मस्जिद-मदरसे की तरफ उठा भागवत का कदम चुनावी माहौल में मुसलमानों के बीच भ्रम पैदा करने की कोशिश

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का मस्जिद और मदरसे का दौरा दक्षिणपंथी संगठन के पाखंड और अवसरवाद की अभिव्यक्ति के अलावा कुछ नहीं।

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अरुण श्रीवास्तव

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की कोई भी पहचान हो, लेकिन कम से कम यह पहचान तो नहीं है कि यह संगठन देश में सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने के लिए काम करता है। संघ का मराठी (महाराष्ट्रीयन) ब्राह्मण नेतृत्व, दरअसल एक 'हिंदू राष्ट्र' के अपने मूल विचार को एक ठोस आकार देने की कोशिशें करता है। और, इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वह लगातार नियमित रूप से मुसलमानों, दलितों और पिछड़ों को बदनाम और अपमानित करने का काम करता रहता है।

संघ प्रमुख मोहन भागवत का अचानक एक मस्जिद और एक मदरसे का दौरा कर मुसलमानों तक पहुंचने की अचानक कोशिश के मुख्य रूप से दो पहलू हैं। पहला तो यह कि देश के राजनीतिक आख्यान यानी पॉलिटिकल नैरेटिव पर दक्षिणपंथी पारिस्थितिकी तंत्र यानी राइट विंग इकोसिस्टम पर कमजोर पड़ते नियंत्रण को फिर से स्थापित और पुनर्जीवित करने के लिए एक सुनियोजित कदम था, और दूसरा यह कि इसका मकसद चुनावी माहौल के दौरान मुसलमानों के बीच भ्रम पैदा करना था।

उनके इस कदम का एक और मकसद है, वह यह कि देश के मुसलमानों, उदारवादी तबके और धर्मनिरपेक्ष तत्वों को यह संदेश दिया जाए कि भगवा नेता लोकतांत्रिक व्यवस्था में दृढ़ विश्वास रखते हैं। ऐसे में अगर संवाद नहीं होगा तो फिर लोकतंत्र के क्या मायने हैं?

लेकिन संघ की यह कोशिश कुछ सवालों को भी खड़ा करती है कि क्या संवाद सच्चे अर्थों में वास्तव में हुआ और इसमें आखिर कितनी गंभीरता और ईमानदारी थी। मुसलमानों ने भागवत पर इस विश्वास के साथ भरोसा किया कि वह देश के सामाजिक माहौल और परिदृश्य में एक वास्तविक परिवर्तन ला सकते हैं। और ऐसा माना जा रहा है कि भागवत ने इस पर हामी भरी भी है, लेकिन इसके नतीजे तो अभी सामने आना बाकी हैं।

भारत और भारतीय सिर्फ एक ही व्यक्ति को राष्ट्रपिता कहते हैं, और वह हैं महात्मा गांधी। लेकिन पहली बार, किसी मुस्लिम इमाम ने भागवत के लिए इस शब्द का इस्तेमाल किया। इस तरह यह पहला मौका है जब संघ मुखिया को महात्मा गांधी के बराबर खड़ा कर दिया गया। तो क्या माना जाए कि इस तरह सावरकर को एक हीरो और नायक के तौर पर स्थापित करने की दिशा में उठाया गया एक कदम है। सर्वविदित है कि संघ और बीजेपी लंबे समय से सावरकर को राष्ट्र नायक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इस तरह संघ और बीजेपी उस आरोप को भी धोना चाहते हैं कि दरअसल सावरकर अंग्रेजों के समर्थक नहीं बल्कि एक राष्ट्रवादी थे।


वैसे यह बात राजनीतिक तौर पर एकदम अनभिज्ञ व्यक्ति भी जानता है कि आरएसएस और बीजेपी को अल्पसंख्यकों और खासतौर से मुस्लिमों से तो कोई प्रेम नहीं है। कोई भी व्यक्ति जिस दिन संघ में शामिल होता है, उसी दिन से उसे अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत का पाठ पढ़ाया जाता है। ऐसे में यह मान लेना एकदम बचपना होगा कि संघ मुसलमानों के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाएगा।

आरएसएस और बीजेपी के पास ऐसा कोई मूल विचार या अवधारणा है ही नहीं जिससे भारतीय राजनीति को सकारात्मक तरीके से पुनर्गठित किया जा सके। अगर उनके मन या विचार में ऐसा होता तो वे किसानों, मजदूरों, छात्रों और कुछ धार्मिक और क्षेत्रीय अल्पसंख्यकों को अलग-थलग नहीं करते।

यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मुसलमानों तक आरएसएस की पहुंच साफ तौर पर एक पाखंड और अवसरवाद के सिवा कुछ नहीं है।

मोदी शासन के दौरान भागवत ने एक बार भी मुसलमानों की लिंचिंग के खिलाफ नहीं बोला है और न ही कभी उन बीजेपी नेताओं की आलोचना  की है जो लिंचिंग करने वालों को संरक्षण देते हैं या उनका स्वागत-सतकार करते हैं। वह तो हमेशा ऐसे तत्वों को वैचारिक और राजनीतिक आवरण ही मुहैया कराते रहे हैं।

उत्तर प्रदेश और असम में बीजेपी की सरकारें, जिनमें संघ के लोग भरे हुए हैं, मदरसों को बदनाम करने के अभियान में जुटी हुई हैं। बीजेपी नेता खुलेआम मदरसों को आंतकवादियों की पौधशाला के रूप में वर्णित करते हैं।

क्या यह महज संयोग है कि जिस दौरान मोहन भागवत मुसलमानों तक पहुंचे की कोशिश कर रहे थे या दिखावा कर रहे थे, उसी दौरान देश भर में पीएफआई (पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया) पर छापेमारी जारी थी। पीएफआई पर कथित तौर से आतंकवाद और आतंकी विचारधारा को फैलाने का आरोप है।

भागवत सुझाव देते हैं कि मदरसों में छात्रों को कुरान के साथ बाइबिल और भागवद गीता भी पढ़ाई जाए। तो क्या माना जाए कि संघ द्वारा संचालित शिशु मंदिरों में भी कुरआन और बाइबिल पढ़ाई जाएगी। इस पर तो चुप्पी है।


संघ के लोग मस्जिद और मदरसे के भागवत के दौरे को दोनों समुदायों के बीच जारी संघर्ष को खत्म करने की दिशा में उठाया गया कदम मानते हैं। और आह्वान करते हैं कि इस तरह मुसलमान खुद को भारतीय समझें और वैसा ही व्यवहार करें। तो क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि अभी तक संघ के लोग मुसलमानों को भारतीय नहीं मानते हैं?

भागवत इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि उनका यह कदम सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक और चुनावी चिंताओं को लेकर उठाया गया है और उनकी बुनियादी सांप्रदायिक विचारधारा में कोई बदलाव नहीं आया है।

यह उम्मीद करना व्यर्थ होगा कि आरएसएस अल्पसंख्यकों, दलितों और मुसलमानों के प्रति अपने दृष्टिकोण और विचाधारा में बदलाव लाएगा।

(यह लेखक के अपने विचार हैं)

(आईपीए सर्विस)

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