राम राज्य रथ यात्रा के जरिये ‘राम’ को अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल कर रही है बीजेपी

महत्वपूर्ण बात है कि इस यात्रा के उद्घाटन के समय बीजेपी या वीएचपी का कोई भी बड़ा नेता मौजूद नहीं था। यात्रा को 24 घंटे बीत चुके हैं और बीजेपी शासित यूपी में इसको बहुत ठंडी प्रतिक्रिया मिली है।

फोटोः सोशल मीडिया
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शरत प्रधान

28 साल पहले लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी चर्चित रथयात्रा की शुरूआत कर बीजेपी के आश्चर्यजनक उभार का रास्ता खोल दिया था। धर्म की राजनीति ने दक्षिणपंथी पार्टी के लिए जादू की तरह काम किया और देखते ही देखते तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की जाति पर आधारित राजनीति से यह आगे बढ़ गई, जिसे उन्होंने मंडल आयोग की अनुशंसाओं को लागू कर स्थापित किया था।

फिलहाल, जब देश भर में बीजेपी की स्थिति मजबूत है, तब इसके सामने सबसे बड़ी चुनौती यह खड़ी है कि क्या पार्टी अपने जबरदस्त समर्थन आधार को बचा कर रख पाएगी, जबकि एक साल के भीतर ही लोकसभा चुनाव होने वाले हैं।

ध्रवीकरण की अपनी राजनीति को बचाए रखने के लिए कई तरह के जोड़-तोड़ करने के बाद पार्टी के बड़े नेताओं को लग रहा है कि ‘राम’ की पुरानी राजनीति की तरफ लौटना सही होगा ताकि 2019 में दुबारा नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने का रास्ता साफ हो सके। यह खुद नरेंद्र मोदी के बार-बार दुहराए गए नारे ‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘नए भारत’ के निर्माण के वादों से अलग है।

बीजेपी के उच्च नेतृत्व की तरफ से लगातर यह दावे किए जा रहे हैं कि 41 दिन लंबी राम राज्य रथ यात्रा से उसका कोई लेना-देना नहीं है, जिसे 13 फरवरी को तमिलनाडू के रामेश्वरम तक की 6000 किलोमीटर की यात्रा के लिए रवाना किया गया है। यात्रा के आयोजकों के आधिकारिक प्रवक्ता आचार्य मनादि हरि ने कहा, “यह यात्रा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो संगठनों – विश्व हिंदू परिषद् और मुस्लिम राष्ट्रीय मंच द्वारा आयोजित की जा रही है।”

उनका बयान पहले से सोच-समझकर तय किया हुआ लग रहा था, क्योंकि वे लगातार ये दावा कर रहे थे कि यात्रा के पीछे कोई राजनीति नहीं है। इस दौरान बीजेपी के प्रवक्ता सभी को यह बताने में लगे रहे कि यात्रा का मकसद राम मंदिर और राम राज्य को लेकर लोगों में जागरूकता पैदा करना है।

लेकिन, वे यह बताने में कामयाब नहीं हुए कि ऐसी जागरूकता की क्या जरूरत थी। जिन 6 राज्यों से यात्रा गुजरने वाली है, उनमें से तीन में बीजेपी सत्ता में है, जहां पार्टी आसानी से अच्छे शासन के जरिये राम राज्य ला सकती है, जिसकी उन राज्यों में काफी कमी है। क्या उनका मतलब यह है कि राम राज्य सिर्फ राम मंदिर के निर्माण से ही आएगा?

हकीकत यह है कि यात्रा यूपी, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडू के जिन हिस्सों से गुजरेगी, उनमें कम से कम 224 लोकसभा क्षेत्र आते हैं। इसलिए, बीजेपी नेतृत्व भगवान राम के नाम का गलत इस्तेमाल कर लोगों की भावनाएं भड़काने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहती।

यह पूरी गतिविधि उन समूहों को साथ लाने में भी काम आ सकती है जिनके जरिये रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का कोर्ट के बाहर निपटारा हो सकता है। 14 मार्च से सुप्रीम कोर्ट इस मामले की आखिरी सुनवाई करने वाला है। साफ है कि हिंदू समूहों के भीतर मुस्लिम समूहों की तुलना में कोर्ट के बाहर निपटारे के लिए ज्यादा उतावलापन है।

वास्तव में, जब से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यह घोषणा की है कि नह कोर्ट के आदेश का इंतजार करेगा और हर स्थिति में उसे मानेगा, कई हिंदू और कुछ मुस्लिम समूह इस मामले के निपटारे के लिए समझौता करने के लिए आतुर नजर आ रहे हैं। इसके कारण छिपे हुए नहीं हैं। चूंकि कोर्ट के फैसले का अंदाजा लगा पाना मुश्किल है, हिंदू समूहों को कोर्ट के बाहर होने वाला निपटारा ज्यादा सही लगता है, जो साफ तौर पर मंदिर के पक्ष में है, जिसकी मांग तब से जारी है जब 16वीं सदी के बाबरी मस्जिद को गिराया गया और उसकी जगह विवादित स्थल पर 6 दिसंबर 1992 को एक अस्थायी मंदिर बना दिया गया।

शिया वक्फ बोर्ड और उसके प्रमुख वसीम रिजवी इसकी पूरी गतिविधि का एक परिणाम हैं। उन्होंने एक कदम आगे बढ़ाते हुए राम मंदिर के निर्माण के लिए विवादित जमीन को देने का प्रस्ताव तक रख दिया, जबकि वह इस मुकदमे में हिस्सेदार भी नहीं हैं। उनकी संदेहास्पद छवि उस वक्त तार-तार हो गई जब उन्होंने उस जमीन को देने के लिए उतावलापन दिखाना शुरू किया, जिससे शिया वक्फ बोर्ड का कोई लेना-देना नहीं है।

रिजवी की तरह ही जो कुछ और लोग कोर्ट के बाहर निपटारे की वकालत कर रहे हैं, उनका भी इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है। यहां तक कि श्री श्री रविशंकर जो कोर्ट के बाहर समझौते के लिए काफी पहल कर रहे हैं, उनकी भी कानूनी विवाद में कोई भूमिका नहीं है। कोर्ट के बाहर होने वाला कोई समझौता 2019 के लोकसभा चुनाव पर असर डाल सकता है और कई अलग-अलग समूहों के पहल में दिख रही जल्दबाजी से यह साफ नजर आता है। दिलचस्प बात यह है कि कोई भी हिंदू समूह ऐसे किसी समझौते के लिए तैयार नहीं दिखता, जिसमें मंदिर का दावा खत्म किया जा सकता है। वे ऐसे किसी कोर्ट के आदेश के लिए भी तैयार नहीं दिखते, जो मंदिर के दावे के खिलाफ हो। दूसरी तरफ, मुस्लिम समूहों ने बार-बार यह कहा है कि वे कोर्ट के आदेश का पालन करेंगे, चाहे वह मस्जिद के पक्ष में हो या खिलाफ।

जैसे ही कोर्ट के बाहर समझौते का खोखला प्रयास खत्म होता दिखा, राम राज्य रथ यात्रा का पूरा मामला सामने आ गया। अयोध्या की आग को जलाए रखना इसका साफ मकसद है।

महत्वपूर्ण है कि बीजेपी या वीएचपी का कोई भी बड़ा नेता यात्रा के उद्घाटन के समय मौजूद नहीं था और एक छुटभैये वीएचपी नेता चंपत राय ने इसे हरी झंडी दिखाई। शुरूआत में, भगवाधारी यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ यात्रा हरी झंडी दिखाने वाले थे। बाद में, स्थानीय बीजेपी सांसद लल्लू सिंह का नाम मुख्य अतिथि के तौर पर सामने आया। वह चुपचाप इस पूरे ताम-झाम से अलग रहे और तब पहुंचे जब यात्रा कारसेवकपुरम से निकल चुकी थी। यह वही जगह है जहां मंदिर निर्माण के लिए तराशे गए गुलाबी पत्थर जमा कर रखे गए हैं।

बीजेपी और वीएचपी के बड़े नेताओं ने इस कार्यक्रम से खुद को अलग रखा, क्योंकि उच्च नेतृत्व इस बात को लेकर निश्चित नहीं है कि इस लंबी यात्रा को लोगों की कैसी प्रतिक्रिया मिलेगी। वे अभी थोड़ा इंतजार कर इसे देखना चाहते थे। इस बीच, 24 घंटे में इस पूरी गतिविधि की बीजेपी शासित यूपी में बहुत ठंडी प्रतिक्रिया हुई है। यह वक्त बताएगा कि यह यात्रा राजनीतिक तौर पर भगवा बिग्रेड को उतना फायदा पहुंचा पाएगी, जिसकी उन्हें उम्मीद है।

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