कर्नाटक चुनाव के लिए टीपू सुल्तान को निशाने पर ले रही बीजेपी भ्रम में, फर्जीवाड़े से इतिहास नहीं बदलता

बीजेपी भूल रही है कि हैदर अली और टीपू सुल्तान ने न केवल 30 से ज्यादा सालों तक अंग्रेजों को दूर रखा बल्कि तब उनके पास दुनिया की सबसे अच्छी रॉकेट तकनीक थी। श्रीरंगपटम के पतन के बाद अंग्रेज कई रॉकेट अपने शाही शस्त्रागार ले गए और उनके समझने की कोशिश की।

दीवार पर उकेरे गए इस दुर्लभ चित्र में ऊपर बाएं कोने पर टीपू सुल्तान की सेना से दागे गए रॉकेट से गोला-बारूद से लदी अंग्रेजों की गाड़ी को तबाह होते दिखाया गया है। टीपू की सेना ने दूसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को हराया था।
दीवार पर उकेरे गए इस दुर्लभ चित्र में ऊपर बाएं कोने पर टीपू सुल्तान की सेना से दागे गए रॉकेट से गोला-बारूद से लदी अंग्रेजों की गाड़ी को तबाह होते दिखाया गया है। टीपू की सेना ने दूसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को हराया था।
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प्रबीर पुरकायस्थ

हैदर अली और टीपू सुल्तान का मैसूर साम्राज्य भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक कांटा था। हैदराबाद के निजाम और मराठा पेशवा के साथ के बावजूद अंग्रेजों को शुरू के तीन एंग्लो-मैसूर युद्धों में शिकस्त झेलनी पड़ी। चौथे युद्ध में ही अंग्रेजों को जीत नसीब हो सकी। 

आज टीपू के खिलाफ बीजेपी की लड़ाई अपेक्षाकृत छोटे उद्देश्य के लिए है: सिर्फ कर्नाटक चुनाव के लिए, न कि अंग्रेजों की तरह आधे उपमहाद्वीप के लिए। चूंकि टीपू को बदनाम करने में अंग्रेजों को नायक बनाने का जोखिम है, इसलिए यह ‘आविष्कार’ करना जरूरी था कि टीपू के खिलाफ कथित तौर पर दो गौड़ा एजेंटों ने युद्ध किया और उन्हें मार डाला। यानी, टीपू को अंग्रेजों ने नहीं बल्कि गौड़ों से हारना पड़ा था। यह बात इतिहास की किसी किताब में नहीं है। लेकिन बीजेपी या उसके सोशल मीडिया योद्धाओं को भला इससे क्या मतलब? वैसे भी, अभी तो निगाहें कर्नाटक चुनाव पर टिकी हैं।

बीजेपी भूल रही है कि हैदर अली और टीपू सुल्तान ने न केवल 30 से ज्यादा सालों तक अंग्रेजों को दूर रखा बल्कि तब उनके पास दुनिया की सबसे अच्छी रॉकेट तकनीक थी। यही वजह है कि हमें इस तरह के चरित्र को बौना बनाने की कोशिशों को लेकर होशियार रहना चाहिए।

यह वह दौर था जब तोपों में सुधार के साथ रॉकेट का सैन्य महत्व कम हो गया था। रॉकेट की रेंज कम थी और अपेक्षाकृत सटीकता की भी कमी थी। यहीं पर हैदर अली और टीपू सुल्तान की उन्नत रॉकेट तकनीक की बात आती है। यूरोप में रॉकेट की खोल के लिए कार्डबोर्ड या लकड़ी का इस्तेमाल होता था लेकिन मैसूर में लोहे की खोल का इस्तेमाल होता था। इसका उन्हें यह फायदा मिलता था कि इसमें बड़ी मात्रा में विस्फोटक भरे जा सकते थे और इससे रॉकेट की रेंज और विस्फोटक ताकत बढ़ जाती थी। मैसूर के रॉकेट के अंतिम छोर पर एक बांस या फिर तलवार को बांध दिया जाता था जिसका दोहरा फायदा होता था। एक, यह उड़ान को स्थिर रखने में मददगार होता था और इसके साथ ही इसकी चपेट में आकर दुश्मन के सैनिक घायल हो जाते।


हैदर अली और टीपू सुल्तान के नेतृत्व में मैसूर सेना के शस्त्रागार में इस तरह का रॉकेट प्रमुख हथियार बन गया था। ब्रिटिश सेना के लिए मैसूर के रॉकेट हमलों का मुकाबला करना मुश्किल हो गया था। उन्हें कहीं भी इस तरह के हथियार का सामना नहीं करना पड़ा था। रॉकेट के हमले से अंग्रेजी व्यूह रचना छिन्न-भिन्न हो जाती और यही वजह थी कि शुरू के तीन एंग्लो-मैसूर युद्धों में अंग्रेजों का हारना पड़ा। श्रीरंगपटम में चौथी और अंतिम लड़ाई में अंग्रेज जीत हासिल कर सके। 

उस समय दुनिया के दूसरी छोर पर अमेरिकी अपनी आजादी के लिए लड़ रहे थे और वे ब्रिटिश औपनिवेशिक युद्धों से अच्छी तरह वाकिफ थे। एंग्लो-मैसूर युद्ध फ्रांस और इंग्लैंड के बीच जोर-आजमाइश का अखाड़ा भी थे। इसी जोर-आजमाइश के दौरान एक ओर तो अमेरिका ने आजादी हासिल कर ली जबकि भारत अपनी आजादी खोकर ब्रिटिश उपनिवेश बन गया। फ्रांस ने अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन किया और भारत में मैसूर के साथ गठबंधन किया। अमेरिकी नेताओं ने मैसूर को एक सहयोगी के रूप में माना और 1812 में डेलावेयर के नौसैनिक युद्ध में अपने एक युद्धपोत का नाम हैदर अली रखा।

ब्रिटेन ने अमेरिका के केन्द्र में रहे अपने 13 उपनिवेशों को आजादी की लड़ाई जीतने दी क्योंकि उसके लिए भारत और उत्तरी अमेरिकी दोनों थिएटरों में एक साथ लड़ाई जारी रखना संभव नहीं था। उन्होंने एक सचेत निर्णय लिया कि कौन से उपनिवेश उनके साम्राज्य के लिए ज्यादा कीमती थे और किसे निकलने दिया जा सकता है। 

बहरहाल, आइए अब रॉकेट तकनीक की बात की जाए। यह रॉकेट ही हैं जो आज अंतरिक्ष यात्रियों को मंगल और चंद्रमा तक ले जाते हैं; मानसून, सूखे और चक्रवात जैसी मौसम संबंधी घटनाओं की निगरानी के लिए उपकरण ले जाते हैं; हम तक टीवी सिग्नल पहुंचाने का जरिया बनते हैं। निश्चित रूप से ये रॉकेट परमाणु बमों सहित एक से एक खतरनाक हथियारों के लिए प्राथमिक वाहन हैं। दुर्भाग्य है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी युद्ध और वाणिज्य से अटूट रूप से जुड़े हैं और रॉकेटरी कोई अपवाद नहीं।


तो टीपू के रॉकेटों ने युद्धों से परे दुनिया के लिए क्या किया? रोडम नरसिम्हा के 1985 के शोधपत्र ‘रॉकेट्स इन मैसूर एंड ब्रिटेन, 1750-1850 ए.डी.’ से अहम जानकारी मिलती है।सेरिंगपट्टम के पतन के बाद अंग्रेज कई रॉकेट वूलवर्थ स्थित अपने शाही शस्त्रागार ले गए और फिर इनकी रिवर्स इंजीनियरिंग की। रॉकेटरी परियोजना के प्रभारी विलियम कांग्रेव के मुताबिक ‘...सेरिंगपट्टम में अंग्रेजों को दुश्मन के गोलों या किसी भी दूसरे हथियार से ज्यादा नुकसान इन्हीं रॉकेटों से हुआ था।’ कांग्रेव का काम यह पता लगाना था कि आखिर मैसूर के रॉकेट यूरोपीय रॉकेटों की तुलना में इतने घातक क्यों थे और फिर उसी हिसाब से शाही सेना के लिए अधिक उन्नत रॉकेट बनाना।

कांग्रेव ने हमारे लिए ऐसे तमाम दस्तावेज और किताबें छोड़ी हैं जिनसे मैसूर के रॉकेट की खासियत का अंदाजा होता है। इसके बाद उन्हें मैसूर रॉकेट को सुधार कर बड़ी संख्या में उनके उत्पादन का काम सौंपा गया। इस तरह बनाए गए रॉकेट को ‘कांग्रेव रॉकेट’ के नाम से जाना गया। कांग्रेव ने नौसेना के लिए तोपों की जगह रॉकेट के इस्तेमाल के फायदे भी गिनाए। इसके अलावा मैदानी लड़ाई में बेशक तोप के गोले अधिक सटीकता से मार कर सकते थे लेकिन रॉकेटों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना आसान था।

अंग्रेजों ने ‘कांग्रेव रॉकेट’ का फ्रांस के खिलाफ व्यापक रूप से इस्तेमाल किया। इसका उपयोग वाटरलू के प्रसिद्ध युद्ध के विजेता आर्थर वेलेस्ली ने किया जो बाद में वेलिंगटन के ड्यूक बने। युद्ध चित्रों में भी इसे देखा जा सकता है। 1812 में हुई बाल्टीमोर की लड़ाई में भी अमेरिकी सेना के खिलाफ अंग्रेजों ने कांग्रेव रॉकेट का इस्तेमाल किया था। अमेरिका के  राष्ट्रगीत के पहले छंद की इन पंक्तियों पर गौर करें: 

और रॉकेट की लाल चमक, हवा में फटते बम,

रात भर सबूत देते रहे कि हमारा झंडा अभी वहीं है।


बहुत से लोग नहीं जानते हैं कि यहां जिन रॉकेटों का उल्लेख किया गया है, वे ‘कांग्रेव रॉकेट’ ही हैं। अमेरिकी राष्ट्रगीत को लिखने वाले फ्रांसिस स्कॉट ब्रिटिश जहाज पर रखे गए अमेरिकी कैदियों में से एक थे और उन्होंने बाल्टीमोर में फोर्ट मैकहेनरी की बमबारी देखी थी और इसलिए इन पंक्तियों को लिखा। 

यही वजह है कि भारत के रॉकेट मैन एपीजे अब्दुल कलाम जब नासा के वॉलॉप्स फ्लाइट स्टेशन गए तो वहां उन्हें टीपू सुल्तान के योगदान के निशान मिले। स्टेशन के मुख्य स्वागत कक्ष में टीपू द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ रॉकेटों के इस्तेमाल की एक पेंटिंग प्रदर्शित की गई है। वास्तविक इतिहास हमेशा गढ़े गए इतिहास से ज्यादा दिलचस्प होता है।

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