किताबें और अखबार लोकतांत्रिक आन्दोलनों का अभिन्न अंग, इसीलिए पूंजीवाद और निरंकुश सत्ता के निशाने पर रहते हैं

अमेरिका में ही नहीं, बल्कि भारत समेत पूरी दुनिया में मीडिया का स्वामित्व चन्द पूंजीपतियों के हाथ में ही है। यही कारण है कि अखबारों से जनता के मुद्दे गायब हो चुके हैं और हम वही पढ़ने को मजबूर हैं, जो पूंजीवाद और निरंकुश शासक हमें पढ़ाना चाहता है।

फोटोः GettyImages
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महेन्द्र पांडे

मई 2021 में जब इजराइल और फिलिस्तीन के बीच युद्ध चल रहा था, तब इजराइल ने अपनी वायु सेना से गाजा पर हमले किये थे। 15 मई को इजराइल के आक्रमण में गाजा में एक भवन ध्वस्त हो गया था, जिसमें एसोसिएटेड प्रेस, अल जजीरा समेत अनेक समाचार पत्रों के कार्यालय थे। पूरी दुनिया की मीडिया ने इस खबर को दिखाया था। पर, 18 मई को जब इजराइल ने फिर से हवाई हमले किये तब गाजा में स्थित पुस्तकों की सबसे बड़ी दूकान, समीर मंसौर बुकशॉप पूरी तरह से जमींदोज हो गई, इसकी चर्चा कहीं नहीं की गई।

यह गाजा की सबसे लोकप्रिय पुस्तकों की दुकान थी, जहां हरेक विषयों पर बच्चों से लेकर बड़ों तक के लिए किताबें उपलब्ध थीं। इस इलाके के पढ़ने के शौकीन वयस्कों, युवाओं और बच्चों में यह दुकान बहुत लोकप्रिय थी। इसमें पुस्तक खरीदने की कोई बंदिश नहीं थी, वहां दिन भर बैठ कर आप अपनी पसंद की किताबें भी पढ़ सकते थे। अनेक गरीब बच्चे भी दिनभर यहां बैठ कर किताबें पढ़ते थे। यह दूकान दो मंजिला थी, पिछले 21 वर्षों से लगातार चल रही थी और इसमें एक लाख से अधिक पुस्तकें थीं।

इस दुकान के ध्वस्त होने के बाद इसके मालिक समीर मंसौर को एक बार तो यह महसूस हुआ कि अब सबकुछ खत्म हो गया है, पर फिर इन्होने हिम्मत की। इनकी मुलाकात मानवाधिकारों पर काम करने वाली अधिवक्ता महविश रुखसाना से हुई और इन दोनों ने इस दुकान को फिर से खड़ा करने की योजना बनाई। शुरू में सोशल मीडिया से मदद मांगी गई, जिसके द्वारा दुनिया भर से किताबें और कुछ पैसे भी आने लगे। इसके बाद महविश रुखसाना ने चैरिटी संस्था क्लीवे स्टैफोर्ड स्मिथ की मदद से दुनिया भर से फंडिंग जुटानी शुरू की। किताबों के नाम पर दुनिया भर से मदद आने लगी। अब तक इन लोगों को 2 लाख से अधिक किताबें और 2 लाख डॉलर से अधिक की सहायता राशि मिल चुकी है।

महविश रुखसाना और समीर मंसौर की योजना है कि दुकान तो बनेगी ही, पर इसके साथ ही गाजा कल्चरल सेंटर भी स्थापित किया जाए। गाजा कल्चरल सेंटर में आगंतुकों को वहां की संस्कृति की झलक के साथ ही किताबें पढ़ने और किताबों को घर ले जाने की सुविधा भी दी जाएगी। दुकान का काम शुरू किया जा चुका है। समीर मंसौर के अनुसार इजराइल का हवाई हमला ज्ञान और शिक्षा पर था, जिसे लोगों ने नापसंद किया और मदद की।


महविश रुखसाना के अनुसार गाजा पर किये गए हमलों में यह नुकसान सबसे भयानक नहीं था, दूसरे भवनों में इससे भी अधिक का नुकसान हुआ और आर्थिक हानि भी अधिक हुई, पर प्रभावित दूसरे भवनों, अस्पतालों और कार्यालयों को फिर से खड़ा करने के लिए सरकारी स्तर पर आर्थिक मदद आसानी से मिल जाती है, जबकि संस्कृति और ज्ञान से संबंधित नुकसान की भरपाई सरकारें नहीं करतीं। इसीलिए उन्होंने समीर मंसौर बुकशॉप को फिर से खड़ा करने में मदद की।

इस वर्ष अप्रैल के महीने में मैसूर के राजीव नगर इलाके में एक निजी पुस्तकालय को दहशतगर्दों ने आग लगा दी और इसमें रखी सभी लगभग 11,000 किताबें जल कर राख हो गईं। इस पुस्तकालय के मालिक, एक दिहाड़ी मजदूर सैयद इशाक हैं, जो स्वयं अनपढ़ हैं, पर इलाके के लोगों की सहूलियत के लिए पुस्तकालय स्थापित किया था। इसमें कन्नड़ भाषा में सभी धर्मों के ग्रन्थ भी थे और हरेक दिन 22 समाचारपत्र भी आते थे। इस पुस्तकालय को फिर से खड़ा करने में भी बहुत सारे व्यक्तियों और संस्थाओं ने अपने स्तर पर मदद की है। लोगों की मदद के ही कारण दिसंबर 2020 में आग से पूरी तरह नष्ट होने के बाद भी मुंबई में किताबखाना नामक किताबों की दुकान फिर से शुरू हो पाई।

गाजा में किताब की दूकान को फिर से स्थापित करने के लिए आवश्यक सहायता मिल गई, पर हांगकांग से निकलने वाला और लोकतांत्रिक मूल्यों का परचम लहराने वाला प्रसिद्ध समाचार पत्र एप्पल डेली आर्थिक कारणों के कारण बंद हो चुका है। एप्पल डेली पिछले वर्ष से ही वहां अब राज कर रहे चीनी अधिकारियों की नजर में खटक रहा था। दिसंबर 2020 में इसके मालिक जिम्मी ली को लोकतांत्रिक समर्थक आन्दोलनों में भाग लेने के कारण जेल में बंद कर दिया गया। पर, यह अखबार अपने लोकतांत्रिक विचारों के साथ पिछले सप्ताह तक लगातार प्रकाशित होता रहा।

पिछले सप्ताह हांगकांग में स्थित चीनी सेना ने इसके सभी वरिष्ठ कर्मचारियों को घरों से पकड़ कर जेल में डाल दिया और इस समाचार पत्र के सभी बैंक खातों और सारी संपत्तियों को सील कर दिया। समाचारपत्र के कार्यालय से पत्रकारों और संवाददाताओं के लैपटॉप जब्त कर लिए गए। गिरफ्तार किये गए वरिष्ठ अधिकारियों पर विदेशी मदद से स्थानीय सरकार को गिराने का आरोप भी लगाया गया है। यदि ये आरोप साबित होते हैं, तो फिर इसकी सजा आजीवन कारावास है।


चीनी सेना की कार्रवाई के बाद भी एप्पल डेली समाचारपत्र प्रकाशित किया जा रहा था, लोकतंत्र का समर्थन अभी तक किया जा रहा है और प्रतियां भी पहले से अधिक प्रकाशित की जा रही हैं। इसकी अंतिम प्रति 24 जून को प्रकाशित की गई। सामान्य परिस्थितियों में इसकी 80,000 प्रतियां प्रकाशित की जाती थीं, पर अंतिम दिन इसकी 10 लाख से अधिक प्रतियां प्रकाशित की गई थीं। हांगकांग में सुबह से ही इस समाचारपत्र को खरीदने के लिए लोगों की लम्बी लाइनें लग जाती थीं। पर, अब इसके कर्मचारियों का कहना है कि सभी बैंक अकाउंट सीज होने के कारण इसे लम्बे समय तक चलाना कठिन है और इसी के साथ इसके बंद होते ही हांगकांग में लोकतंत्र की सबसे सशक्त आवाज भी खामोश हो गई और चीन की भी यही मंशा थी।

हांगकांग में सेना के दमन के चलते लोकतंत्र की आवाज खामोश हो रही है, पर अमेरिका में कोरोना महामारी ने अर्थव्यवस्था को इतना बदहाल कर दिया है कि पहले से ही वित्तीय संकट से जूझ रहे अधिकतर स्थानीय समाचारपत्र बंद हो रहे हैं। पिछले 15 महीनों के दौरान ही ऐसे 70 से अधिक समाचारपत्र बंद हो चुके हैं। अमेरिका में वर्ष 2005 के बाद से 2100 से अधिक समाचारपत्र बंद कर दिए गए हैं, यानि 25 प्रतिशत से अधिक स्थानीय समाचारपत्र बंद हो चुके हैं, या फिर बेचे जा चुके हैं।

अमेरिका में समाचारपत्रों के साथ केवल यही समस्या नहीं है, बल्कि सबसे बड़ी समस्या यह भी है कि अधिकतर राष्ट्रीय और स्थानीय समाचार पत्रों का मालिकाना हक चंद प्राइवेट वित्तीय संस्थाओं के हाथ में जा रहा है। हाल में ही एक विश्लेषण के अनुसार अमेरिका में 50 प्रतिशत से अधिक समाचारपत्रों का मालिकाना हक 10 से भी कम वित्तीय संस्थाओं के हाथ में आ गया है, और इसे वहां प्रजातंत्र के लिए अब सबसे बड़ा खतरा माना जाने लगा है।

अमेरिका में ही नहीं, बल्कि भारत समेत पूरी दुनिया में मीडिया का स्वामित्व चन्द पूंजीपतियों के हाथ में ही है। यही कारण है कि अखबारों से जनता के मुद्दे गायब हो चुके हैं और हम वही पढ़ने को मजबूर हैं, जो पूंजीवाद और निरंकुश शासक हमें पढ़ाना चाहता है। किताबें और समाचारपत्र हमेश बड़े आन्दोलनों का अभिन्न अंग रहे हैं। हरेक आन्दोलन में आपको पुस्तकों की दूकान जरूर मिलेगी। दिल्ली की सीमाओं पर आन्दोलनकारी किसानों के बीच भी किताबों की दूकानें और पुस्तकालय हैं। पूंजीवाद और निरंकुश शासन हमेशा से ही ज्ञान देने वाली किताबों का दुश्मन रहा है, और मौका मिलते ही सबसे पहले उन्हें ही नष्ट करता है।

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