विष्णु नागर का व्यंग्यः मूर्खता और दंभ का स्वर्ण युग है बीजेपी काल, बार-बार नहीं आते ऐसे अभिनव युग!

बीजेपी नामक एक पार्टी की यह कुविचारित-कुचिंतित-कुफली नीति थी कि जो विरोध में खड़ा हो, उसे ऐसा निबटाओ, ऐसा फंसाओ कि उसके प्राण भले चले जाएं, मगर वह मरकर भी फंसायमान रहे। वह मूर्खता और दंभ का स्वर्ण युग था और ऐसे अभिनव स्वर्ण युग बार-बार नहीं आया करते।

फोटोः सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

मैं 'मोदी सरकार के फंसाने के सौ तरीके' शीर्षक से एक किताब लिखने की योजना बना रहा हूं। योजना के साथ दिक्कत यह होती है कि वह बन नहीं पाती और बन जाती है तो वह 'अच्छे दिन' या 'न्यू इंडिया' या' शाइनिंग इंडिया' या 'गरीबी हटाओ' हो जाती है। फिर भी यह मानते हुए कि चूंकि मैं प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की सोच भी नहीं सकता तो अपनी योजना को फेल करने के लिए जान की बाजी भी नहीं लगाऊंगा, इसलिए मान लीजिए कि मैं किताब लिख रहा हूं।

यहां मैं उसका केवल प्रथम अध्याय प्रस्तुत करूंगा ताकि किताब आए तो उसकी तीन सौ प्रतियों का प्रथम संस्करण हाथों-हाथ बिक जाए और मैं डुगडुगी बजाकर सबको बताऊं कि बिक गया, बिक गया, मेरी किताब का प्रथम संस्करण हाथों-हाथ बिक गया। मेरी किताब वर्ष की सर्वाधिक लोकप्रिय किताब बन गई! मैं अपनी पीठ थपथपा रहा हूं, आइए, आप भी मेरी पीठ थपथपाइए मगर इतना उत्साह भी मत दिखाइए कि पीठ का भुर्ता बन जाए और भुर्ता ऐसा बने कि खाने लायक भी न हो!

बहरहाल अथ 'फंसाने के सौ तरीक़े' कथा का प्रथम अध्याय प्रारंभ करता हूं । यजमानों, बोलो, मोदीराज की जय। बोलो भई, मोदी भक्तन की जय। बोलो बहनों, संघप्रमुख जी की जय। बोलो भई योगी महाराज की जय। और भक्तों इच्छा हो तो अमित शाह की जय भी बोल दो।

तो उत्तर प्रदेश नामक भारत के एक विशाल प्रांत में कभी आदित्यनाथ नामक एक 'योगी' हुआ करते थे, जो सत्ता योग करते हुए मुख्यमंत्री पद के परम पद के भोगी बन चुके थे और प्रधानमंत्री के चरम पद की प्राप्ति के लिए लालायितमान होते हुए अमित शाह से प्रतियोगितारत थे। वैसे तो उस काल में बीजेपी नामक एक पार्टी की यह कुविचारित-कुचिंतित-कुफली नीति थी कि जो विरोध में खड़ा हो, उसे ऐसा निबटाओ, ऐसा फंसाओ कि उसके प्राण भले चले जाएं, मगर वह मरकर भी फंसायमान रहे। 55 साल पहले भारतभू से न जाने किस लोक-अलोक को पलायन कर चुके नेता को भी मत छोड़ो, जैसा जवाहर लाल नेहरू के साथ उस काल में हुआ था।


तो आदित्यनाथ नामक 'योगी' भी उस नीति का प्राणपण से अनुपालन करते पाए जाते थे। उनका रघुकुल से कोई संबंध था या नहीं, इस बारे में उस समय के वेदों-पुराणों और 'योगीचरित मानस' में कुछ नहीं मिलता, मगर वह अपने को रघुकुल का आधुनिक अवतार मानते हुए 'प्राण जाई पर जाल खाली न जाई' की नीति का पालन समय-असमय किया करते थे। उस समय पत्रकार नामक एक क्षीणप्राण प्रजाति भी हुआ करती थी, जो या तो गोदीवंशी थी या विपक्षीवंशी थी। समय के साथ यह दूसरी प्रजाति नष्ट हो रही थी और गोदीवंशी फल से ज्यादा फूलकर कुप्पा हो रहे थे।

विपक्षी वंशी प्रजाति के प्रायः नष्ट होने के काल में ही प्रदेश के मिर्जापुर नामक एक जिले में 'जनसंदेश' नामक एक दैनिक का एक पत्रकार हुआ करता था। उसका नाम उस समय के अखबारों और टीवी चैनलों में पवन जायसवाल मिलता है। उसने एक गांव के स्कूल में बच्चों को दोपहर के भोजन में नमक-रोटी खिलाए जाने की बात सुनी तो विपक्षीवंशी होने के कारण उसे इस पर आश्चर्य हो गया, अन्यथा क्यों होना चाहिए था? उसने इसका एक विडियो बनाया। पहले खबर को अपने अखबार में छपवाया, फिर विडियो प्रसारित भी कर दिया।

फैलते-फैलते यह विडियो जब अखिल भारतीय स्वरूप ले बैठा तो जिला कलेक्टर- जो बेचारा भूलवश नमक-रोटी खिलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई कर चुका था- अपने ही इस कृत्य पर अत्यंत लज्जायमान हुआ। उसने लज्जा से वशीभूत होकर ऐसा-वैसा स्वप्राण घातक काम नहीं किया बल्कि योगी के 'पत्रकार फंसाओ कार्यक्रम' की गति इतनी अधिक तीव्र कर दी कि पत्रकार बेचारे के खिलाफ जाने किन-किन धाराओं-उपधाराओं-अधाराओं में आपराधिक षड़यंत्र, जालसाजी का केस कर दिया। यही गोदी-मोदी-योगी युग का अपना स्वदेशी ब्रांड था।

'फंसाओ अभियान' के अंतर्गत उस पर यह आरोप लगाया गया (मगर प्लीज हंसिएगा मत) कि वह अखबार का प्रतिनिधि था तो उसने वीडियो क्यों बनाया? उसे खबर लिखनी चाहिए थी, फोटो खींचना चाहिए था। उसका ऐसा करना केवल अपराध नहीं बल्कि आपराधिक षड़यंत्र है।


तो इस विधि उस युग में छोटे-मोटे विरोधी भी फंसा लिये जाते थे। मूल उद्देश्य फंसाना होता था, बाकी मूर्खतापूर्ण तर्कों का उस युग में पर्याप्त कोटा उपलब्ध था। ‘टके के सौ’ कहना तो तथ्यपूर्ण नहीं होगा मगर ‘पचास पैसे के सौ किलो’ ऐसे तर्क उपलब्ध थे। वह मूर्खता और दंभ का स्वर्ण युग था और ऐसे अभिनव स्वर्ण युग बार-बार नहीं आया करते। इतिहासकार और समकालीन टिप्पणीकारों ने उसे इसी रूप में याद किया है।

उस युग के चले जाने के बाद भारी संख्या में लोग जार-जार रोते पाए गए और किसी ने जब उनके आंसू नहीं पोंछे तो वे अच्छे बच्चों की तरह चुप हो गए और सिर के नीचे तकिया लगाकर खर्राटे मारते हुए सो गए। जब वे सुबह ग्यारह बजे भी नहीं जागे तो वही आशंका हुई, जो स्वाभाविक रूप से ऐसी स्थितियों में होती है मगर ऐसा कुछ अघट नहीं घटा था। वह सपने में मूर्खता और दंभ के उस स्वर्ण युग में विचर रहे थे कि जब उन्हें हिला-हिला कर जगाया गया तो उन्होंने जगाने वाले को ही दो झापड़ रसीद कर दिए। जागने पर लगा कि वे किस नरक में पटक दिए गए हैं। उन्होंने फिर से सोकर स्वप्न जगत में पलायन का प्रयास किया, जो असफल रहा।

‘इति फंसाओ प्रथम अध्याये समाप्ये।’

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