बिहार में तेजस्वी भव: - लक्ष्य दृष्टि में बिहार भी, बाहर भी और 2024 भी...

तेजस्वी अपनी इस पहल से राष्ट्रीय राजनीति में बिहार को कहां खड़ा कर पाते हैं, सामने आने में वक्त है! तेजस्वी अपने होने को पहले भी साबित कर चुके हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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नागेन्द्र

सितंबर 2020 का अंतिम हफ्ता बीत रहा था। बिहार विधानसभा के चुनावों में एक महीने से कुछ ही ज्यादा वक्त शेष था और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) का कुछ खास अता-पता नहीं था। लेकिन अचानक कुछ हुआ और जो आरजेडी परिदृश्य से लगभग ओझल था, अक्तूबर शुरू होते-होते चुनाव की धुरी बन गया। तेजस्वी यादव की सभाओं में अचानक उमड़ी भीड़ इसकी तस्दीक कर रही थी। अंतिम नतीजे जो भी रहे हों, तेजस्वी यादव बड़ी ताकत बनकर उभरे और आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी। यह तेजस्वी के ‘सौ सुनार की एक लोहार की’ वाले अंदाज में दस लाख युवाओं को रोजगार के वायदे और पूरे चुनाव में बहुत नपे-तुले अंदाज में, खूब साधकर छोड़े गए तीरों के कारण संभव हुआ था।

अब अगस्त, 2022 है। तेजस्वी फिर चर्चा में हैं।

वही तेजस्वी जो 2020 के पहले तक बहुत कुछ हाथ में होने के बावजद ‘लालू प्रसाद के पुत्र’ थे। क्रिकेट और दिल्ली की दुनिया छोड़कर आने वाले, धीरे से जगह बनाते और फिर बिहार और हिन्दी पट्टी के राजनीतिक क्षितिज पर तेजी से उभरे एक युवा नेता। हेलीकॉप्टर से उड़ता, उतरकर दौड़ते हुए सभास्थल तक पहुंचने वाला, सवालों की धूल झाड़ एक नई छवि गढ़ता युवा। बड़े-बड़े दिग्गजों से सीधा मोर्चा लेता यह लड़का 2020 में अचानक सबकी नजरों में इसलिए चढ़ गया कि सारे समीकरण ध्वस्त करते हुए अपने दम पर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरा और आरजेडी को राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में वापस खड़ा कर दिया।

वही लड़का 2022 में इसलिए चर्चा में है कि उसकी पहल से बने एक नए गठबंधन ने न सिर्फ आरजेडी और उसकी राजनीति बल्कि बिहार को राष्ट्रीय स्तर पर आकार लेने को आतुर प्रतिरोध की एक धुरी फिलहाल तो बना ही दिया है।


यह सब अनायास और अचानक नहीं हुआ। पिछले चुनावों के बाद विपक्षी बेंच पर बैठे तेजस्वी के हर कदम, खासकर पहला भाषण याद करने की जरूरत है। यह भी कि बीते कुछ महीनों में तेजस्वी के हमलों का लक्ष्य नीतीश उस तरह नहीं रह गए थे, हालांकि बाहर वालों को यह समझने में देर लगी। यह भी सही है कि हर दिन हमलावर रहे तेजस्वी ने कभी समझौते का संकेत नहीं दिया, हर हमले से लंबी लाइन ही खींची। लेकिन उन्होंने अचानक जिस तरह नीतीश कुमार से हाथ मिलाया, वह चौंकाने वाला था।

तेजस्वी यहीं नहीं रुके। जिस वक्त टेलीविजन चैनल इस अप्रत्याशित नए युग्म के ‘भविष्य’ के आकलन में लगे थे, अणे मार्ग की सड़क पर नीतीश के साथ पैदल चलते, मीडिया से बतियाते तेजस्वी युग्म की मजबूती का जो संदेश देना चाह रहे थे, शपथ ग्रहण के ठीक बाद ‘चाचा’ नीतीश के पैर छूकर उसे और पुख्ता कर दिया। नीतीश भी गले लगा, बगल की कुर्सी का इशारा कर बड़ा संदेश देते दिखे।

तेजस्वी का यह बदलाव इससे आगे भी महसूस हुआ जब वह शपथ ग्रहण के बाद दिल्ली गए और सबसे पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, फिर सीताराम येचुरी और डी राजा जैसे वामपंथी नेताओं से मिले। यह मिलना शिष्टाचार भेंट से आगे मौजूदा राजनीतिक हालात में एक हस्तक्षेप के तौर पर देखा गया। तेजस्वी ने महसूस कराया कि उनकी नजर बिहार के बाहर भी है और यह भी कि खुद को पीछे रखते हुए वह कहीं-न-कहीं राष्ट्रीय फलक पर भी एक नई तरह की सोशल इंजीनियरिंग की जरूरत महसूस कर रहे हैं।

तेजस्वी अपनी इस पहल से राष्ट्रीय राजनीति में बिहार को कहां खड़ा कर पाते हैं, सामने आने में वक्त है! तेजस्वी अपने होने को पहले भी साबित कर चुके हैं। पिता के छात्र जीवन और आंदोलन के दोस्तों- जगदानंद सिंह, अब्दुल बारी सिद्दीकी, रामचंद्र पूर्वे या शिवानंद तिवारी सरीखे राजनीतिक दिग्गजों और नई पीढ़ी के नेताओं के बीच संतुलन साधते हुए अपने यूपी वाले काउंटरपार्ट अखिलेश यादव से अलग छवि बनाना आसान नहीं था।


अनायास नहीं था कि लालू प्रसाद के वारिस तो मीसा यादव और तेज प्रताप भी थे, और तेज प्रताप तो राबड़ी देवी की पहली पसंद थे, लेकिन तेजस्वी ने बड़ी सहजता से यह ट्रांसफॉर्मेशन भी कर दिया और सिर्फ बेटे वाली छवि से भी खुद को बाहर निकाल लाए। कभी तुनक मिजाज छवि वाले तेजस्वी ने स्थिर होकर जिस तरह पुराने-नए में संतुलन साधा, परिवारवाद से खुद को बाहर निकाल पुरानी गलतियों के लिए सार्वजनिक माफी मांग व्यापक समाज में स्वीकार्यता बनाई, सदन के अंदर-बाहर मुद्दों को बिना लागलपेट उठाया, वह एक नए तेजस्वी की निर्मिति थी।

बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश में तेजी से सत्ता की धुरी बनते, पिछड़े समाज के इस युवा ने बड़ा जोखिम लेकर, पुरानी दोस्त रेचल के साथ अंतरजातीयअंतरधार्मिक विवाह कर निजी जीवन में भी ऐसी बड़ी लाइन खींची जिसे लेकर ‘संस्कारी सवालों’ में घेरने की नाकाम कोशिशें भी हुईं।

यह वही तेजस्वी हैं जिनके बारे में पटना के खेल विशेषज्ञ मित्र ज्ञानेंद्र नाथ कहते हैंः “जिस तेजस्वी के लिए क्रिकेट की पिच पर बारहवें खिलाड़ी की भूमिका राबड़ी देवी और लालू यादव को स्वीकार नहीं थी, जिसका पिच पर खेलती टीम को पानी पिलाते देखना उन्हें मंजूर नहीं था, उसी तेजस्वी ने आज पूरी बीजेपी को पानी पिला रखा है।” तेजस्वी के सामने चुनौतियां हैं, पहले से बड़ी भी! इसलिए क्योंकि अब बीजेपी भी तेजस्वी को अपने लिए बड़ा खतरा मान चुकी है।

बिहार को ठीक से समझने वाले पूर्णिया के अरुण कुमार कहते हैंः “पहले तेजस्वी सिर्फ उम्मीद थे, अब बिहार उनमें संभावना देखने लगा है।” लेकिन अरुण की बड़ी चिंता सत्ता में वापसी के बाद आरजेडी के साथ चस्पा पुरानी, कुछ सच्ची-कुछ झूठी कहानियों और नैरेटिव से उसे बाहर लाने में उनकी सफलता को लेकर है। हालांकि इसका जवाब तलाशने के लिए 2020 के वे चुनावी पोस्टर-होर्डिंग याद करने होंगे जिनमें चेहरा सिर्फ तेजस्वी थे, ‘परिवार’ पोस्टर से गायब था। पार्टी को अक्सर विवाद में धकेल देने वाले भाई-बहन (तेज प्रताप और मीसा भारती) पूरे चुनाव में फ्रेम से बाहर रहे। लाल-राबड़ी भी पोस्टरों में नहीं दिखे। यह सब अनायास नहीं था। तेजस्वी के सामने न सिर्फ ‘परिवारवाद’ के खांचे से खुद को निकालने की चुनौती थी, एम-वाई वाली पार्टी की शिनाख्त से भी आरजेडी को बाहर लाना था। यह पार्टी के टैक्टिकल ट्रांसफॉर्मेशन की दिशा में तेजस्वी का पहला बड़ा, अघोषित लेकिन सफल प्रयास था।

लालू-नीतीश के छात्र जीवन के दोस्त, राजनीति में कभी लालू प्रसाद के एकदम करीब, तो कभी धुर विरोधी और फिर दोस्त बने पूर्व सांसद और चर्चित समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी कहते हैंः “तेजस्वी ने यह काम पूरी जिम्मेदारी से किया। 2020 में आरजेडी को पूरे बिहार में जिस तरह वोट मिले, वह एम-वाई से बहुत आगे जाकर की गई सोशल इंजीनियरिंग का मामला था। तेजस्वी ने अगर कहा कि आरजेडी को ‘ए टु जेड’ की पार्टी बनाना है, तो काफी हद तक सफल भी हुए। फिलहाल तेजस्वी अभी फ्रंट सीट पर बैठे हैं। ड्राइविंग सीट जब मिलेगी, तब का आकलन तब होगा। यहीं से वह बिहार को देख रहे हैं, बिहार से बाहर को भी, 2024 को भी।


वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार की नजर में हाल के राजनीतिक बदलाव को महज एक तात्कालिक घटना नहीं, दूरगामी नतीजों वाले बड़े बदलाव के तौर पर देखना चाहिए। अजय मानते हैं कि “यह बीजेपी का नया संकट है। वैसे भी पिछड़ों की गोलबंदी, उनकी राजनीति को लेकर बिहार का मिजाज हमेशा से अलग रहा है। यहां धर्म और सांप्रदायिकता की राजनीति कभी नहीं चली। 1990 में रथ यात्रा रोककर लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद नहीं, 1992 में बाबरी ध्वंस के बाद भी नहीं। शायद इसके पीछे इसका अतीत का समाजवादी और वामपंथी तानाबाना रहा हो।” हालांकि यह बात करते हुए नहीं भूलना चाहिए कि यह न तो उस दौर का बिहार है और न ही यह नब्बे के दौर वाली बीजेपी।

वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी की तरह ऐसा मानने वाले कम नहीं हैं कि तेजस्वी सुशासन पर अपने तरीके से काम कर बिहार के नायक बन सकते हैं लेकिन इसके लिए उन्हें अपने समर्थकों पर सख्त नियंत्रण रखना होगा। दागियों से दूरी और अच्छे लोगों को जोड़कर उन्हें पार्टी की अगली पंक्ति में जगह देनी होगी। अगर तेजस्वी ऐसा कर पाए तो फिर बिहार उनका है। उन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकेगा।

मगर सवाल तो यही है कि क्या तेजस्वी ऐसा कर पाएंगे?

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