बिहार ने सियासी बाजी पलट विपक्ष में फूंकी नई जान, 2024 के लिए जगाई नई उम्मीद

बिहार में भी BJP सत्ता पर कब्जे का खेल करने में जुटी थी। लेकिन राजनीति के मंझे खिलाड़ी नीतीश ने ऐन मौके ऐसी चाल चली कि BJP के हाथ के तोते उड़ गए। अब पार्टी इस चिंता में है कि बिहार कहीं BJP-विरोधी ऐसे राजनीतिक भूकंप पर केंद्र न बन जाए जिसका असर पूरी हिंदी पट्टी और उसके आगे के राज्यों तक पहुंच जाए।

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अरुण सिन्हा

इसमें संदेह नहीं कि जिस तरह नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने सियासी अखाड़े में हाथ मिलाकर बीजेपी को चारों खाने चित कर दिया, उससे विपक्ष का दिल बल्लियों उछल गया होगा। एक बार फिर विपक्षी खेमे में उम्मीदें जगी हैं कि अगर बिहार में ऐसा हो सकता है तो 2024 के लोकसभा चुनावों में भी बीजेपी को रौंदा जा सकता है।

तथ्य यह है कि जनता दल(यूनाइटेड) ने बीजेपी से अलग होकर आरजेडी के साथ गठजोड़ कर लेने से बिहार का गणितीय समीकरण बदल गया है। बिहार में लगातार राजनीतिक जमीन हथियाती बीजेपी को अब मजबूरन रक्षात्मक होना पड़ेगा। उब उसकी प्राथमिकता हाल के समय में पाई बढ़त को बनाए रखने की होगी। अब विधानसभा चुनाव में उसका जोर अपनी सीटों को बचाने पर होगा, क्योंकि उसे पता है कि हालिया घटनाक्रम का असर 2024 के लोकसभा चुनावों पर भी पड़ने जा रहा है। बीजेपी के लिए चिंता की बात यह भी है कि बिहार कहीं बीजेपी-विरोधी ऐसे राजनीतिक भूकंप पर केंद्र न बन जाए जिसका असर बिहार से निकलकर पूरी हिंदी पट्टी और उसके आगे के राज्यों तक पहुंच जाए।

बिहार विधानसभा का चुनाव अपने बूते लड़ने की मजबूरी से ही बीजेपी के पसीने छूट रहे होंगे। पिछली बार उसने 2015 में ऐसा किया था जब जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन ने बीजेपी के छक्के छुड़ा दए थे। 2014 के लोकसभा चुनावों और 2015 के विधानसभा चुनावों को मिलाकर देखने से पता चलता है कि बिहार के होशियार वोटरों ने लोकसभा में अलग तरीके से वोट डाला और विधानसभा में अलग तरीके से। उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में नतीश को समर्थन नहीं दिया जबकि 2015 के विधासभा चुनाव में खुलकर नीतीश को समर्थन दिया, यानी बिहार के वोटरों ने साफ कर दिया कि उसे केंद्र में कौन नेता चाहिए था और कौन राज्य में।

बिहार में विधानसभा चुनाव 2025 में होने हैं लेकिन उसमें अब भी तीन साल का समय है। उससे पहले तो बीजेपी के सामने 2019 में जीतीं लोकसभा की 17 सीटों को बचाए रखने की चुनौती आ खड़ी होगी। बीजेपी के कुछ आशावादियों को यह उम्मीद हो सकती है कि 2024 में बीजेपी 2014 के आंकड़े, यानी 22 सीटों के स्तर को पा लेगी लेकिन यह इतना आसान नहीं होने जा रहा है। इस फसाने को हकीकत में बदलने के लिए बहुत कुछ ड्रामाई होना पड़ेगा।

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने लोक जनशक्ति पार्टी, आरएलएसपी के साथ मिलकरचुनाव लड़ा जबकि जेडीयू ने भाकपा, राजद, कांग्रेस और राकांपा के साथ गठजोड़ करके। 2019 में बीजेपी ने जेडीयू और एलजेपी के साथ मिलकर चुानव लड़ा और तब आरजेडी ने कांग्रेस, आरएलएसपी, हम सेकुलर और विकासशील इंसान पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। 2019 में बीजेपी ने जिन 17 लोकसभा क्षेत्रों में चुनाव लड़ा, वहां उसके वोटों में 2014 के मुकाबले काफी बढ़त रही थी, लेकिन 2024 में उसकी स्थिति 2014 वाली होगी जब उसने बिना जेडीयू के चुनाव लड़ा था। ज्यादा संभावना इस बात की है कि उसकी स्थिति और खराब ही होगी क्योंकि इस बीच आरएलएसपी उससे अलग हो चुकी है और एलजीपी में भी टूट-फूट हो चुकी है। ऐसी स्थिति में संजय जायसवाल मुश्किलों में फंस सकते हैं। अलग उन्हें महागठबंधन का साझा उम्मीदवार का सामना करना पड़ता तो 2014 में वह करीब 30 हजार वोटों से हार गए होते। पार्टी इस बात से वाकिफ हैं कि जब तक कुछ नाटकीय नहीं हो जाता, बिहार में 2024 का रास्ता आसान नहीं है।

राष्ट्रीय राजनीति में इसका मतलब?

बिहार साम्राज्यवादी शासन और आजाद भारत में भी राजनीतिक आंदोलनों की धुरी रहा है और उसने देश को राह दिखाई है। हाल तक बीजेपी एक के बाद दूसरी पार्टी को तोड़ती रही थी, चुनाव हारने के बाद भी राज्य-दर-राज्य विपक्ष की सरकार गिराकर सत्ता में आ रही थी और राजनीतिक तौर पर गड़प कर लेने का अंत नहीं दिख रहा था। लेकिन बिहार ने बीजेपी को हतप्रभ कर दिया। 'गड़प-संस्कृति' की उसकी खुशफहमी बिहार में सत्ता परिवर्तन ने खत्म कर दी कि हिंदी ह्रदयप्रदेश उसका इलाका है! बिहार में भी बीजेपी सत्ता पर कब्जे का खेल करने में जुटी थी। लेकिन राजनीति के मंझे खिलाड़ी नीतीश कुमार ने ऐन मौके ऐसी चाल चली कि बीजेपी के हाथ के तोते उड़ गए।

लेकिन युद्ध तो अभी शुरू ही हुआ है। एक राज्य ही काफी नहीं है। एक सियासी समीकरण ही काफी नहीं। एक नीतीश कुमार ही काफी नहीं हैं। बीजेपी ने अपना व्यक्तित्व नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व के साथ मिला लिया है। वह पार्टी के ईवीएम हैं और अब भी वैसे ही मजबूत हैं। उनकी जनअपील मजबूत बनी हुई है। वह चतुर, कठोर स्वप्रचारक हैं। लोगों से सहज तकियाकलामों में बात करते हैं। पूरे मीडियास्पेस- टीवी, प्रिंट, रेडियो, डिजिटल और सोशल मीडिया, में छाए रहते हैं। उन्होंने ऐसा सुनिश्चचित कर रखा है कि भारत का अच्छा-खासा हिस्सा सिर्फ उन्हें सुने और उन पर ही यकीन करे। विभिन्न वर्गों और जातियोों के भारतीयों की अच्छी-खासी संख्या निश्चचित ही उनके जादू-टोने में है।

मोदी के खिलाफ लड़ाई महज उन वोटों को वापस खींच लाने की नहीं है जो उन्होंने दूसरी पार्टियों से हथिया लिए हैं। यह उस मन-मिजाज को वापस लाने की है जो उन्होंने अपनी ओर कर रखे हैं। अगर यह मन-मिजाज लौटता है, तो वोट अपने आप लौट आएंगे। मोदी चुनावों के लिए लड़ाई को आम जनता के मनोविज्ञान तक ले गए हैं। यही वह जगह है जहां विपक्ष को चोट करनी है। ऐसा नहीं है कि विपक्ष ऐसा नहीं करता। लेकिन वह सही जगह पर चोट नहीं कर रहा।

उदाहरण के लिए, विपक्ष हिन्दू आस्था के पक्षधर होने और बांटने वाली राजनीति को बढ़ावा देने के लिए उन पर हमले कर रहा है। लेकिन मोदी लड़ाई उससे आगे ले गए हैं। निश्चचित तौर पर हिन्दुत्व उनके राजनीतिक मंदिर के गर्भ गृह में स्थापित है, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद से उन्होने तीन और मंदिर बना लिए हैं। पहला- राष्टट्रवाद का मंदिर। दूसरा- विकास का मंदिर। यह देवता हाईवे, एयरपोर्ट, उद्योग, एम्स, अंतरिक्ष यान, चौबीसों घंटे बिजली और एक बिलियन डॉलर वाली कंपनियां बनवाता है जहां कोई नहीं था! तीसरा है- कल्याणकारी योजनाओं का मंदिर। यह देवता फ्री अनाज, आवास, टॉयलेट, फ्री गैस सिलेंडर, जीरो बैलेंस वाले बैंक एकाउंट, खातों में सीधे पहुंचने वाली राशि, स्वस्थ्य बीमा और हर किसान को हर साल 6,000 रुपये जैसा कि पहले किसी ने नहीं किया था!

विपक्ष को उनके ये तीन मंदिर ढहाने होंगे। उसकी शुरुआत राष्टट्रवाद के मंदिर से करनी होगी। जनता को यह विश्ववास दिलाने के लिए तथ्य सामने लाने होंगे कि ग्लोबल पावर होने और भारत को आदर तथा गौरव दिलाने का उनका दावा झूठा है। उसे दिखाना होगा कि वह अपने बारे में जितना दावा करते हैं, पाकिस्तान चीन से निबटने में उतने मजबूत और निर्णयात्मक नहीं हैं। उसे लोगों को समझाना होगा कि अपनी छवि चमकाने के लिए वह हर घर तिरंगा-जैसे सांकेतिक अभियान चलाते रहते हैं जबकि उनकी नीतियों ने देश को कमजोर ही किया है।

विकास का उनका मंदिर दक्षिणपंथी धारा की ईंटों से बना है। लेकिन विपक्ष इस पर हमला कर इसे ध्वस्त नहीं कर पा रहा, भले ही वह वामपंथी धारा का है। मोदी मुक्त बाजार के दूत हैं। वह राज्य द्वारा घेर रखी गई अधिक-से-अधिक जगह बाजार को दिए दे रहे हैं। विपक्ष ने खेती-किसानी को बाजार के लिए खोलने के उनके प्रयास को विफल करने में भूमिका निभाई। वह सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) और सरकारी बैंकों में विनिवेश की उनकी योजनाओं का विरोध कर रहा है। लेकिन उसे यह सिद्ध करने को बहुत कुछ करना होगा कि निजीकरण लोगों के हितों के पूर्ण खिलाफ है। विपक्ष को लोगों को भरोसा दिलाना होगा कि वह अर्थव्यवस्था को आकार देने में सरकार की भूमिका को फिर से परिभाषित करते हुए इसमें संतुलन ला सकता है और इसके साथ ही आम लोगों का जीवन स्तर बेहतर कर सकता है।

जनकल्याणकारी योजनाओं का मंदिर ढहाने के लिए विपक्ष को गरीबोों को यह यकीन दिलाना होगा कि मोदी उन्हें छोटी-छोटी चीजें इसलिए दे रहे हैं क्योंकि वह उन्हें गुणवत्तापूर्ण रोजगार उपलब्ध कराने में विफल हैं। जबकि युवाओं में काम न होने के कारण जो हताशा और निराशा है, वह एक सच्चाई है। हमारी श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी कम होती जा रही है। विपक्ष को इन दो वर्गों को अपने पाले में करने के लिए इन्हें ऐसी नीतियों से भरोसे में लेना पड़ेगा जो उन्हें व्यावहारिक लगे। विपक्ष को बड़े सोचे-समझे तरीके से मोदी सरकार के ‘रोजगारविहीन विकास’ पर हमला करना होगा। लेकिन क्या विपक्ष युवाओं और महिलाओं को आर्थिक विकल्प देने की हालत में है? वह विजन कहां है जो लोगों को यकीन दिलाए कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ का मोदी का नारा खोखला सिद्ध हुआ है और वे सचमुच ‘सबका विकास’कर सकते हैं?

और वह विजन ही पर्याप्त नहीं है। लोगों के सामने आर्थिक विकास प्रस्तुत करने के लिए मजबूत, विश्वसनीय राजनीतिक विकल्प चाहिए होगा जो बेहतर भविष्य की आशा में उन्हें वोट दे। और वैसे राजनीतिक विकल्प के लिए एक नेता होना चाहिए जिसे संयुक्त विपक्ष चुने। गठबंधनों की बहुतायत मोदी के खिलाफ काम नहीं करेगी। वह कल्ट फीगर हैं। बिखरा हुआ विपक्ष उन्हें आसान रास्ता मुहैया करा देगा। उसे ऐसे कल्ट फीगर के खिलाफ मजबूत, विश्वसनीय, स्वप्नदर्शी व्यक्ति चाहिए।

(अरुण सिन्हा स्वतंत्र पत्रकार और‘नीतीश कुमार एंड द राइज ऑफ बिहार’और ‘द बैटल फॉर बिहार’ के लेखक हैं)

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