खरी-खरी: यूपी चुनावों में बीजेपी की चिंता- तमाम उकसावे के बाद भी आखिर भड़क क्यों नहीं रहे मुसलमान!

बाबरी मस्जिद की चोट खाने के बाद मुस्लिम समाज अब जोश नहीं, होश से काम लेने लगा है। समाज में जोश उत्पन्न करने वाले कट्टरपंथी मुल्ला एवं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी संस्थाओं की भी समाज में अब नहीं चल रही है। और इसी में मुस्लिम समाज की भलाई भी है।

सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

आप कहेंगे फिर वही उत्तर प्रदेश का रोना लेकर बैठ गए। करूं क्या! बात यह है कि दिल्ली के राजनीतिक एवं समाचार क्षेत्रों में केवल उत्तर प्रदेश की ही चर्चा है। जिससे बात करो, केवल यही सवाल कि भाई, उत्तर प्रदेश में क्या हवा है। प्रदेश ही नहीं, सारे देश की निगाहें उत्तर प्रदेश चुनाव पर लगी हुई हैं। अभी चुनाव में लगभग तीन माह का समय बाकी है। इसलिए अभी से यह कहना कठिन है कि चुनावी हवा किसके पक्ष में है। परंतु दिसंबर के अंतिम सप्ताह आते-आते प्रदेश से जो समाचार आए, उससे तो यही संकेत मिले कि बीजेपी खेमे में घबराहट है।

पहली बात तो यह कि जिस प्रकार समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के निकटतम सहयोगियों के घरों पर इनकम टैक्स रेड हुई, उससे स्पष्ट है कि बीजेपी घबराई हुई है, और सरकारी तंत्र का प्रयोग कर वह अपने प्रतिद्वंद्वियों को चुनाव में रुपये-पैसे से अपंग बनाना चाहती है। दूसरी खबर जो प्रदेश से मिली, वह यह थी कि प्रियंका गांधी एवं अखिलेश यादव- दोनों की ही रैलियों में अपार जनसमूह उमड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि बीजेपी, विशेषतया प्रधानमंत्री की जनसभाओं में भीड़ नहीं जुट रही है। प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों में भी बड़ी भीड़ आ रही है। परंतु इधर सरकारी भीड़ है। कलक्टर साहब के हाथ में भीड़ इकट्ठा करने की लगाम है। सरकारी बसें लोगों को ढोकर ला रही हैं। उधर, विपक्ष की रैलियों में भीड़ अपने से जुट रही है। यह सत्ता पक्ष के लिए चिंता का विषय है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर बीजेपी खेमे में चिंता के आसार दिखाई पड़ रहे हैं।

अब ऐसी चिंताजनक स्थिति का निवारण हो तो कैसे! मोदी जी वह हरसंभव कोशिश कर रहे हैं जिससे उत्तर प्रदेश बीजेपी के हाथों से निकलने न पाए। केन्द्र एवं प्रदेश सरकार की स्कीमों के नाम पर गरीब जनता के बीच खुलकर पैसा बहाया जा रहा है। घर-घर मुफ्त राशन मोदी एवं योगी जी की फोटो के साथ बंट ही रहा है। परंतु इन सारी बातों पर सत्ता पक्ष को भरोसा नहीं दिख रहा है। बीजेपी का सबसे बड़ा हथियार सदा धर्म ही होता है। अयोध्या मंदिर के कंधों पर सवार बीजेपी केन्द्रीय सत्ता तक पहुंच गई। उत्तर प्रदेश में इस बार भगवान शिव का सहारा लेने की तैयारी है। तब ही तो काशी कॉरिडोर में प्रधानमंत्री ने स्वयं घूम- घूमकर देश की गोदी मीडिया के माध्यम से भोलेनाथ की महिमा का दर्शन करवाया।

परंतु जिसको राम मंदिर विवाद याद हो, उसको यह भी भलीभांति याद होगा कि राम मंदिर में पत्ता खड़कता था और देशमें हाहाकार मच जाता था। परंतु काशी कॉरिडोर में वर्तमान बीजेपी को कोई औरंगजेब नहीं मिल पा रहा है। राम मंदिर विवाद में एक बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी थी जो राम मंदिर का विरोध कर एक हिन्दू विरोधी की छवि का रोलअदा कर रही थी। बाबरी मस्जिद कमेटी की ओर से मंदिर निर्माण का जितना विरोध होता था, उतना ही देश एवं प्रदेश में हिन्दू प्रतिक्रिया उत्पन्न होती थी। और उतना ही बीजेपी को राजनीतिक लाभ होता था, अर्थात हिन्दू प्रतिक्रिया के लिए एक बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी जैसी कट्टरपंथी मुस्लिम पार्टी का होना अनिवार्य है। परंतु काशी एवं मथुरा- दोनों मंदिरों में ऐसा कोई मुस्लिम पक्ष नहीं है। अतः वर्तमान स्थिति में ‘औरंगजेब बनाम शिवाजी’ का प्रभाव दो दिन में ही धूमिल पड़ गया।


परंतु बीजेपी तो बीजेपी है। वह अभी भी यह चेष्टा कर रही है कि किसी प्रकार देश में कहीं भी कोई धर्म के नाम पर मुस्लिम आंदोलन खड़ा हो और फिर बस मोदी जी हिन्दू प्रतिक्रिया पैदा कर दें। उत्तर प्रदेश से सटे हरियाणा के गुरुग्राम में पार्कों एवं अन्य खुले स्थलों पर जुमे की नमाज पर लगी पाबंदी का एक मुख्य कारण उत्तर प्रदेश चुनाव है। आखिर चुनावी सरगरमी से पहले हिन्दू संगठनों को गुरुग्राम में जुमे की नमाज रुकवाने का ख्याल क्यों नहीं आया। इधर उत्तर प्रदेश में चुनावी सरगरमी आरंभ हुई और उधर गुरुग्राम में जुमे की नमाज पर रोक का मामला खड़ा हो गया। आखिर क्यों!

बात सीधी है। नमाज और जुमे की नमाज का खास तौर पर मुस्लिम धर्म में एक बहुत अधिक अहम स्थान है। बीजेपी को यह आशा रही होगी कि यदि जुमे की नमाज पर पाबंदी लगी तो मुस्लिम समाज में रोष उत्पन्न होगा एवं जोश में मुसलमान सड़कों पर निकल पड़ेगा। और इस प्रकार उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान फिर हिन्दू प्रतिक्रिया पैदा करने में सुविधा होगी। परंतु बाबरी मस्जिद की चोट खाने के बाद मुस्लिम समाज अब जोश नहीं, होश से काम लेने लगा है। समाज में जोश उत्पन्न करने वाले कट्टरपंथी मुल्ला एवं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी संस्थाओं की भी समाज में अब नहीं चल रही है। और इसी में मुस्लिम समाज की भलाई भी है।

परंतु यह बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश चुनाव में चिंता का विषय है। और यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव अभी तक हिन्दू भावुक मुद्दों का रंग नहीं ले सका है। उत्तर प्रदेश में कमंडल से पूर्व मंडल का रंग चढ़ा था। यही कमंडल धूमिल पड़ता है, तो फिर मंडल पुनः तेज हो जाता है। यही कारण है कि अखिलेश यादव की सभाओं में जाति समूह उमड़ रहा है। और विपक्ष में उमड़ती भीड़ से मोदी एवं योगी जी के माथे पर चिंता की लकीरें दिखाई पड़ रही हैं। आगे चुनाव क्या रुख लेगा, यह तो समय ही बताएगा। परंतु अभी बीजेपी की घबराहट स्वाभाविक है।


आधार को वोटर आईडी से जोड़ने में मंशा क्या है!

इक्कीसवीं शताब्दी ऐसा लगता है कि डेटा की सदी है। हर कोई डेटा इकट्ठा करने की होड़ में है। भारत सरकार तो आए दिन कोई ऐसा खेल करती है जिसके आधार पर वह भारतवासियों के डेटा इकट्ठा कर सके। अब पिछले सप्ताह सरकार ने इस संबंध में संसद में एक नया खेल खेल दिया। विपक्ष के विरोध के बावजूद सरकार ने आधार कार्ड को वोटर आईडी कार्ड से जोड़ने का कानून बनाकर विपक्ष एवं जनता की परेशानी बढ़ा दी। इस कानून के तहत अब चुनाव आयोग के पास वोटर की हर खबर रहेगी। विपक्ष का अनुमान यह है कि इस प्रकार एक प्रदेश में लाखों वोटर वोट देने से वंचित हो जाएंगे। सीधी-सी बात है कि यदि आधार के डाटा के अनुसार वोटर आईडी डाटा मेल नहीं खाएगा, तो वोटर वोट डालने से वंचित हो जाएगा।

आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना में पिछले चुनाव में यह नियम लागू होने से लगभग 55,000 वोटर वोट डालने से वंचित हो गए। वह कैसे? मान लीजिए आपका पता वोटर आईडी कार्ड एवं आधार कार्ड के पते से मेल नहीं खाता, तो आप वोट डालने से रोक दिए जाएंगे। और ऐसा करोड़ों वोटर के साथ हो सकता है। स्वयं मेरे साथ अभी यही दशा है। आठ-दस वर्ष पूर्व मेरे वोटर आईडी कार्ड पर जो पता था, वह अब आधार कार्ड के पते से मेल नहीं खाता है। कारण यह है कि मैंने अपना निवास स्थान बदल दिया परंतु वोटर आईडी में पता नहीं बदला। नए कानून के तहत बहुत संभव है कि मैं वोट डालने से रोक दिया जाऊं।

ऐसा लगता है कि सरकार जनता को वोट डालने में बाधा उत्पन्न करना चाहती है। उत्तर प्रदेश चुनाव सहित पांच प्रदेशों में होने वाले चुनावों से तीन माह पूर्व ऐसा कानून लाने के पीछे कुछ खोट नजर आ रही है।


अभी दस-पंद्रह दिनों के भीतर चुनाव प्रक्रिया को लेकर दो खबरें आईं। पहली तो यह कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने चुनाव आयोग के अधिकारियों को बुलाकर विचार-विमर्श किया। चुनाव आयोग अदालतों के समान एक ऑटोनॉमस बॉडी है। सरकार एवं आयोग एक दूसरे से दूरी बनाए रखते हैं। परंतु आयोग का पीएमओ से बढ़ता प्रेम निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया के पक्ष में ठीक नहीं है। इसी प्रकार आधार कार्ड को वोटर आईडी कार्ड से जोड़ना भी एक चिंताजनक मुद्दा है। मोदी सरकार चुनाव जीतने के लिए हर हथकंडा इस्तेमाल करने को तैयार रहती है। ऐसी स्थिति में पांच प्रदेशों में होने वाले चुनावों से केवल तीन माह पूर्व आधार को वोटर आईडी से जोड़कर सरकार ने चिंता ही नहीं, अपितु आशंका भी उत्पन्न कर दी है।

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