बिहार की जातीय जनगणना ने शुरु कर दी है मंडल-कमंडल की नई प्रतिस्पर्धा: बात निकली है तो दूर तलक जाएगी

बिहार की जातीय जनगणना नीतीश कुमार का मास्टर स्ट्रोक है जिसका कोई जवाब बीजेपी के पास नहीं दिख रहा। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इसके निहितार्थ और भी अहम हो जाते हैं।

सौजन्य - द न्यू इंडियन एक्स्प्रेस के लिए सौम्यदीप सिन्हा का इलस्ट्रेशन
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मलय मिश्रा

गांधी जयंती पर बिहार सरकार द्वारा जारी व्यापक जाति सर्वेक्षण (सीसीएस) के आंकड़ों ने हलचल पैदा कर दी। इससे 1990 के दशक के शुरुआती दिनों की यादें ताजा हो गईं जब मंडल आयोग की रिपोर्ट जारी हुई थी और फिर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए आडवाणी के नेतृत्व में हुई रथ यात्रा ने नए राजनीतिक समीकरण बनाए थे।

इन दोनों घटनाओं ने ‘मंडल’ और ‘कमंडल’ की राजनीति के बीच प्रतिस्पर्धा शुरू कर दी। मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने और सामाजिक न्याय के नाम पर ओबीसी को जाति-आधारित आरक्षण देने के वीपी सिंह सरकार के प्रयासों ने जातीय पहचान के आधार पर क्षेत्रीय दलों को बढ़ावा दिया। वहीं, राम मंदिर के लिए रथ-यात्रा का नेतृत्व बीजेपी के उभरते हिन्दुत्ववादी तत्वों ने  हिन्दू धर्म में समानता और सामाजिक न्याय की राजनीति का मुकाबला करने के लिए हिन्दुत्व और हिन्दू एकता के लिए कथित खतरों के के इर्द-गिर्द अभियान चलाया। दोनों ने खासी लोकप्रियता हासिल की और वोट भी।

सीसीएस निश्चित रूप से राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना के लिए विपक्षी दलों और यहां तक कि सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन के चंद छोटे जाति समूहों (जैसे अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व वाले अपना दल) की ओर से मांग तेज हो रही है। गौर करने वाली बात है कि पिछली बार जाति जनगणना 1931 में हुई थी। कांग्रेस का वादा है कि अगर विपक्षी दलों का गठबंधन ‘इंडिया’ सत्ता में आया तो पूरे देश में जातीय जनगणना होगी और अगर ऐसा हुआ तो यह भारत की आजादी के बाद पहली बार होगा। यह भी गौर करने की बात है कि पिछली दशकीय जनगणना 2011 में हुई थी और 2021 में होने वाली अगली जनगणना को कोविड 19 और मोदी सरकार की उदासीनता के कारण स्थगित कर दिया गया।

2014 में सत्ता में आने के बाद से बीजेपी ने अपने हिन्दू आधार को मजबूत करने और हिन्दुओं के सभी जाति समूहों को एक साथ लाकर व्यवस्थित रूप से पार्टी के आधार को बढ़ाकर अपने वोट शेयर में खासा इजाफा कर लिया है। इस परिप्रेक्ष्य में पार्टी ने ऊंची जातियों, ब्राह्मणों, बनिया, कायस्थों के साथ-साथ ओबीसी और अत्यंत पिछड़ी जातियों के बीच एक व्यापक गठबंधन का समर्थन किया है जहां सत्ता में भागीदारी के एवज में निचली जातियों ने अपने हितों से वस्तुत: किनारा कर लिया है।


इस रणनीति ने पार्टी को 2014 और 2019 के आम चुनावों में भरपूर लाभ दिया है। अगला आम चुनाव पांच राज्यों (हिन्दी-हिन्दू बेल्ट में तीन सहित) में हो रहा है। बिहार के जाति सर्वेक्षण से पता चलता है कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) राज्य की आबादी में 63% हैं जबकि अनुसूचित जाति का हिस्सा 19.65% है। इस तरह, अगर एससी-एसटी को जोड़ लें तो हिन्दू धर्म के व्यापक स्पेक्ट्रम में निचली जातियों की कुल आबादी 83% से ज्यादा हो जाती है जबकि उच्च जातियां महज 15.5% रह जाती हैं। इसमें भी मुसलमानों की कुल 17.7% आबादी में 5% अगड़ी जातियों के मुसलमान भी शामिल हैं।

इसने न केवल बीजेपी के चुनावी हिसाब-किताब को बिगाड़ दिया है बल्कि शैक्षणिक संस्थानों और रोजगार में आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी के मामले को भी अहम बना दिया है। इसीलिए राहुल गांधी का नारा ‘जितनी आबादी उतना हक’ विपक्षी समूहों के बीच गूंज रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने 1 अगस्त के पटना हाईकोर्ट के आदेश को बहाल रखते हुए सीसीएस पर रोक के खिलाफ फैसला सुनाया जिससे राज्य सरकार को केंद्र की आपत्तियों के बावजूद जातीय जनगणना कराने का अधिकार मिल गया। केंद्र सरकार ने यह कहते हुए बिहार सरकार द्वारा जातीय जनगणना कराने के प्रस्ताव का विरोध किया था कि संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत जनगणना अधिनियम, 1948 और जनगणना नियम, 1990 ऐसे सर्वेक्षणों के लिए केवल केंद्र सरकार को अधिकृत करते हैं। केंद्र ने यह भी दलील दी थी कि अगर राज्य सरकार जनगणना कराती है तो ऐसे सर्वेक्षणों में उत्तरदाताओं की गोपनीयता के उल्लंघन का खतरा है।

खैर, इस अभ्यास को ‘सामाजिक सर्वेक्षण’ बताते हुए बिहार सरकार ने डेढ़ माह बाद होने वाली राज्य विधानमंडल की बैठक में सर्वेक्षण के सामाजिक-आर्थिक आयामों को सामने लाने की प्रतिबद्धता जताई है, ताकि इसके लिए लक्ष्य तय किए जा सकें और अब तक गिनती में नहीं आए समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए।


गौर करने की बात है कि सर्वेक्षण जारी होने के एक दिन बाद ही नीतीश सरकार ने राज्य न्यायिक सेवाओं और राज्य संचालित लॉ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% कोटा आवंटित कर दिया और ऐसा करके जोडीयू ने बीजेपी पर बढ़त बना ली जिसने अगड़ी जातियों को लुभाने के लिए 8 लाख रुपये की वार्षिक सीमा के साथ आय मानदंड तय करने के लिए ऐसी श्रेणी शुरू की थी।

कर्नाटक, ओडिशा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्यों ने पहले ही अपना ओबीसी सर्वेक्षण पूरा कर लिया है जबकि राजस्थान ने राज्य चुनावों के बाद इसे कराने का वादा किया है।

एक बार राज्य जाति सर्वेक्षण के सामाजिक-आर्थिक स्थिति संबंधी डेटा के सामने आ जाने के बाद राज्य अपने यहां सबसे कमजोर समूहों की पहचान कर पाएंगे और उसी के अनुसार नीतिगत उपायों और सशक्तिकरण योजना तैयार कर पाएंगे। इससे समाज के सबसे निचले पायदानों पर रह रहे लोगों का बेहतर तरीके से सशक्तीकरण हो सकेगा और नए जाति नेताओं का उदय होगा जहां नए समूह सामाजिक योजनाओं में ज्यादा हिस्सेदारी की मांग करेंगे। जातीय संरचना के साफ हो जाने के कारण कई क्षेत्रीय और उप-क्षेत्रीय नेताओं का उभार होगा और इससे बिल्कुल जमीनी और मध्यम स्तर पर गठबंधन को बढ़ावा मिलेगा।

माहौल मंडल 2.0 के लिए माकूल है जिसमें समाज की निचली जातियों के पास सौदेबाजी की बेहतर ताकत है और इसकी वजह से अगले साल के शुरू में अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन से मिलने वाले संभावित फायदे की बीजेपी की कोशिशों पर पानी फिर सकता है। ध्यान देने वाली बात है कि बीजेपी का बड़ा वोट बैंक हिन्दी-हिन्दू बेल्ट में है।

इस नजरिये से नीतीश कुमार ने आरजेडी के साथ मिलकर 2024 के आम चुनावों में विपक्ष पर बढ़त हासिल करने की बीजेपी के मंसूबों को खटाई में डालने के साथ-साथ विपक्षी गठबंधन के भीतर भी एक तरह से अपनी प्रमुख भूमिका की दावेदारी कर दी है। हैरानी नहीं कि बीजेपी नेतृत्व बिहार की राजनीति के इस मास्टरस्ट्रोक से भ्रमित हो गया है।

इस बीच प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष पर जाति कार्ड खेलने का आरोप लगाते हुए एक असंतुलित बयान दिया। उन्होंने कहा है कि गरीबी सबसे बड़ी जाति है जिसका मतलब है कि राज्य सरकारों को जाति के नाम पर समाज को विभाजित करने के बजाय गरीबी से निपटने के बारे में अधिक जागरूक होना चाहिए।


यह बिना सोचे-समझे की गई प्रतिक्रिया जान पड़ती है। सत्तारूढ़ दल अपने स्थानीय और क्षेत्रीय वार्ताकारों के माध्यम से ओबीसी और निचली जाति की मांगों की बढ़ती लहर को रोकने में सक्षम नहीं हो सकता। उस अर्थ में, निचले वर्गों के लिए बीजेपी की वैचारिक सद्भावना के ऊपर शीर्ष न्यायिक परीक्षण से समर्थित समानता की संवैधानिक स्वीकृत व्यवस्था के हावी होने की काफी संभावनाएं हैं।

डॉ. आंबेडकर ने ‘द एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में दलितों से हिन्दू पहचान से पूरी तरह अलग होने का आह्वान किया है क्योंकि तभी विरोध की नई भाषा गढ़ी जा सकती है और वास्तविक सशक्तिकरण के लिए एक नई आवाज और पहचान विकसित की जा सकती है। अफसोस, ऐसा नहीं होने जा रहा बल्कि इसके ठीक विपरीत होने की संभावना है। धार्मिक संरचना के भीतर अपनी पहचान फिर से हासिल करने की कोशिश में ओबीसी समूहों में और बिखराव होगा।

हालांकि एक नई पहचान की तलाश में और सामाजिक विकास में समान हितधारक बनने की आकांक्षा में ओबीसी को अपनी सुरक्षा, समृद्धि और न्याय की ओर सरकार द्वारा अधिक ध्यान दिए जाने की मांग को हाशिये पर डाल दिए जाने के प्रति सावधान रहना होगा।

(डॉ. मलय मिश्रा सेवानिवृत्त राजनयिक और राजनीतिक विश्लेषक हैं। ये उनके अपने विचार हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)

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