अतीत में लिए फैसलों की काली छाया से भयभीत बीजेपी, पीएम मोदी तक अपनी राजनीतिक पूंजी का जिक्र करने से कर रहे परहेज

केंद्र में अपने दूसरे कार्यकाल के पहले साल में बीजेपी और पीएम मोदी ने जो राजनीतिक पूंजी कमाई थी, वह सब खर्च हो चुकी है। हालत यह है कि अतीत में लिए फैसलों का जिक्र तक करने से बीजेपी परहेज कर रही है। उसे इन फैसलों की काली छाया डरा रही है।

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आकार पटेल

बीजेपी सरकार 2019 के चुनावों में जबरदस्त ऊर्जा और गतिमान शक्ति के साथ उतरी थी। मई 2019 में उसे मिली जीत न सिर्फ निर्णायक थी बल्कि 2014 के मुकाबले प्रधानमंत्री को अधिक सीटें हासिल हुईं। इसी जनादेश के दम पर और इस विचार के साथ कि बदलाव के लिए लोग उनके साथ हैं, प्रधानमंत्री ने इतने वर्षों में कमाई अपनी राजनीतिक पूंजी खर्च करना शुरु कर दी। करीब एक साल तक यानी जून 2020 तक यह पूंजी खर्च होती रही और इसके बाद यह हवा हो गई।

इन 12 महीनों के दौरान काफी कुछ हुआ और इसके परिणाम और प्रभाव आज भी देश पर हावी हैं। आइए देखते हैं कि कैसे क्या-क्या हुआ।

25 जुलाई को लोकसभा में तीन तलाक बिल पास हुआ। वैसे सुप्रीम कोर्ट पहले ही तीन तलाक को अवैध घोषित कर चुका था, लेकिन इस बिल के जरिए इसे अपराध बना दिया गया। इसके साथ ही कई बीजेपी शासित राज्यों ने फ्रीडम ऑफ रिलीजन (धार्मिक स्वतंत्रता) कानून बनाकर हिंदू और मुसलमानों के बीच अंतरधार्मिक विवाह पर पाबंदी लगा दी। इसे एक तरह से कथित लव जिहाद के खिलाफ कदम बताया गया।

कुछ दिनों बाद 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया। बीजेपी के लिए यह एक अहम लम्हा था। 31 अगस्त को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनपीआर) को असम में प्रकाशित किया गया और इसके साथ ही उन लोगों को जेल में डालने की प्रक्रिया शुरु कर दी गई जो लोग यह साबित नहीं कर पाए कि उनके पुरखे 1971 से पहले ही असम में रह रहे थे।

कुछ सप्ताह बाद ही 9 नवंबर को बीजेपी के लिए एक और उत्साही क्षण आया। सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले में फैसला सुनाते हुए विवादित जमीन मंदिर को सौंप दी और बीजेपी के तीन दशक पुराने आंदोलन का पटाक्षेप कर दिया।

अगले महीने ही 9 दिसंबर को नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लोकसभा से पास कर दिया गया। पाठकों को याद होगा कि किस तरह केंद्रीय गृहमंत्री ने इसकी क्रोनोलॉजी समझाते हुए कहा था कि पहले सीएए आएगा और उसके बाद देशव्यापी एनआरसी लागू होगा।


इसके बाद बीजेपी की कथित उपलब्धियों का चरम उस समय हुआ जब कुथ सप्ताह बाद ही तब के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप अहमदाबाद में नरेंद्र मोदी स्टेडियम के उद्घाटन में पहुंचे। और शायद इसके साथ ही बीजेपी के तरकश के सारे तीर खत्म हो चुके थे।

सीएए के खिलाफ देश भर में आंदोलन हुए और विश्व स्तर पर इसके खिलाफ जबरदस्त आक्रोश देखा गया। अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान ही दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़के और साफ हो गया कि बीजेपी का व्यवस्था पर दिल्ली तक में पूर्ण नियंत्रण नहीं है।

इसके अगले महीने ही देश भर में कोविड के नाम पर लॉकडाउन लगा दिया गया। इसके बारे में आम धारणा यह रही कि यह दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन था। लेकिन लॉकडाउन के बावजूद कोविड संक्रमण की रफ्तार में कोई कमी नहीं आई। कुछ ही ही सप्ताह बाद लद्दाख में चीन के साथ भीषण लड़ाई हुई जिसमें हमारे 20 सैनिकों की शहादत हुई। इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर भारत के नजरिए में बड़ा बदलाव आया और फोकस परंपरागत रूप से पश्चिम और पाकिस्तान से हटकर पूर्व की तरफ हो गया। हमें आज तक नहीं पता है, यहां तक कि विदेश मंत्री भी नहीं समझा पाए कि आखिर चीन ने ऐसा किया क्यों था।

उसी साल 5 जून को, यानी सरकार की सत्ता में वापसी के एक साल बाद एक बड़ा कदम उठाते हुए कृषि कानूनों का अध्यादेश ले आया गया। इसके खिलाफ किसानों के आंदोलन ने सरकार की गतिशीलता को विराम दे दिया।

कश्मीर में यूं तो अनुच्छेद 370 खत्म कर दिया गया लेकिन बीजेपी को नहीं पता था कि इसके बाद क्या करना है। और उसे अभी भी शायद ही समझ आ रहा है कि क्या किया जाए। दक्षिण एशिया में शायद कश्मीर ही ऐसी जगह है जहां कोई चुनी हुई सरकार नहीं है। अनुच्छेद 370 हटने के तीन साल और विधानसभा भंग किए जाने के 4 साल बाद भी अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडित उस रवैये के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं जो उनके साथ किया जा रहा है।

अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाले कानून भी पचड़े में पड़े हुए क्योंकि उन्हें बनाने और लागू करने से पहले शायद दिमाग लगाया ही नहीं गया। इसी महीने कानूनी खबरों की जानकारी देने वाली एक वेबसाइट की हेडलाइन थी, “मध्‍य प्रदेश धर्म स्‍वतंत्रता अधिनियम: हाईकोर्ट ने अंतर-धार्मिक जोड़ों को कलेक्टर के सामने धर्मांतरण की घोषणा करने के प्रावधान को 'प्रथम दृष्टया असंवैधानिक' पाया”। गुजरात हाईकोर्ट ने भी इस कानून के खिलाफ ऐसा ही आदेश सुनाया।


इसी तरह विवादित कृषि कानूनों को भी प्रधानमंत्री ने माफी मांगते हुए तब वापस लेने की घोषणा की जब देश भर में इन कानूनों के खिलाफ किसान लामबंद होकर सड़को पर उतर आए। सीएए को भी तीन साल हो गए हैं, लेकिन सरकार किसी न किसी कारण से इसे लागू करने से बचती रही है। देशव्यापी एनआरसी की तो अब कोई चर्चा तक नहीं होती।

आखिर में, अर्थव्यवस्था की बात करें तो, इस अवधि के दौरान इस बारे में कुछ अच्छी बात करने को है ही नहीं। सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि नौ तिमाहियों से देश की जीडीपी धीमी हो गई है, यानी जनवरी 2018 के शुरु होकर अगले करीब सवा दो साल तक। कोविड महामारी ने अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंची और अर्थव्यवस्था को पहले से हो रहे नुकसान पर पड़े पर्दे को नोंच कर फेंक दिया। प्रति व्यक्ति  जीडीपी में बांग्लादेश हमसे आगे निकल गया तो इसका कारण सिर्फ कोविड महामारी के दौरान कुप्रबंधन नहीं था। बल्कि हमारा पड़ोसी तो 2015 से ही हमसे होड़ लेकर काफी मेहनत से आगे बढ़ रहा था, और संकेत मिलने लगे थे कि अगर हमने होश नहीं संभाला तो जिस वक्र रेखा पर वह आगे बढ़ रहा है वह हमें पीछे छोड़ ही देगा। और ऐसा ही हुआ। सरकारी आंकड़ों से मिला बेरोजगारी का आंकड़ा बताता है कि देश में इस दौरान बिना काम के लोगों की संख्या 4 साल के सर्वाधिक स्तर पर थी।

2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के घोषणा प्तर में कहा गया था कि सरकार के सुशासन का बड़ा संकेतक यह है कि वह विश्व बैंक की डूइंग बिजनेस (पहले इसे ईज ऑफ डूइंग बिजनेस कहा जाता था) की रैंकिंग में भारत की स्थिति सुधरी है। लेकिन जब सामने आया कि कुछ देश अपनी स्थिति को बेहतर दर्शाने के लिए प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं तो दुर्भाग्य से 2020 में इस रैंकिंग को बंद कर दिया गया।

उस एक साल की कथित तीव्रगामी रफ्तार के अलावा शासन के स्तर पर दिखाने के लिए कुछ और है नहीं। कोविड की दूसरी लहर ने उस विश्वसनीयता को भी बट्टा लगा दिया जो इसने इस साल कमाई थी, और शायद यही कारण था कि प्रचार और पब्लिसिटी के बिना सांस तक न लेने वाले प्रधानमंत्री पूरे 20 दिन तक लोगों के सामने ही नहीं आ पाए।

यही वे सारे कारण हैं कि राजनीतिक प्रचार अभियानों में सरकार के शासन और प्रदर्शन की चर्चा के बजाए सिर्फ करिश्मे पर भरोसा कर रही है बीजेपी। अतीत में जो कुछ हुआ वह बहुत पुराना तो नहीं है, लेकिन उसका जिक्र भी नहीं किया जा रहा। यहां तक कि नोटबंदी तक पर अब सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई शुरु कर दी है, हालांकि बीजेपी चाहती है कि इसे भुला ही दिया जाए।

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