अमेरिकी लड़ाकू विमान खरीदने की शतरंजबाजी: ट्रंप की झिड़की-झप्पी के आगे ‘मेक इन इंडिया’ ताक पर

सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने “मेक इन इंडिया” मिशन की शुरुआत की थी। घरेलू उत्पादन, खास तौर से रक्षा क्षेत्र में, इसे बढ़ावा देने का इरादा जताया था, लेकिन फ्रांस से पूरी तरह तैयार 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने का फैसला कर इस नीतियों को ताक पर रख दिया।

फोटो : Getty Images
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सरोश बाना

नरेंद्र मोदी सरकार आत्मनिर्भरता का नारा उछालती है, देसी उद्योगों को बढ़ाने का वादा करती है। लेकिन रक्षा क्षेत्र की जो तस्वीर उभर रही है, वह अलग ही कहानी बयां कर रही है। मोदीराज में भारत सैन्य साज-ओ-सामान का दूसरा बड़ा आयातक बन गया और इसमें भी अमेरिकी कंपनियों का बोलबाला बढ़ता जा रहा है।

अप्रैल, 2018 में भारतीय वायुसेना ने 18 अरब डॉलर की लागत से 114 लड़ाकू विमानों के लिए इच्छुक कंपनियों के लिए आरएफआई (रिक्वेस्ट फॉर इन्फॉर्मेशन) जारी की। इसमें उन्हीं 6 कंपिनयों ने दिलचस्पी दिखाई जिन्होंने 2012 में बोली लगाई थी, और फ्रांस की दसॉल्ट नेबाजी मार ली थी। नई निविदा में 18 लड़ाकू विमान तैयार हालत में मिलने की बात थी जबकि बाकी 96 रणनीतिक भागीदारी के तहत भारत में बनाए जाने हैं। नए सौदे में जो कंपनियां हैं उनमें लॉकहीड मार्टिन अपने एफ -16 फाल्कन ब्लॉक 70 लड़ाकू विमान की पेशकश कर रही है, जबकि इस बार सौदे में दिलचस्पी दिखाने वाली अकेली नई कंपनी सुखोई कॉर्पोरेशन ने अपने एसयू-35 की पेशकश की है।

भारतीय वायुसेना ने लड़ाकू विमान कार्यक्रम की गुणवत्ता आवश्यकताओं (एएसक्यूआर) को अंतिम रूप दे दिया है और अब रक्षा मंत्रालय की मंजूरी का इंतजार किया जा रहा है। मंत्रालय से मंजूरी के बाद कंपनियों से एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट (ईओआई) मंगाई जाएगी और फिर उसके बाद प्रस्ताव (आरएफपी) आमंत्रित किए जाएंगे। यह पूरी प्रक्रिया पहले ही पूरी हो जानी थी लेकिन कोरोना महामारी के चलते घोषित लॉकडाउन के कारण इसमें देर हो गई।

मई, 2014 में सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने जोर-शोर से “मेक इन इंडिया” मिशन की शुरुआत की थी और उसने घरेलू उत्पादन, खास तौर से रक्षा क्षेत्र में, इसे बढ़ावा देने का इरादा जताया था, लेकिन फ्रांस से पूरी तरह तैयार 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने का फैसला कर इसने अपनी ही नीतियों को ताक पर रख दिया। हकीकत तो यह है कि मौजूदा सरकार के दौरान घरेलू रक्षा उद्योग स्थापित करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया और सैन्य आयात उल्टे बढ़ ही गया। यह है मोदी की आत्मनिर्भरता की हकीकत।

“मेक इन इंडिया” मिशन का अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की “अमेरिका फर्स्ट” नीति के कारण भी गला घोंटा जा रहा है। अमेरिकी प्रशासन भारत को महंगे दाम पर अपने हथियार खरीदने के लिए दबाव बना रहा है। एक तरफ अमेरिका ने “निर्यात संबंधित कदमों” पर भारत को डब्ल्यूटीओ में भी घसीटा, तो दूसरी तरफ मरहम लगाने के लिए ट्रंप ने व्यापार घाटे की भरपाई सैन्य बिक्री बढ़ाकर करने की पेशकश की।


इसके चलते हमारे रक्षा आयातों में बेतहाशा वृद्धि हुई है क्योंकि भारत एक बड़ी शक्ति का दर्जा पाने की अपनी महात्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए ट्रंप प्रशासन के समर्थन को तरसता है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्चइंस्टीट्यूट (सिप्री) के मुताबिक, मोदी सरकार के दौरान पिछले पांच वर्षों में अमेरिका से हथियारों के आयात में पांच गुना से ज्यादा इजाफा हुआ है। यह रिपोर्ट कहती है कि ऐतिहासिक तौर पर भारत की सैन्य जरूरतों को पूरा करने वाला सबसे बड़ा भागीदार रूस रहा है लेकिन मोदी सरकार में वर्ष 2015-19 के दौरान भारत के रक्षा आयात में रूस का हिस्सा 72 प्रतिशत से घटकर 56 प्रतिशत रह गया है। सऊदी अरब के बाद भारत प्रमुख हथियारों का दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा आयातक बन गया है।

लंबे समय से व्हाइट हाउस की चाहत रही है कि भारत अमेरिकी लड़ाकू विमान खरीदने का फैसला करे। पिछली बार फैसला फ्रांस की दसॉल्ट कंपनी के हक में गया था। यह आम धारणा है कि राफेल सौदे में बदलाव और आयात किए जाने वाले विमानों की संख्या में कमी की वजह यह है कि बाद में जब भारतीय वायुसेना लड़ाकू विमान खरीदने की प्रक्रिया में आए तो अमेरिकी लड़ाकू विमानों को वरीयता दी जा सके। यह महज संयोग नहीं कि लॉकहीड और बोईंग दोनों ने पिछले वर्षों के दौरान भारत में अपनी स्थिति मजबूत की है।

लॉकहीड ने भारत में एफ-16 ब्लॉक 70 के संयुक्त उत्पादन के लिए 2017 में ही टाटा समूह की कंपनी टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स लिमिटेड (टीएएसएल) के साथ समझौता किया था। टाटा के बयान से इसकी पुष्टि भी होती है: “भारत में एफ-16 के उत्पादन से अमेरिका में लॉकहीड मार्टिन और एफ-16 को सप्लाई करने वाली कंपनियों में हजारों नौकरियां बढ़ेंगी और इसके साथ ही भारत में भी नई मैन्यूफैक्चरिंग नौकरियां पैदा होंगी और भारत में लड़ाकू विमान से जुड़ा दुनिया का सबसे विशाल आपूर्ति पारिस्थितिकी तंत्र भी विकसित हो सकेगा।”

टीएएसएल ने बोईंग के साथ भी अहम समझौता किया है। इस पर नवंबर, 2015 में हस्ताक्षर हुआ और इसके तहत साथ मिलकर एयरोस्पेस और डिफेंस से जुड़ा एकीकृत सिस्टम का विकास करना था और इस क्रम में सबसे पहले दुनिया के सर्वाधिक घातक लड़ाकू हेलीकॉप्टर के रूप में विख्यात एएच-64 अपाचे का फ्यूजलेज तैयार करना था। इस परियोजना के तहत बने पहले फ्यूजलेज की सप्लाई जून, 2018 में की गई।

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यह दिलचस्प संयोग है कि जब मोदी सरकार दूसरी बार सत्ता में आई और अनुभवी नेता सुषमा स्वराज केंद्रीय कैबिनेट से हटीं तो प्रधानमंत्री मोदी ने डॉ. एस. जयशंकर को भारत के विदेश मंत्री के तौर पर चुना। कॅरियर डिप्लोमैट रहे जयशंकर- चीन और अमेरिका, दोनों में भारत के राजदूत रह चुके थे। जयशंकर ने 2013 से 2015 तक वाशिंगटन में अपनी अंतिम तैनाती के दौरान अमेरिका से निकट संबंध विकसित कर लिए थे। उनकी रिटायरमेंट से ऐन तीन दिन पहले उन्हें सुजाता सिंह की जगह विदेश सचिव नियुक्त किया गया जबकि सुजाता सिंह का कार्यकाल खत्म होने में तब आठ महीने बाकी थे। बाद में उनके रिटायर होने के बाद एक साल तक किसी निजी कंपनी में काम न करने के नियमानुसार बंधन से जयशंकर को आजाद करते हुए सरकार ने तीन महीने बाद ही अप्रैल, 2018 में उनके टाटा समूह में ग्लोबल कॉरपोरेट अफेयर्स प्रमुख के रूप में नौकरी करने का रास्ता साफ कर दिया।


स्वाभाविक ही, वाशिंगटन कुछ ज्यादा ही उत्साहित है। उसने भारत के साथ गहरे होते रिश्तों की बात कही है। मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री बनने पर ट्रंप प्रशासन ने भारत को अमेरिका का ‘महान सहयोगी’ बताया। एक सवाल के जवाब में अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मॉर्गन ऑर्टागस ने संवाददाताओं से कहा, “हम, निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी के साथ मिलकर काम करेंगे, जैसा पहले भी कई बार किया है।”

ट्रंप प्रशासन को कभी आंखें दिखाने, तो कभी पुचकारने की अपनी रणनीति का काफी फायदा मिला है और इसी का नतीजा है कि भारत के साथ उसके महंगे हथियार सौदे होते रहे और इसके कारण अमेरिका को अपने सैन्य उद्योग में उत्पादन और नौकरियां बनाए रखने में मदद मिली। अगर भारत अमेरिका के साथ 18 अरब डॉलर का लड़ाकू विमान सौदा करता है तो इससे वाशिंगटन का अतिरिक्त फायदा होगा क्योंकि अमेरिका के साथ 10 अरब डॉलर का एक और हथियार सौदा भी होने ही वाला है।

अमेरिका ने पिछले एक दशक के दौरान भारत को करीब 18 अरब डॉलर के हथियार बेचे हैं। भारतीय नौसेना के लिए लंबी दूरी तक समुद्री गश्त के लिए 10 बोईंग पी-8 आई विमान के लिए तीन अरब डॉलर का सौदा हुआ है जबकि अभी 2016 में ऐसे ही चार विमानों के लिए 1.1 अरब का सौदा हुआ था और इन विमानों की डिलीवरी 2021-22 तक अपेक्षित है। इसके अतिरिक्त भारत ने 2009 में हुए 2.1 अरब डॉलर के करार के तहत 8 पी-8 आई विमान हासिल किए हैं। वर्ष 2011 में भारत ने 4.1 अरब डॉलर मूल्य के 10 बोइंग सी-17 ग्लोबमास्टर-III विमान भी खरीदे थे।

2015 में भारत ने 3 अरब डॉलर में 22 बोईंग एपाचे लोंबो अटैक हेलिकॉप्टरों और 1.1 अरब डॉलर में 15 चिनूक हेवी-लिफ्ट हेलीकॉप्टरों के सौदे किए। भारतीय नौसेना के लिए 24 पनडुब्बीरोधी सिकोरस्की एमएच- 60 आर सीहॉक के लिए लॉकहीड के साथ 2.6 अरब डॉलर का करार किया गया है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को ड्रोन से लेकर बैलिस्टिक मिसाइल के हमलों से सुरक्षित करने के लिए सुरक्षा कवच उपलब्ध कराने के लिए एक अरब डॉलर का रेथियॉन/कोंग्सबर्ग नेशनल एडवांस्ड सरफेस टु एयर मिसाइल सिस्टम-II लेने की तैयारी की जा रही है। इनके अलावा 145 एम 777 हॉवित्जर के लिए 73.7 करोड़ डॉलर का खर्च किया जा रहा है। भारत अपनी नौसेना के लिए 2 अरब डॉलर खर्च करके 12 प्रेडेटर बी-ड्रोन खरीदने जा रहा है और आगे इसके थलसेना और वायुसेना के इस्तेमाल वाले संस्करणों को भी खरादने की तैयारी है। ब्रिटेन और इटली के बाद भारत केवल तीसरा और नाटो के बाहर का पहला देश है जिसे अमेरिका इन हथियारों की पेशकश कर रहा है।

भारत को उन्नत हथियार और तकनीक देने के मकसद से अमेरिका ने 2016 में नई दिल्ली को प्रमुख रक्षा साझीदार के रूप में मान्यता दी। यह भी गौर करने वाली बात है कि अमेरिका भारत के साथ किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक सैन्य अभ्यास करता है। इसके साथ ही अमेरिका ने भारत को नाटो के सहयोगी देश का भी दर्जा दे रखा है। इसके लिए सीनेट ने नेशनल डिफेंस अथॉराइजेशन ऐक्ट को पारित किया है। इस कानून के बाद भारत और भी उन्नत हथियार और संवेदनशील तकनीक पाने का हकदार हो गया है।

2018 में नई दिल्ली में भारत-अमेरिका में 2+2 की मंत्रिस्तरीय बैठक के दौरान कम्युनिकेशंस कंपैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट (कॉमकासा) पर हस्ताक्षर हुआ। इस समझौते के बाद भारत अमेरिका से संवेदनशील संचार उपकरणों और सूचनाओं के अलावा रियल टाइम सूचनाएं और तस्वीरें भी हासिल कर सकता है। ट्रंप की झिड़की और झप्पी की रणनीति का ज्यादा फायदा अमेरिका को ही मिल रहा है लेकिन मोदी सरकार को लगता है कि भारत के लिए यही अच्छा है।

(लेखक बिजनेस इंडिया पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं)

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