तपती धरती और आसमान से बरसती आग के बीच जल-संकट से बचना सबसे बड़ी चुनौती

जल की कमी के संकट को जल प्रदूषण ने और भी विकट कर दिया है। छोटी-छोटी नदियां भी इतनी प्रदूषित हो गई हैं कि इससे कई गावों की जल उपलब्धि पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा है। जहां कृषि रसायनों का अत्यधिक उपयोग हो रहा है, वहां भूजल पर इनका हानिकारक असर नजर आने लगा है।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

पूरे उत्तर भारत समेत देश के कई हिस्सों में गर्मी का कहर जारी है। देश के कुछ हिस्सों में पारा 48 डिग्री के करीब पहुंचने लगा है। भीषण गर्मी का आलम यह है कि अब तक जहां सिर्फ मैदानी इलाकों में गर्मी की तपिश थी, वहीं, अब पहाड़ी इलाकों का भी तापमान बढ़ने लगा है। मौसम विभाग के मुताबिक, आने वाले दिनों में भी लोगों को गर्मी से राहत मिलने की उम्मीद नहीं है। गर्मी के इस कहर को देखते हुए देश में जल संरक्षण की आवश्यक्ता समझ आती है।

भारत में वर्षा और जल संरक्षण का विशेष अध्ययन करने वाले मौसम विज्ञानी पी आर पिशारोटी ने बताया है कि यूरोप और भारत में वर्षा के लक्षणों में बहुत महत्वपूर्ण अंतर है। यूरोप में वर्षा धीरे-धीरे पूरे साल होती रहती है। इसके विपरीत भारत के अधिकतर भागों में साल के 8760 घंटों में से लगभग 100 घंटे मात्र ही वर्षा होती है। इसमें से कुछ समय मूसलाधार वर्षा होती है। इस कारण आधी बारिश मात्र 20 घंटों में ही हो जाती है।

इससे स्पष्ट है कि जल संग्रहण और संरक्षण यूरोप के देशों की अपेक्षा भारत जैसे देशों में कहीं अधिक आवश्यक है। भारत की वर्षा की तुलना में यूरोप में वर्षा की सामान्य बूंद काफी छोटी होती है। इस कारण उसकी मिट्टी काटने की क्षमता भी कम होती है। यूरोप में बहुत सी वर्षा बर्फ के रूप में गिरती है जो धीरे-धीरे धरती में समाती रहती है। भारत में बहुत सी वर्षा मूसलाधार वर्षा के रूप में गिरती है जिसमें मिट्टी को काटने और बहाने की बहुत क्षमता होती है।

दूसरे शब्दों में हमारे यहां की वर्षा की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि अगर उसके जल के संग्रहण और संरक्षण की उचित व्यवस्था नहीं की गई तो यह जल बहुत सी मिट्टी बहाकर निकट की नदी की ओर वेग से दौड़ेगा और नदी में बाढ़ आ जाएगी। चूंकि अधिकतर जल न एकत्र होगा न धरती में रिसेगा, इसलिए कुछ समय बाद जल संकट उत्पन्न होना भी स्वाभाविक ही है।


इन दोनों विपदाओं को कम करने के लिए या दूर करने के लिए जीवनदायी जल का अधिकतम संरक्षण और संग्रहण आवश्यक है। इसके लिए पहली आवश्यकता है वन, वृक्ष और हर तरह की हरियाली जो वर्षा के पहले वेग को अपने ऊपर झेलकर उसे धरती पर धीरे से उतारे ताकि यह वर्षा मिट्टी को काटे नहीं अपितु काफी हद तक स्वयं मिट्टी में ही समा जाए या रिस जाए और पृथ्वी के नीचे जल के भंडार को बढ़ाने का अति महत्वपूर्ण कार्य करे।

दूसरा महत्वपूर्ण कदम यह है कि वर्षा का जो शेष पानी नदी की ओर बह रहा है, उसके अधिकतम संभव हिस्से को तालाबों या पोखरों में एकत्र कर लिया जाए। वैसे इस पानी को मोड़कर सीधे खेतों में भी लाया जा सकता है। खेतों में पड़ने वाली वर्षा का अधिकतर जल खेतों में ही रहे, इसकी व्यवस्था भू-संरक्षण के विभिन्न उपायों जैसे मेड़बंदी, पहाड़ों में सीढ़ीदार खेत आदि से की जा सकती है। तालाबों में जो पानी एकत्र किया गया है, वह उसमें अधिक समय तक बना रहे, इसके लिए तालाबों के आस-पास वृक्षारोपण हो सकता है और वाष्पीकरण कम करने वाले तालाब का विशेष डिजाईन बनाया जा सकता है।

नल, हैंडपंप, नलकूप या पाइप लाईन, ये सब कई गांवों में ज्यादा नजर आ रहे हैं, लेकिन जिस भूजल से, तालाब या झरने से इन्हें पानी मिलना है, अगर उनमें ही पानी कम होने लगे तो भला इन निर्माण कार्यों से क्या समस्या हल होगी। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को केंद्रीय भूजल बोर्ड के वैज्ञानिकों ने बताया कि पिछले लगभग दस-पंद्रह वर्षों में हमारे देश में भूजल स्तर में बहुत तेजी से गिरावट आई है। पहाड़ी क्षेत्रों से कितने ही झरनों के सूखने या पतले पड़ने के समाचार हैं। बहुत बड़ी संख्या में तालाब मैदान जैसे बन गए हैं, उन पर अतिक्रमण हो चुका है या बुरी तरह जीर्ण-शीर्ण स्थिति में पड़े हैं।

जल की कमी के संकट को जल प्रदूषण ने और भी विकट कर दिया है। छोटी-छोटी नदियां भी इतनी प्रदूषित हो गई हैं कि इससे कई गावों की जल उपलब्धि पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा है। जहां कृषि रसायनों का अत्यधिक उपयोग हो रहा है, वहां भूजल पर इनका हानिकारक असर नजर आने लगा है।

कई क्षेत्रों में जल के संकट की परवाह न करते हुए ऐसे उद्योग लगाए जा रहे हैं जो जल का अत्यधिक उपयोग करेंगे और जल प्रदूषण में वृद्धि करेंगे। कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां जल संकट को नजरंदाज करते हुए जल का अत्यधिक उपयोग करने वाली ऐसी नई फसलों को प्रोत्साहित किया जा रहा है जिनका लाभ तो कुछ पहले से समृद्ध लोगों तक सीमित रहेगा, लेकिन जिनके दुष्परिणाम और नीचे गिरने वाले भूजल के रूप में जनसाधारण को भुगतने पड़ेंगे। शहरी क्षेत्रों में पांच-सितारा होटल, लान, गोल्फ-कोर्स आदि अत्यधिक जल उपयोग वाली सुविधाओं के जुटाने में हम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, जबकि अनेक बस्तियों में जल अभाव का हाहाकार है।


अन्य प्राकृतिक संसाधनों की तरह जल का बंटवारा भी विषमता से ग्रस्त है और यह विषमता जल संकट की स्थिति में असहनीय हो जाती है। एक ओर लोग पीने के पानी को तरसते रहें और दूसरी ओर पानी का अपव्यय होता रहे, यह वर्तमान की दृष्टि से तो अन्यायपूर्ण है ही, साथ ही भविष्य में समस्या का स्थाई हल खोजने में भी यह विषमता एक रूकावट बनती है। इस विषमता के कारण जल वितरण और उपयोग का ऐसा नियोजन नहीं हो सकता है जो सबकी प्यास बुझाने में समर्थ हो।

सार्थक जल नियोजन के लिए जरूरी है कि निहित स्वार्थों के दबाव की परवाह न करते हुए सबसे अधिक प्राथमिकता इस बात को दी जाए कि हर व्यक्ति, हर झोंपड़ी, हर गांव की प्यास को बुझाया जा सके। पानी के अन्य उपयोग चाहे वे किसी नई फसल के लिए हों या कियी उद्योग के लिए तभी सोचे-विचारे जाएं जब पहले इस बुनियादी जरूरत को संतोषजनक ढंग से पूरा कर लिया जाए।

इस प्राथमिकता पर कायम रहने के साथ यह भी जरूरी है कि पीने के पानी की आपूर्ति के कार्य को केवल हैंडपंप लगाने या कुएं खोदने तक सीमित न रखकर उन सभी महत्वपूर्ण गतिविधियों और क्षेत्रों को ध्यान में रखा जाए जिनका असर पानी की उपलब्धता पर पड़ता है। किसी ग्रामीण क्षेत्र में पीने के पानी की योजना बनाई जा रही हो और वह इस ओर से अनभिज्ञ रहे कि ऊपर पहाड़ी पर जो जंगल काटा जाने वाला है, उसका जल की उपलब्धता पर क्या असर पडे़गा तो यह योजना सफल नहीं हो सकती है।

इसी तरह औद्योगिक प्रदूषण, कृषि रसायनों का उपयोग, फसल-चक्र में होने वाले बदलाव, खनन-कार्य ये सभी क्षेत्र हैं, जिनका पेयजल उपलब्धता पर असर पड़ सकता है। अतः ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि इन विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी परियोजनाओं और नए कार्यक्रमों पर जल-उपलब्धता की दृष्टि से भी विचार किया जाए और उनके पक्ष में निर्णय लेने से पहले जल-उपलब्धता की स्थिति पर उनका क्या असर होगा, इस प्रश्न को समुचित महत्व दिया जाए। दूसरी ओर जल-नियोजन के कार्य में लगे लोग भी इन क्षेत्रों में हो रहे बदलावों पर नजर रखें और इनका जल-उपलब्धता पर यदि प्रतिकूल असर पड़ने की संभावना हो तो इस बारे में समय पर चेतावनी देने की भूमिका उन्हें निभानी चाहिए।

सरकार के पास संतोषजनक पेयजल स्थिति होने के जो आंकड़ें विभिन्न गांवों से पंहुचते हैं, उन्हें भेजने वालों को स्पष्ट निर्देश होने चाहिए कि कुछ नलकूप खोद लेने से ही स्थिति संतोषजनक नहीं हो जाती है। भूजल नीचे तो नहीं जा रहा है, झरने सूख तो नहीं रहे हैं, जल का प्रदूषण बढ़ तो नहीं रहा है, इन सब बातों के उचित अध्ययन से ही यह स्थिति स्पष्ट हो सकती है कि क्या इस गांव (या गांवों के समूह) की पेयजल स्थिति वास्तव में संतोषजनक है अथवा यहां पर पेयजल की कमी का संकट आज नहीं तो कल मंडराने वाला है।


इस ओर भी ध्यान देना जरूरी है कि पेयजल के जो नए साधन या स्रोत उपलब्ध कराए जा रहें हैं उनके रख-रखाव और मरम्मत की कितनी जानकारी स्थानीय लोगों तक पहुंचती है। अगर थोड़ी सी समस्या उत्पन्न होने पर लोगों को कई दिनों तक बाहरी सहायता के इन्तेजार में प्यासे रहना पड़े तो इस तरह की निर्भरता बढ़ाने वाली नई तकनीक को आदर्श नहीं माना जा सकता है।

वास्तव में देश में एक ऐसी जल व्यवस्था चाहिए, जिसमें नई तकनीक परंपरागत उपायों का विरोध न करे अपितु उनकी कमियों को दूर करने या समय की आवश्यकता के अनुसार क्षमता बढ़ाने का कार्य करे। जल संग्रहण और संरक्षण के विभिन्न तौर-तरीके देश के विभिन्न भागों में (विशेषकर पानी की कमी वाले क्षेत्रों में) सदियों के अनुभव से विकसित किए गए और यह एक ऐसी अनमोल विरासत है, जिसकी उपेक्षा कर हम पेयजल का संकट हल करने में सफल नहीं हो सकते हैं।

दूसरी ओर यह भी सच है कि बदलती परिस्थितियों में कई जगहों पर तरह-तरह की नई तकनीक की जरूरत है। इनके बीच में सामंजस्य बनाने में सुविधा होगी अगर पेयजल योजनाओं को बनाने और कार्यान्वित करने में स्थानीय लोगों की भरपूर भागेदारी हो।

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