निशिकांत दुबे जैसे बीजेपी नेता यूं ही नहीं करते हुंआ-हुंआ!

बीजेपी नेता जिस तरह देश की सबसे बड़ी अदालत पर हमलावर हैं, उसकी हालिया वजह वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां हैं। नौकरशाही और मीडिया- दोनों पर प्रभावी ढंग से काबू कर लेने के बाद सरकार के लिए न्यायपालिका अंतिम मोर्चा है।

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शरद गुप्ता

बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे द्वारा सुप्रीम कोर्ट और भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना पर निशाना साधना सरकार द्वारा ‘अड़ंगे खड़ी करने वाली न्यायपालिका को काबू करने’ के बड़े लक्ष्य का हिस्सा है। 

पिछले 12 सालों में न्यायपालिका में एक साफ रुख दिखा है- अहम मामलों की सुनवाई के दौरान यह केन्द्र  सरकार के खिलाफ तीखी टिप्पणियां करती है, लेकिन फैसला ज्यादातर केन्द्र सरकार के पक्ष में सुनाती है। राम जन्मभूमि, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति, राफेल सौदा, कश्मीर में अनुच्छेद-370 को हटाने या नोटबंदी से संबंधित मामलों में यही साफ-साफ दिखा। अगर इसके बाद भी सत्तारूढ़ पार्टी न्यायपालिका को निशाना बनाना चाहती है, तो सीधा-सा मतलब है कि वह इस दिखावे को भी खत्म करना चाहती है- और एक पूरी तरह से अनुकूल (यानी पक्षपातपूर्ण) न्यायपालिका के पक्ष में है।

वैसे भी, पार्टी ने पहले ही पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा में शामिल कर लिया है और एक अन्य पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दादाशिवम को राज्यपाल नियुक्त किया गया। बीजेपी का हालिया रुख बताता है कि वह न्यायपालिका से किसी भी तरह की ‘असहमति’ बर्दाश्त नहीं करेगी।

नौकरशाही और मीडिया- दोनों पर प्रभावी ढंग से काबू कर लेने के बाद न्यायपालिका उसके लिए अंतिम मोर्चा बची है। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और अनुच्छेद 370 को हटाने जैसे फैसलों के जरिये लागू किए गए भाजपा के हिन्दुत्व एजेंडे को न्यायिक जांच का सामना करना पड़ा है। न्यायिक समीक्षा को काबू करना यह सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका है कि विवादास्पद नीतियां पारित हो जाएं। मजबूत संसदीय बहुमत के साथ भाजपा अपने केन्द्रीकृत शासन मॉडल को ध्यान में रखते हुए कार्यकारी शक्ति पर किसी भी नियंत्रण को और कम करना चाहती है।

सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम 2015 में किए गए संवैधानिक संशोधन को खारिज कर दिया था, जिसका उद्देश्य न्यायिक नियुक्तियों का राजनीतिकरण था। तब सरकार ने इसे ‘न्यायिक वीटो’ करार दिया। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कॉलेजियम प्रणाली की जगह एनजेएसी को लाने की बात बार-बार बात की है। सुप्रीम कोर्ट ने आधार अधिनियम के प्रावधानों को भी आंशिक रूप से निरस्त कर दिया, जिसे सरकार ने नीतिगत मामलों में अदालती हस्तक्षेप करार देते हुए इसकी आलोचना की।

2018 में, जज लोया की रहस्यमयी मौत की जांच पर सवाल उठाने वाली याचिकाओं को खारिज किए जाने के बाद बीजेपी ने सुप्रीम कोर्ट पर राजनीतिक पक्षपात का आरोप लगाया था। 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों के बीच तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को निलंबित कर दिया जिससे सरकार खफा हो गई, हालांकि बाद में इन कानूनों को वापस ले लिया गया। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉण्ड के खिलाफ फैसला सुनाया और इसे चंदा लेने की भाजपा की अपारदर्शी व्यवस्था के लिए झटके के रूप में देखा गया।

बीजेपी नेता जिस तरह राशन-पानी लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत पर पिल पड़े हैं, उसकी हालिया वजह वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां हैं। निशिकांत दुबे ने अदालत पर ‘धार्मिक युद्ध भड़काने’ का आरोप लगाया और देश में ‘गृह युद्ध’ शुरू करने के लिए सीजेआई को दोषी ठहराया।


16 अप्रैल को वक्फ संशोधन अधिनियम पर सुनवाई करते हुए अदालत ने कुछ प्रावधानों पर सवाल उठाए जिसके बाद सरकार को कहना पड़ा कि वह अगली सुनवाई तक इस पर कार्यान्वयन रोक रही है। इसके बाद दुबे ने आरोप लगा दिया कि न्यायपालिका अपने दायरे का अतिक्रमण कर रही है क्योंकि वह राष्ट्रपति और संसद को कैसे निर्देश दे सकती है। दुबे ने समयसीमा निर्धारित करने के न्यायपालिका के अधिकार पर भी सवाल उठाया और तर्क दिया कि कानून बनाना संसद का विशेषाधिकार है- सुप्रीम कोर्ट अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा है। उन्होंने बड़े ही भड़काऊ अंदाज में कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट को ही कानून बनाना है, तो संसद और विधानसभाओं को बंद कर देना चाहिए। 

दुबे ने यह भी सवाल उठाया कि मुख्य न्यायाधीश उन्हें नियुक्त करने वाले प्राधिकारी, यानी भारत के राष्ट्रपति के अधिकारों को कैसे रोक सकते हैं? वैसे, सोचने वाली बात है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति भी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा की जाती है। और दुबे के तर्क के मुताबिक तो चुनाव आयोग को भी चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री के किसी भी गलत काम पर चुप रहना चाहिए, क्योंकि प्रधानमंत्री ही उसकी  नियुक्ति करने वाला प्राधिकारी है। 

बहरहाल, बीजेपी ने दुबे की टिप्पणी से खुद को अलग कर लिया है। पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने दुबे की बातों को उनके ‘व्यक्तिगत विचार’ करार दिया। लेकिन क्या इतना ही काफी है? क्या पार्टी को दुबे के खिलाफ कार्रवाई नहीं करनी चाहिए थी? आखिर बीजेपी एक जैसे मामलों पर दो तरह के मानक क्यों अपनाती है? जब ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने उत्तराधिकार कर या भारत-चीन रिश्तों पर टिप्पणियां कीं तो भाजपा ने जोर देकर कहा कि ये उनके निजी विचार नहीं थे बल्कि वे कांग्रेस के विचारों को ही प्रतिबिंबित कर रहे थे। पित्रोदा के पार्टी पद से इस्तीफा देने के बाद भी हमला जारी रहा।

बीजेपी ने विपक्ष और संविधान का अपमान करने के काम पर पूरी फौज लगा रखी है। इसके लिए वह गिरिराज सिंह, नीतीश राणे, प्रज्ञा सिंह ठाकुर, अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा, अनंत हेगड़े, टी. राजा सिंह जैसों को बढ़ावा देती है - ये सब भाजपा के ‘विषैले नेताओं की नर्सरी’ के उत्पाद हैं। जब भी वे कोई हंगामा खड़ा करते हैं, उन्हें पदोन्नति दी जाती है। इनमें से ज्यादातर केन्द्रीय या राज्य मंत्रिमंडल का हिस्सा हैं। इनमें से ज्यादातर विवादों पर मोदी जुबान सिल लेते हैं। कभी-कभार जब वह कोई बयान देते भी हैं- जैसे कि प्रज्ञा ठाकुर के मामले में उन्होंने कहा कि ‘मैंने उन्हें अपने दिल की गहराई से माफ नहीं किया है’ - तो यह सिर्फ बचाव न करने योग्य मामलों में भी उनके बचाव को ही दिखाता है।

निशिकांत दुबे भी कोई अपवाद नहीं। हकीकत यह है कि वह इस ब्रिगेड के प्रमुख नेता के रूप में उभरे हैं। तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक सलाहकार के.एन. गोविंदाचार्य के निजी सहायक के रूप में शुरुआत करने वाले दुबे राजनीति में आने से पहले एक शिपिंग कंपनी में काम करते थे। वह झारखंड के गोड्डा से चौथी बार सांसद चुने गए हैं। उनके अपने चुनावी हलफनामे के मुताबिक उन पर नौ आपराधिक मामले दर्ज हैं। उन्हें केन्द्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली, लेकिन बीजेपी उन्हें लोकसभा में होने वाली बड़ी बहसों में मुख्य वक्ता के तौर पर पेश करती रही है। वह कई प्रमुख संसदीय समितियों का भी हिस्सा हैं। उनकी याचिका पर ही तृणमूल कांग्रेस की तेज-तर्रार सांसद महुआ मोइत्रा की पिछली लोकसभा से सदस्यता समाप्त कर दी गई थी।


वक्फ (संशोधन) अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट के रुख ने दुबे को हिन्दुत्व ब्रिगेड के पोस्टर बॉय के रूप में उभरने का एक और मौका दिया है। सोशल मीडिया पर कट्टरपंथियों के समर्थन से वह इस कदर उत्साहित हैं कि इस लेख को लिखे जाने के समय तक दुबे ने अपने सोशल मीडिया हैंडल से सुप्रीम कोर्ट और सीजेआई खन्ना के खिलाफ अपने आपत्तिजनक बयानों को नहीं हटाया था, जबकि उन पर अदालत की अवमानना ​​की कार्यवाही भी चल रही है। 

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी दुबे जैसी ही भावनाएं व्यक्त की हैं, खास तौर पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति के लिए लंबित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए समय सीमा तय करने के बाद। धनखड़ ने इसे न्यायिक अतिक्रमण बताते हुए इसकी आलोचना की, संवैधानिक पदाधिकारियों को निर्देश देने के अदालत के अधिकार पर सवाल उठाया और न्यायपालिका को ‘सुपर संसद’ के तौर पर काम करने के खिलाफ चेताया। एक उच्च पदस्थ संवैधानिक हस्ती के रूप में, धनखड़ का दुबे की भाषा बोलने से पता चलता है कि न्यायिक सत्ता को चुनौती देने के उद्देश्य से नैरेटिव खड़ा करने का एक समन्वित प्रयास हो रहा है जो इस मुद्दे के राजनीतिक महत्व को बढ़ा देता है।

अब गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। उसे तय करना है कि वह कायरता के साथ समर्पण करना चाहता है या फिर मजबूती से लड़ाई लड़ना चाहता है- जैसा कि उसने एनजेएसी अधिनियम के मामले में किया था।

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