बिहार SIR: यह लोगों के अधिकार और इच्छाशक्ति की लड़ाई है

क्या अब हम बिहार में भी ‘डी-वोटर्स’ की एक स्थायी श्रेणी देखने जा रहे हैं? यह समझना मुश्किल नहीं है कि उनके मताधिकार के निलंबन से राशन से लेकर पेंशन और स्वास्थ्य सेवा से लेकर आवास तक, हर दूसरे अधिकार और लाभ से उन्हें हाथ धोना पड़ेगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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नरेन्द्र मोदी  सरकार 25 जून, जिस दिन 1975 में आपातकाल लागू हुआ था, को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाती है! मोदी और योगी सरकारों को जगहों के नाम बदलने और साल के अलग-अलग दिनों को नए नाम देने का भी शौक है! लेकिन संविधान की हत्या की वर्षगांठ के रूप में किसी दिन को चिह्नित करना अपने आप में एक सवाल खड़ा करता है कि: ‘संविधान का पुनर्जन्म कब हुआ?’ या कि मोदी सरकार इस तरह हमें यह बताना चाहती है कि उसकी नजर में संविधान महज एक मृत दस्तावेज के अलावा कुछ नहीं है?

इस साल 25 जून को आपातकाल के 50 साल पूरे हुए थे और संयोग नहीं कि भारत के चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूचियों के अभूतपूर्व विशेष गहन पुनरीक्षण के लिए इसी दिन को चुना। अब इससे बड़ी विडंबना क्या होगी: संविधान की हत्या की स्वर्ण जयंती मनाने का इससे बेहतर तरीका भला हो भी क्या सकता था कि संभवतः संविधान में प्रदत्त सबसे प्रमुख मौलिक अधिकार ‘सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार’ को ही निशाने पर ले लिया जाए?!

बिहार के लोगों पर यह विडंबना छिपी नहीं थी। वे इस चुनावी शुद्धिकरण अभियान, इस ‘वोटबंदी’ और 8 नवंबर 2016 की रात वाली ‘नोटबंदी’ के बीच अजीबोगरीब समानता देखकर दंग थे। वह भी कथित तौर पर एक व्यापक शुद्धिकरण अभियान था, अर्थव्यवस्था को काले धन के बुरे प्रभाव से मुक्त करने का एक कथित प्रयास। लेकिन बिहार को इस एसआईआर के खतरनाक तात्कालिक प्रभावों को समझने में भी वक्त नहीं लगा, यानी लगभग 2 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं के मताधिकार से वंचित होने का मंडराता खतरा उसने भांप लिया।


बेंगलुरु मध्य लोकसभा क्षेत्र के महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर चुनावी धांधली का पर्दाफाश करने वाली राहुल गांधी की 7 अगस्त की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद, ‘वोटचोरी’ शब्द सार्वजनिक चर्चा में छा गया। यह व्यापक जन विरोध और गहन जांच-पड़ताल का ही असर था कि 2 करोड़ से ज्यादा लोगों के तात्कालिक रूप से मताधिकार से वंचित हो जाने का खतरा तो सिमटकर 65 लाख पर आ गया, लेकिन लेकिन गणना प्रपत्रों के ‘सत्यापन’ की अनिश्चितताओं की बदली छायी रहने के कारण, बड़े पैमाने पर नाम बाहर हो जाने का खतरा अब भी मंडरा रहा है।

बिहार के एसआईआर में मतदाता सूची तैयार करने की स्थापित परिपाटी से तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विचलन साफ है:

i) नागरिकता के अनुमान के सिद्धांत को, जब तक कि अन्यथा साबित न हो, अब चुनावी समावेशन की पूर्व शर्त के रूप में नागरिकता के पूर्व प्रमाण द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है,

ii) ‘सामान्य रूप से किसी क्षेत्र का निवासी’ खंड की संकीर्ण व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है, जिससे बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिकों को ‘स्थायी रूप से स्थानांतरित’ करार दे दिया जा रहा है, और

iii) चुनाव आयोग एक सटीक और समावेशी मतदाता सूची सुनिश्चित करने की अपनी जिम्मेदारी से पूरी बेशर्मी से बचते हुए, इसकी पूरी जिम्मेदारी राजनीतिक दलों द्वारा नियुक्त बूथ लेवल एजेंटों (बीएलए) और सरकार द्वारा भर्ती किए गए बूथ लेवल अधिकारियों (बीएलओ) पर डाल दे रहा है।

इतना ही नहीं, वह एसआईआर अभ्यास के हर चरण में बड़े पैमाने पर अनियमितताओं को उजागर करने वाली जमीनी रिपोर्टों और वीडियो साक्ष्यों को भी लगातार नजरअंदाज कर रहा है। जमीनी हकीकत उजागर करने वाले पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को झूठे मामलों में फंसाकर परेशान किया जा रहा है।


जिद ऐसी कि चुनाव आयोग को हटाए गए मतदाताओं की सूची, हटाए जाने के कारणों के साथ साझा करने और आधार कार्ड, जो सबसे व्यापक रूप से उपलब्ध पहचान पत्र है और जिसे भारतीय राज्य स्वयं लगभग सभी सार्वजनिक सेवाओं का उपयोग करने के लिए लोगों पर थोपता रहा है, को कुछ साक्ष्यात्मक महत्व प्रदान करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की कई सुनवाइयों और आदेशों की जरूरत पड़ी। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को चुनाव आयोग की पात्रता दस्तावेजों की सूची में आधार को एक स्वतंत्र बारहवें दस्तावेज के रूप में स्वीकार करने का स्पष्ट आदेश जारी करना पड़ा।

सर्वोच्च न्यायालय के सुझावों पर भी तवज्जो न देने की चुनाव आयोग की हठधर्मिता से यह साफ हो चुका है कि एक सशक्त और सतर्क जन अभियान ही बूथ दर बूथ की जाने वाली चुनावी धोखाधड़ी रोकने में कारगर हो सकता है। आश्वस्त करने वाली बात यह है कि बिहार अपनी प्रकृति के अनुरूप इस दिशा में खास जोश और व्यापक सक्रियता के साथ सामने आया है। 9 जुलाई के ‘चक्का जाम’ और मतदाता अधिकार यात्रा (17 अगस्त से 1 सितंबर) के बीच, मताधिकार से वंचित होने और चुनावी धोखाधड़ी के प्रति लोगों का डर पूरे राज्य में स्पष्ट आक्रोश में बदल चुका है।

हालांकि, एसआईआर सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं है; अब इसका खाका पूरे भारत के चुनावों में लागू करने की तैयारी है। जाहिर है इस प्रक्रिया में मताधिकार से वंचित लोगों की नागरिकता छिन सकती है; उन्हें उनके अन्य बुनियादी अधिकारों और लाभों से वंचित किया जा सकता है; और कोई बड़ी बात नहीं कि उन्हें नजरबंदी और निर्वासन की त्रासदी का सामना भी करना पड़ जाए।

मौजूदा एसआईआर के लागू होने से बहुत पहले ही हम देख चुके हैं कि किस तरह इसके पूर्ववर्ती, असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) ने ‘डी-वोटर्स’ (संदिग्ध मतदाता) की एक श्रेणी बनाई, और इस समूह को कितनी दुश्वारियां झेलनी पड़ीं। बिहार में लगभग तीन लाख मतदाताओं को पहले ही कहा जा चुका है कि उनके दस्तावेज पर्याप्त या संतोषजनक नहीं हैं। तो क्या अब हम बिहार में भी ‘डी-वोटर्स’ की एक स्थायी श्रेणी देखने जा रहे हैं? यह समझना मुश्किल नहीं है कि उनके मताधिकार के निलंबन से राशन से लेकर पेंशन और स्वास्थ्य सेवा से लेकर आवास तक, हर दूसरे अधिकार और लाभ से उन्हें हाथ धोना पड़ेगा।


मोदी, शाह और भागवत के भाषणों में ‘घुसपैठ’ का हव्वा लगातार खड़ा किया जाना और अचानक, लेकिन सोची-समझी रणनीति के तहत एसआईआर अभियान की शुरुआत, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संघ ब्रिगेड की फासीवादी राजनीति अब मुस्लिम नागरिकों को बांग्लादेशी या रोहिंग्या ‘घुसपैठिया’ बताकर उन्हें बदनाम करने के इर्द-गिर्द घूमती है, और एसआईआर इस नफरती अभियान का एक और कारगर हथियार है। असम में तो यह एनआरसी की खतरनाक प्रक्रिया का तीसरा चरण होगा, जिसके तहत पहले ही लगभग बीस लाख निवासियों को जरूरी दस्तावेजों की कमी बताकर नागरिकता रजिस्टर से बाहर किया जा चुका है।

इसमें तो कोई शक नहीं कि बिहार में अचानक शुरू हुआ एसआईआर अभियान एक राजनीतिक दांव है। यह नवंबर 2016 में हुई नोटबंदी अभियान की याद दिलाता है, जो कुछ ही महीने बाद फरवरी 2017 में बीजेपी को उत्तर प्रदेश के चुनाव जीतने में मददगार साबित हुआ था। ​​एनडीए खेमा मान रहा ​​है कि एसआईआर के कारण उत्पन्न व्यवधान और बड़े पैमाने पर नाम बाहर होने से उसे लोगों में जगह बना रही दो दशकों से चली आ रही सत्ता विरोधी सोच से उबरने में मदद मिलेगी। लेकिन जमीनी रिपोर्टें बताती हैं कि एसआईआर से पैदा हुआ आघात, भूमि सर्वेक्षण और व्यापक भूमि अधिग्रहण एवं बेदखली अभियानों से पैदा हुए असुरक्षाबोध के साथ ही राज्य में अपराध और भ्रष्टाचार का बढ़ता जाल, बिहार में बदलाव लाने के लोगों के संकल्प को एक नया आधार, एक नई मजबूती दे रहा है।

(दीपांकर भट्टाचार्य, भाकपा-माले (लिबरेशन) के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)

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