 2014 में बीना पाणि देवी के बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर ने तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर बनगांव लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और संसद पहुंचे। वर्ष 2015 में कपिल कृष्ण ठाकुर के निधन के बाद उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर ने उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर यह सीट जीती थी। लेकिन ‘बड़ो मां’, यानी मतुआ माता के निधन के बाद परिवार में राजनीतिक मतभेद खुल कर सतह पर आ गया। उनके छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर ने बीजेपी का दामन थाम लिया। वर्ष 2019 में बीजेपी ने मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर को बनगांव से टिकट दिया और वह सांसद बन गए।

इस समुदाय के कई लोगों को अब तक भारतीय नागरिकता नहीं मिली है। यही वजह है कि बीजेपी सीएए के तहत नागरिकता देने का दाना फेंक कर उनको अपने पाले में करने का प्रयास कर रही है।

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