जाति आधारित आरक्षण को चुपचाप और प्रभावी तरीके से खत्म करने का अभियान, क्या आग से खेल रही सरकार!

अब तो वरिष्ठ नौकरशाही में लोगों की लैटरल इंट्री हो रही है, रेलवे और सार्वजनिक उपक्रमों का लगातार निजीकरण किया जा रहा है, उससे यह आशंका तो बढ़ती ही जा रही है कि सरकार ‘चुपचाप लेकिन प्रभावी तरीके से’ जाति-आधारित आरक्षण को कम करती जा रही है।

फोटो : Getty Images
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उत्तम सेनगुप्ता

नौकरियों में आरक्षण को लेकर बहुत कुछ हो रहा है। सरकार ने ‘कोटे के अंदर कोटा’ की शुरुआत की है- कथित उच्च जातियों के लिए नौकरियों में आरक्षण। कई विशेषज्ञ इसे असंवैधानिक मानते हैं। इसे सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी गई है और मामला वहां लंबित है। इसे जाति-आधारित आरक्षण को समाप्त करने की दिशा में उठाए गए पहले कदम के तौर पर भी देखा जा रहा है। ‘स्थानीय लोगों’ या ‘धरती पुत्रों’ के लिए ‘आरक्षण’ की घोषणाएं भी जब-तब होती रही हैं। हरियाणा ने अभी हाल में घोषणा की है कि प्राइवेट सेक्टर को 50 हजार रुपये प्रतिमाह तक की नौकरियों में स्थानीय लोगों को आरक्षण देना होगा।

दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्गों की शिकायत है कि आरक्षित नौकरियों और सीटों से उन्हें व्यवस्थागत तरीके से बाहर किया जा रहा है। यह ऐसी शिकायत है जिसे आंकड़े भी पुष्ट करते हैं। लेकिन केंद्र सरकार इस बात पर जोर देती है कि ‘आरक्षण’ हटाने की उसकी कोई योजना नहीं है। फिर भी, जिस तरह विभिन्न सेवाओं में ठेका कंपनियों को बढ़ावा दिया जा रहा है, लोगों को कॉन्ट्रैक्ट पर रखने का चलन दिनों दिन बढ़ता गया है, नौकरशाही में अफसरों की संख्या कम होती गई है जबकि अब तो वरिष्ठ नौकरशाही में लोगों की लैटरल इंट्री हो रही है, रेलवे और सार्वजनिक उपक्रमों का लगातार निजीकरण किया जा रहा है, उससे यह आशंका तो बढ़ती ही जा रही है कि सरकार ‘चुपचाप लेकिन प्रभावी तरीके से’ जाति-आधारित आरक्षण को कम करती जा रही है।

यह भी ध्यान रखने की बात है कि देश में सिर्फ सात प्रतिशत लोग संगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इनका भी छोटा हिस्सा ही सरकारी नौकरियों में है। ‘आरक्षित’ नौकरियों की कुल संख्या कुछ करोड़ ही है और इन सरकारी कर्मचारियों में भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो ‘जनरल कैटेगरी’ में हैं।

एक कदम आगे, दो कदम पीछे

जुलाई, 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘आरक्षण’ मूलभूत अधिकार नहीं है। फरवरी, 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण मूलभूत अधिकार नहीं है। महाराष्ट्र में स्थानीय निकायों से संबंधित मामले में मार्च में कोर्ट ने फिर व्यवस्था दी कि आरक्षण वैधानिक अधिकार तो है लेकिन यह संवैधानिक अधिकार नहीं है। इससे पहले, अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में जाटों को शामिल करने के फैसले को हटाते हुए कोर्ट ने व्यवस्था दी कि सरकार को ‘स्वयंभू सामाजिक पिछड़े वर्ग या उन्नत वर्गों के विचार’ पर नहीं जाना चाहिए कि वे ‘कम भाग्यशाली लोगों’ के अंदर श्रेणीगत किए जाने योग्य हैं या नहीं। यह स्वीकार करते हुए कि जातिगत भेदभाव का प्रमुख कारण बना हुआ है, कोर्ट ने कहा कि जाति किसी वर्ग के पिछड़ेपन के लिए ‘एकमात्र कारण’ नहीं है। इसने पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए ‘नए आचार, तरीके और पैमाने’ बनाने की सलाह दी।

कुछ आंकड़े आंखें खोलने वाले हैं। 2019 में सरकार ने विश्वविद्यालयों में विभागवार आरक्षित पदों का आंकड़ा जमा करवाया। सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय की रिपोर्ट में बताया गया कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों द्वारा शिक्षण वाले पदों के लिए जो विज्ञापन जारी किए गए, उनमें सिर्फ 2.5 प्रतिशत पद अनुसूचित जातियों के लिए थे, अनुसूचित जनजाति के लिए कोई पद नहीं था और ओबीसी के लिए 8 प्रतिशत पद थे। एडमीशन, स्कॉलरशिप वगैरह को लेकर स्थिति कितनी विषम है, इसका एक उदाहरण। केंद्र सरकार के शिक्षा बजट में स्कॉलरशिप फंड में इतनी अधिक कटौती की गई कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष एस के थोराट ने जोड़-घटाव कर बताया कि कटौती और भुगतान में देर से करीब 50 लाख दलित विद्यार्थी प्रभावित हुए। केंद्रीय सिविल सेवाओं और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में नौकरियां निरंतर कम ही होती जा रही हैं।


2014 में यूपीएससी ने 1,236 उम्मीदवारों को चुना था। 2018 में यह संख्या 40 प्रतिशत तक गिरकर 759 हो गई है। 2003 में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की संख्या 32.69 लाख थी। 2012 में यह कम होकर 26.30 लाख हो गई। केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में भी नौकरयों की संख्या 2011 में 14.86 लाख थी जो 2014 में घटकर 14.86 लाख हो गई। ऐसे में, इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि 2012 में केंद्र सरकार में दलित कर्मचारियों की संख्या 4.55 लाख ही रह गई थी। ऐसी आशंका है कि उसके बाद से इस संख्या में और कमी आई होगी। प्राइवेट सेक्टर से सरकारी सेवाओं में लैटरल इंट्री ने भी आरक्षित श्रेणियों को प्रभावित किया है। फरवरी, 2019 में संयुक्त सचिवों के 10 पदों को भरने के लिए 89 आवेदकों को छांटा गया। इन लोगों का निजी क्षेत्र के 6,000 उम्मीदवारों में से चयन किया गया था। इस प्रक्रिया में कोटे की कोई शर्त नहीं थी। उसके बाद इस रास्ते से होने वाली नियुक्ति की संख्या काफी बढ़ गई है।

इस प्रक्रिया के संवैधानिक और नैतिक होने पर सवाल उठाए जा रहे हैं। इंडिया टुडे (हिंदी) के संपादक रहे दलित एक्टिविस्ट दिलीप मंडल ने एक न्यूज चैनल पर डिस्कशन के दौरान कहा कि दुनिया भर में कहीं भी नौकरशाही में इस किस्म की हाइब्रिड व्यवस्था नहीं है। उनका कहना है कि कथित तौर पर विषय विशेषज्ञ को निजी क्षेत्र से लाना भ्रम और अस्पष्टता को बढ़ावा देना होगा क्योंकि समझा जा सकता है कि वह व्यक्ति अपने उद्योग के हितों का प्रभावी तरीके से प्रतिनिधित्व करेगा। वह यह भी कहते हैं कि इस तरह के विषय विशेषज्ञों का उस तरह से उत्तरदायित्व तो होगा नहीं जो कॅरियर नौकरशाह का होता है और ये लोग सार्वजनिक नीति पर प्रभाव डालने के बाद निजी क्षेत्र में वापस हो जाएंगे।

निजी क्षेत्र में कोटे का मुद्दा

नरेंद्र मोदी सरकार जिस तरह सब कुछ निजी क्षेत्र को सौंपती जा रही है, उसके बाद स्वाभाविक तौर पर इस क्षेत्र में भी आरक्षण व्यवस्था लागू करने की मांग तेज होती जा रही है। वैसे, यह मांग पहले से ही होती रही है। पूर्व सांसद उदित राज का कहना है कि 2004 में यूपीए ने इसे अपने चुनाव घोषणा पत्र में भी शामिल किया था। यूपीए सरकार ने इस मुद्दे पर अध्ययन के लिए मंत्रियों का समूह (जीओएम) भी गठित किया था। एसोचैम, सीआईआई और फिक्की-जैसी औद्योगिक इकाइयों ने इस मुद्दे को भिन्न ढंग से निबटने की अनुमति देने के लिए सरकार के पास आवेदन भी दिए थे। अधिकारियों की एक समन्वय समिति 2006 में बनाई गई। सरकार ने एक सवाल के जवाब में 2019 में राज्यसभा में बताया कि समिति की बैठक तब से आठ बार हो चुकी है और उसने सिफारिश की है कि निजी क्षेत्र द्वारा ऐच्छिक कार्रवाई सबसे अच्छा उपलब्ध तरीका है।

औद्योगिक संस्थाओं ने दलितों, आदिवासियों और ओबीसी के लिए स्कॉलरशिप देने, व्यावसायिक पाठ्यक्रम तथा उद्यमिता विकास कार्यक्रम चलाने का प्रस्ताव किया था। लाभ पहुंचाने वालों की संख्या देते हुए ये संस्थाएं सरकार को हर साल सूचनाएं देती हैं लेकिन यह नहीं पता है कि उनमें से कितनों को निजी क्षेत्र में समुचित नौकरी मिल जाती है। वैसे भी, लाभ कमाने के खयाल से निजी क्षेत्र लोगों को रखने की जगह ऑटोमेशन, रोबोटिक्स और आर्टिफिशयल इंटेलिजेन्स वगैरह का ज्यादा उपयोग करने पर जोर दे ही रहा है।


पत्रकार और दलित एक्टिविस्ट अनिल चमड़िया इन्हीं सब कारणों से आशंकित हैं। वह सवाल उठाते हैं कि जब संवैधानिक गारंटी सरकारी क्षेत्र में ’आरक्षण’ सुनिश्चित करने में विफल रही है, तो निजी क्षेत्र में आरक्षण की क्या आशा रखी जा सकती है। वह कहते हैं कि आरक्षण को क्रमिक ढंग से कमजोर किया जाता रहा है। वह कहते हैं कि ‘संविधान कहीं भी आरक्षण को सीमित करने की बात नहीं कहता लेकिन यह कहते हुए कृत्रिम सीलिंग लगा दी गई है कि आरक्षण व्यवस्था कुछ खास प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ाई जा सकती। कथित उच्च जातियां पूरी आबादी की 16 प्रतिशत हैं और वे शैक्षिक संस्थाओं की सीटों और नौकरियों में 50, 60 या 70 प्रतिशत तक पा सकती हैं लेकिन दलितों और ओबीसी को वह कोटा भी नहीं मिल सकता जिसकी उन्हें गारंटी देने की बात की जाती है।’

चिंता हो भी, तो क्यों?

बीजेपी के कई नेता और आरएसएस से जुड़े लोग जब-तब आरक्षण से पीछा छुड़ा लेने की बातें करते रहते हैं। फिर भी, चुनावों में तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। लोकनीति-सीएसडीएस अध्ययनों के मुताबिक, 2019 आम चुनावों में बीजेपी को 33.5 प्रतिशत दलित वोट और अनुसूचित जाति के 44 प्रतिशत वोट हासिल हुए। यूपी में गरीब दलितों और गैर यादव ओबीसी लोगों ने भी बीजेपी को बड़ी संख्या में वोट दिए। इस संदर्भ में दक्षिण एशिया के समाज पर गहरा अध्ययन करने वाले फ्रांसीसी राजनीति विज्ञानी क्रिस्टॉफ जेफ्रेलॉट की यह बात सही लगती है कि दलितों में एकता लाने की जगह कोटा व्यवस्था ने उन्हें वस्तुतः विभाजित कर दिया है और उनमें विद्वेष भर दिया है। वह मानते हैं कि कुछ दलित और ओबीसी ‘जातियों’ ने कोटा व्यवस्था से तुलनात्मक तौर पर अधिक लाभ उठाया है जिससे अन्य लोगों में गुस्सा भर गया है। लगता है कि बीजेपी ने यूपी में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को लुभाकर इसी गुस्से का फायदा उठाया।

ऐसे में, लगता यही है कि आरक्षण-व्यवस्था कमजोर करते-करते धीरे-धीरे खत्म ही कर दी जाएगी। देखना सिर्फ यह है कि आरएसएस से पढ़े-सीखे उच्च वर्णीय व्यवस्था वाले बीजेपी नेता, आखिर, इसमें कितना वक्त लेते हैं।

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Published: 16 Mar 2021, 11:18 AM