भारत जोड़ो यात्रा: कम महत्वपूर्ण नहीं है पदयात्रा का राजनीतिक परिणाम

संदेह नहीं कि भारत जोड़ो यात्रा के नैतिक संदेश अहम है लेकिन इसका राजनीतिक परिणाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं। यात्रा की राजनीतिक संभावनाओं को न केवल बीजेपी की ट्रोल आर्मी बल्कि इसके बड़े नेताओं की तीखी प्रतिक्रिया से भी समझा जा सकता है।

फोटो: inc
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नवजीवन डेस्क

कन्याकुमारी से शुरू हुई राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा अब अपने अंतिम पड़ाव पर है। 7 सितंबर को कन्याकुमारी में शुरू हुई भारत जोड़ो यात्रा 3,970 किलोमीटर, 12 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों को कवर करने के बाद 30 जनवरी को श्रीनगर में समाप्त होगी। देश में जहां-जहां से यह यात्रा गुजरी, वहां-वहां इस यात्रा ने लोगों के चेहरे पर मुस्कान और दिलों में उम्मीद की एक किरण छोड़ी। इस यात्रा के दौरान समय-समय पर कई पत्रकारों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने अनुभव साझा किए हैं, जिन्हें नवजीवन में प्रकाशित किया गया है। अब जब यह यात्रा अपने उरूज पर है, तब हम एक बार फिर उन लेखों के जरिये यात्रा के अनुभव आपसे साझा कर रहे हैं। तो पेश हैं यात्रा की जरूरत बताती उसके मकसद और उसके अनुभवों को समेटे विचारपूर्ण लेखों के अंश:

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी और कन्हैया कुमार
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी और कन्हैया कुमार

कई तरह से लंबा रास्ता तय किया

जब 7 सितंबर को हमने यात्रा शुरू की, तो कई किस्म के सवाल थेः रोजाना 25 किलोमीटर तक यात्रा क्या संभव है? कौन साथ आना चाहेगा? क्या लोग साथ आना चाहेंगे? आज 60 दिनों की यात्रा के बाद मुझे यह बताते हुए खुशी है कि वे सवाल पीछे छूट गए हैं। जैसा कि हमें स्कूल के दिनों में सिखाया गया था कि जब आप आगे बढ़ते हैं, तो सिर्फ पैर ही नहीं है जो आगे बढ़ता है बल्कि उसके साथ आपका दिल, आपका साहस, आपके साथ चलने वाले लोग भी आपको आगे बढ़ते हैं। भारत जोड़ो यात्रा की सफलता ने अपेक्षाएं बढ़ा दी हैं और इस कहावत का सच्चा भाव हमलोगों तक आ रहा है।

यह कहने का मतलब नहीं है कि यह सब आसान था। पिछले 60 दिन शारीरिक तौर पर दुष्कर रहे हैं लेकिन हम इससे उबर गए हैं और बल्कि इस बात से अचंभित हैं कि ये दिन कैसे इतनी जल्दी बीत गए। इस दौरान साथी यात्रियों को देखकर मैंने कई दूसरी बातें भी ग्रहण की हैं- यह मानवीय व्यवहार के मामले में एक किस्म का क्रैश कोर्स रहा है।

यात्रा में दो किस्म के लोग हैं- वे लोग जो सीधे तौर पर कांग्रेस पार्टी से जुड़े हैं और वे लोग जो सीधे संबद्ध नहीं हैं लेकिन वे हमारे साथ आए हैं। छतों पर, दुकानों के सामने खड़े लोग, गांवों के मुहानों पर मौजूद लोग, अपने मोबाइल पर वीडियो बना रहे लोग- उनकी आंखें और उनके चेहरे हमें महसूस कराते हैं कि यह यात्रा कितनी प्रासंगिक है। हम उन चेहरों को पढ़कर समझते हैं कि कितनी चुनौतियों से हमें उबरना है और हमें एक नई आशा के चिह्न नजर आते हैं।

उदाहरण के लिए, हमारे साथ चलने वाली महिला यात्रियों ने, और ध्यान रहे, वे पार्टी कार्यकर्ता नहीं हैं, महंगाई और परिवार चलाने में बढ़ते खर्च के बारे में बात की। युवकों ने घटती नौकरियों और नौकरियों में बढ़ती असुरक्षा के बारे में बात की। उनलोगों ने भी जो सेना में जाने की तैयारी कर रहे हैं, बेरोजगारी को लेकर अपनी चिंताएं प्रकट कीं। यात्रा जिन विभिन्न जगहों से गुजरी, कपास, सोयाबीन या गन्ना उगाने वाले किसानों ने अपनी तरह-तरह की कठिनाइयां बताईं। महिला सुरक्षा, किसानों की बढ़ती लागत और उन्हें मिलने वाले कम दाम, मजदूरों के लिए सही मजदूरी, युवाओं के लिए रोजगार और महंगाई- ये सब मुद्दे यात्रा के दौरान हमलोगों के सामने आए।

मुख्य धारा की मीडिया में यात्रा की खबरों में कमी को देखते हुए यह खास तौर पर मायने रखती है। हमलोगों ने इसका पहला चरण पूरा कर लिया है और हममें से हर कोई बिल्कुल अपने घर-जैसा महसूस करते हैं, यह कहने की जरूरत नहीं कि देश ने किस अच्छी तरह यात्रा के भाव को आत्मसात किया है। इसकी रिपोर्टिंग में कमी ने इसके प्रभाव पर असर नहीं डाला है; इस बारे में किसी तरह की शिकायत का कोई मतलब भी नहीं है। ऐसे समय के बारे में सोचिए जब हमारे पास मोबाइल फोन नहीं थे या एक-दूसरे से संवाद करने के लिए सोशल मीडिया नहीं था। हमने अपना संदेश फैलाने के लिए तब भी रास्ता निकाला और आश्चर्यजनक तौर पर, यही बात इस यात्रा के साथ हुई है। अब तो सब इस बारे में किसी-न-किसी तरह जानते हैं।

इसका मतलब है कि हमारा आंतरिक संवाद तंत्र अब भी बचा हुआ है- वाट्सएप फॉरवर्ड और जो टीवी चैनल और अखबार दिखाते या छापते हैं, उनसे परे। झोपड़ियां या टाट-पट्टी वाली चाय की दुकानों में, बसों और ट्रेनों पर, खेतों-खलिहानों में, ऑफिसों में- सब जगह, एक या दूसरे किस्म से, किसी-न-किसी दिन, सुबह में या शाम में, यह चर्चा उभर आती है कि भारत जोड़ो यात्रा हो रही है।

मीडिया के एक साथी ने पूछा कि क्या यह यात्रा राहुल जी की छवि बेहतर करेगी। सवाल ही गलत है। यात्रा ने उनकी छवि ‘बेहतर’ नहीं की है, इसने लोगों को वास्तविक राहुल गांधी को दिखाया है- संवेदनशील, ध्यान रखने वाले, बुद्धिमान नेता जो तुरंत और बिना प्रयास लोगों से जुड़ जाते हैं। वह हर व्यक्ति को सहज कर देते हैं- चाहे वह महिला हो या बच्चा या बुजुर्ग, शिक्षित या निरक्षर।

उनकी छवि बिगाड़ने के लिए करोड़ों रुपये फूंक डाले गए हैं लेकिन आखिरकार, लोग असली आदमी को देखने लगे हैं। और उनके बारे में किए जाने वाले अविश्वसनीय किस्म के सवाल रुक गए हैं।

(13 नवंबर को दिल्ली में कन्हैया कुमार की प्रेस से हुई बातचीत)

पूरा लेख इस लिंक में पढ़ सकते हैं: यह समझना जरूरी है कि हमें कितना बांट दिया गया है तभी समझ आएगा भारत जोड़ो यात्रा का असली मकसद - कन्हैया कुमार


भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी को लोगो का मिलता प्यार
भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी को लोगो का मिलता प्यार

लोग देख-समझ रहे ‘जादू’

भारत जोड़ो यात्रा 60वें दिन 7 नवंबर को महाराष्ट्र में करीब तीन घंटे देर से पहुंची। लेकिन देगलूर में लोगों का उत्साह उसी तरह जोश भरा था। कई हजार लोग यात्रियों का इंतजार उत्सुकता से कर रहे थे। रात लगभग 9:45 बजे जब उनलोगों ने प्रदेश में प्रवेश किया, तो करतल ध्वनि से उनका स्वागत हुआ।

देगलूर तेलंगाना सीमा से जुड़ा हुआ है। इसकी आबादी 60 हजार के आसपास ही है। देगलूर नांदेड़ जिले की तहसील है। कभी यह हैदराबाद के निजाम का अंग था। लेकिन सिर्फ यहीं के लोग यहां नहीं थे। न सिर्फ राज्य के सुदूरवर्ती इलाकों बल्कि देश के विभिन्न क्षेत्रों से लोग यहां पहुंचे हुए थे।

सांस्कृतिक और संकेतात्मक दृष्टि से महाराष्ट्र में भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत के लिए यह जगह बिल्कुल माकूल थी। भौगोलिक, भाषायी, धार्मिक और सामाजिक विविधता प्रदर्शित करने वाली यह बिल्कुल सही जगह है। इस शहर के एक ओर तेलंगाना है। पहले यह जगह आंध्र प्रदेश में थी। दूसरी ओर कर्नाटक है। राज्यों के भाषायी आधार पर पुनर्गठन के समय मराठी ज्यादा बोलने वालों की वजह से 1960 में इसे महाराष्ट्र में समाहित कर दिया गया लेकिन यहां के लोग तेलुगु, कन्नड़, उर्दू और मराठी बोलते हैं तथा पूरे सद्भाव एवं राजी-खुशी में रहते हैं। यहां बहुत कम आय वाले लोग भी रहते हैं, पर यहां उस किस्म की गरीबी नहीं दिखती जिस तरह अन्य जगहों पर नजर आती है। यहां मध्य वर्ग है लेकिन यह कथित ‘अतार्किक’ और महत्वाकांक्षी वर्ग नहीं है। यह व्यापारिक केन्द्र है लेकिन उनकी उस किस्म की ‘व्यापारिक मानसिकता’ नहीं है जैसी अहमदाबाद में दिखती है। यहां की बहु-सांस्कृतिकी और धार्मिक सहिष्णुता का बहुत हद तक श्रेय ‘हैदराबाद स्वतंत्रता आंदोलन’ और रामानंद तीर्थ-जैसे संत स्वभाव वाले आंदोलनकारियों को जाता है।

शंकरराव चह्वाण के ‘वंशजों’ ने यहां राजनीतिक नेतृत्व और विरासत को संभाल रखा है। पिछले साल नांदेड़ ने शंकरराव की जन्म शताब्दी मनाई और उनके सुपुत्र अशोक क्षेत्र में भारत जोड़ो यात्रा के ‘कप्तान’ हैं। उनकी कुशल योजना और न सिर्फ कांग्रेस बल्कि विभिन्न सिविल सोसाइटी समूहों के लोगों को यात्रा से जोड़ने के उनके प्रयास ने इसे सही तरीके से नुमाइंदगी वाला बना दिया।

राहुल गांधी भी देगलूर के बहुधार्मिक और बहुभाषी रंग से एकबारगी ही जुड़ गए। बड़े और भव्य स्वागत के बाद उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया। शिवाजी महाराज ने ही 17वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में पहली बार ‘स्वराज’ की स्थापना की थी। संक्षिप्त संबोधन में राहुल ने लोगों से शिवाजी महाराज को आदर देने और उनके मूल्यों पर चलने का आग्रह किया। फिर, वह 10 किलोमीटर दूर गुरुद्वारा गए। करीब तीन हजार लोगों के साथ मशाल यात्रा में भी वह शामिल हुए। इन सब के दौरान थकान का कोई चिह्न कहीं नहीं था। राहुल का दिन लगभग मध्य रात्रि को समाप्त हुआ; इसका मतलब अलस्सुबह तेलंगाना से लेकर देर रात तक महाराष्ट्र में वह चलते ही रहे। किनारे खड़े लोग और ऐक्टिविस्ट इतनी रात गए भी इस तरह तरोताजा दिखने और मुस्कुराते रहने की राहुल की मजबूती, धीरज और क्षमता के इर्द-गिर्द बतियाते रहे।

सबका अनुरोध स्वीकार करना तो संभव नहीं था लेकिन जो भी उनसे मिला, उनकी बातें उन्होंने सुनीं और ‘गुरु’ या ‘सब चीजों की जानकारी वाले पथप्रदर्शक’ का दिखावा किए बिना ही। वह उनलोगों की ‘मन की बात’ पर प्रतिक्रिया जता रहे थे। उनका अपने पर फोकस कम ही था, न वह कैमरों के अपने पास आ जाने का इंतजार कर रहे थे।

(कुमार केतकर का यह लेख संडे नवजीवन में छपा था)

पूरा लेख इस लिंक में पढ़ सकते हैं: भारत जोड़ो यात्रा: लोग देख-समझ रहे 'जादू'

भारत जोड़ो यात्रा: कम महत्वपूर्ण नहीं है पदयात्रा का राजनीतिक परिणाम

यह तो छोटा कदम, हमें उठाने हैं और बड़े कदम

यात्रा ने जब दिल्ली में प्रवेश किया, मैं थोड़ी दूर के लिए इसमें शामिल हुआ। मैंने राहुल जी से कहा, ‘इस बड़े कदम के लिए बहुत-बहुत बधाई, राहुल जी’। इस पर कांग्रेस नेता ने फौरन कहा, ‘नहीं-नहीं, यह तो एक छोटा कदम है, हमें कहीं बड़े कदम उठाने हैं।’

राहुल गांधी ने साफ शब्दों में बार-बार कहा है कि यह यात्रा राजनीतिक विचारों से प्रेरित नहीं है, इसका उद्देश्य ‘प्रेम फैलाना’ है। वह सही ही कह रहे हैं। ऐसे समय जब सियासी ताकतें अपने हितों को पूरा करने के लिए मीडियों के बड़े हिस्से की मदद से नफरत और उन्माद का माहौल बना रही हैं, ‘प्रेम फैलाना’ बहुत ही जरूरी नैतिक काम है।

लेकिन, गुजरात जैसी स्थिति, जब सजायाफ्ता बलात्कारियों का जश्न मनाकर स्वागत करने वाली ताकत को जनता भारी बहुमत से सत्ता में लाती है, कोई प्रेम कैसे फैला सकता है? मुख्यधारा का मीडिया जिस तरह विषाक्त माहौल बना रहा है, उसके घातक प्रभावों के प्रति लोगों को जागरूक किए बिना उसका प्रतिकार कैसे किया जा सकता है?

कुछ राजनीतिक पंडितों ने यह कहते हुए इस यात्रा को खारिज किया है कि यह ऐसा सफर है जिसकी कोई ‘मंजिल’ नहीं। यह गलत है। इस यात्रा की ‘मंजिल’ समावेशी, लोकतांत्रिक भारतीय राजनीति और एक सहृदय समाज के विचार की प्रतिस्थापना है। राहुल गांधी का यह कहना बिल्कुल सही है कि भाजपा को चुनौती देने में सक्षम कोई भी सार्थक विपक्षी एकता एक राजनीतिक दृष्टि के इर्द-गिर्द ही बनाई जा सकती है, किसी नेता के आभामंडल के इर्द-गिर्द नहीं।

मीडिया की मदद से प्रधानमंत्री मोदी का एक आभामंडल तैयार करने के अलावा भाजपा ने अपने आप को एक सशक्त और गौरवपूर्ण भारत के प्रति प्रतिबद्ध पार्टी के रूप में सफलतापूर्वक पेश किया है। मोदी को इस सपनीले लक्ष्य के शुभंकर के रूप में और कांग्रेस को इसके प्रति एक उदासीन पार्टी के रूप में पेश किया गया। इसे ही केन्द्र में रखकर भाजपा ने ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत की कल्पना गढ़ी।

हमारे समाज में पैर पसारती घृणा को रोकने और मध्यकालीन सोच एवं कट्टरता को आगे बढ़ाने वाली प्रक्रिया के पहिए को वापस घुमाने का काम समावेशी भारतीय राष्ट्रवाद वाले उस राजनीतिक ढांचे में ही हो सकता है जिसका उद्देश्य शक्तिहीन और गरीबों को सशक्त बनाना हो। इस दिशा में भारत जोड़ो यात्रा एक बहुत ही आवश्यक कदम है। आखिरकार, ‘राष्ट्र’ का मतलब इसके लोग हैं, न कि कोरी बयानबाजी और काल्पनिक ‘आंतरिक दुश्मनों’ के खिलाफ लोगों को भड़काना।

संदेह नहीं कि भारत जोड़ो यात्रा के नैतिक संदेश अहम है लेकिन इसका राजनीतिक परिणाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं। यात्रा की राजनीतिक संभावनाओं को न केवल बीजेपी की ट्रोल आर्मी बल्कि इसके बड़े नेताओं की तीखी प्रतिक्रिया से भी समझा जा सकता है। राहुल गांधी और उनकी यह यात्रा जिस सहजता के साथ मीडिया के एक हिस्से के साथ बीजेपी समेत अन्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से दो-दो हाथ कर रही है, वह कांग्रेस में आई नई जान का संकेत है।

(पुरुषोत्तम अग्रवाल का लेख संडे नवजीवन में छपा था)

पूरा लेख इस लिंक में पढ़ सकते हैं: भारत जोड़ो यात्राः यह तो एक छोटा कदम, हमें उठाने हैं और बड़े कदम…

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