राम पुनियानी का लेखः बैंकों का पैसा लेकर भागे दोनों मोदी OBC नहीं, राहुल गांधी ने फिर कैसे कर दिया जाति का अपमान

संघ और बीजेपी का असली लक्ष्य है जातिगत और वर्ण-आधारित ऊंच-नीच को बनाए रखते हुए हिन्दुओं को एक करना। सच तो यह है कि संघ का गठन ही विदर्भ क्षेत्र में गैर-ब्राम्हण आंदोलन के जरिए दलितों की बढ़ती मुखरता की प्रतिक्रिया में हुआ था।

फोटोः विपिन
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राम पुनियानी

भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गांधी के बारे में ज्यादातर लोगों के नजरिए में बड़ा बदलाव हुआ है और अब उन्हें एक प्रमुख विपक्षी नेता की तरह देखा जाने लगा है। उन्होंने कैंब्रिज-लंदन में अपने भाषणों में वही मुद्दे उठाए जो उन्होंने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान उठाए थे। उन्हें अब तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है और दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों और समूहों द्वारा उन्हें देशद्रोही बताया जा रहा है, जो गलत है।

गुजरात के एक बीजेपी नेता ने नीरव मोदी, ललित मोदी और मेहुल चौकसी के संबंध में राहुल गांधी के इस कथन को मुद्दा बना लिया कि इन सभी चोरों का उपनाम मोदी क्यों है। यह बात उन्होंने कर्नाटक में दिए गए एक भाषण में कहा था। उक्त नेता पुर्नेश मोदी ने यह तर्क देते हुए केस दायर कर दिया कि राहुल मोदियों का अपमान कर रहे हैं। यह स्पष्ट है कि वक्तव्य में यह नहीं कहा गया था कि सभी मोदी चोर हैं, बल्कि यह कहा गया था कि चोरों का उपनाम मोदी है। बहरहाल निचली अदालत ने राहुल को दोषी पाया और उन्हें दो साल के कारावास की सजा सुनाई जो ऐसे मामलों में अधिकतम निर्धारित दंड है। साथ ही अदालत ने उन्हें जमानत दी और ऊपरी अदालत में अपील करने के लिए एक माह का समय भी दिया।

प्रकरण में आगे क्या होता है इसका इंतजार किए बगैर लोकसभा सचिवालय ने राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता समाप्त कर दी। इसके साथ ही बीजेपी शोर मचा रही है कि राहुल गांधी ने ओबीसी का अपमान किया है और उनके खिलाफ राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन कर रही है। कांग्रेस, राहुल गांधी के समर्थन और उनकी सदस्यता समाप्ति के विरोध में पूरे देश में आंदोलनरत है।

सन् 2014 के चुनाव के पहले मणिशंकर अय्यर, जो उस समय कांग्रेस में थे, ने राजनीति की स्थिति को दर्शाने के लिए ‘नीच’ शब्द का प्रयोग किया था। बीजेपी के विशाल और अत्यंत कार्यकुशल प्रचारतंत्र ने ‘नीच’ शब्द, जो निम्न स्तर के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया गया था, को नीची जाति के अर्थ में  परिवर्तित कर दिया और चुनाव में इसका भरपूर फायदा उठाया। बीजेपी ने देश में यह गलत प्रचार किया कि कांग्रेस ने निम्न जातियों का अपमान किया है। एक बार फिर पार्टी शायद वही रणनीति अपनाने जा रही है और उसके जरिए ओबीसी की सहानुभूति हासिल करना चाहती है। जबकि सच यह है कि जो दो मोदी बैंकों का पैसा डकारकर विदेश भागे हैं, उनमें से एक भी ओबीसी नहीं है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हाल में भारत सरकार ने मेहुल चौकसी को एंटीगुआ की नागरिकता हासिल करने के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी किया था।


ओबीसी और दलितों से जुड़े मामलों में बीजेपी की रणनीति एक साथ दो परस्पर विरोधी लक्ष्य हासिल करने पर केन्द्रित है - एक ओर पार्टी इन वर्गों की भलाई के लिए सकारात्मक भेदभाव की नीतियों के खिलाफ है तो दूसरी ओर वह उसके विभिन्न अनुषांगिक संगठनों, जो ‘सेवा कार्य’ में जुटे हुए हैं, के जरिए इन वर्गों को अपने साथ जोड़ना चाहती है। वह इन वर्गों के लोगों को धर्म का इंजेक्शन लगाना चाहती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात में सन् 1980 के दशक में दलितों और आदिवासियों के आरक्षण के खिलाफ व्यापक हिंसा हुई थी। इसी तरह सन् 1985 में राज्य में ओबीसी के लिए सकारात्मक कदमों के खिलाफ हिंसक आंदोलन हुआ था। आगे चलकर यह आंदोलन मुस्लिम-विरोधी हिंसा में बदल गया।

दलितों और ओबीसी को विशेष सुविधाएं और छूटें देकर आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करने की नीति के खिलाफ उच्च जातियां काफी लंबे समय से लामबंद रही हैं। विभिन्न किस्म की यात्राएं और राम मंदिर आंदोलन इसी लामबंदी का नतीजा थे। मंडल आयोग की रपट लागू होने के पीछे कई कारक थे जिनमें ओबीसी जातियों में बढ़ती चेतना और देवीलाल और वी. पी. सिंह के बीच सत्ता संघर्ष शामिल था। यह भारत के आधुनिक इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण मोड़ था। इससे एक ओर ओबीसी जागे और उन्होंने नौकरियों में अपनी हिस्सेदारी का दावा ठोंका तो दूसरी ओर बीजेपी को लगा कि उसे उच्च और समृद्ध जातियों को अपने से जोड़ने का एक सुनहरा मौका हाथ लगा है। आडवाणी के नेतृत्व में निकाली गई रथयात्रा का एक उद्देश्य यही था।

इस प्रयास में बीजेपी को जबरदस्त सफलता हासिल हुई। बाबरी मस्जिद को ढहाने और उसके बाद देश भर में हुए खून-खराबे से संसद में उसके सदस्यों की संख्या में बड़ा उछाल आया। सन् 1984 के चुनाव में कुल मतों में बीजेपी का हिस्सा 7.5 प्रतिशत था, जो 1991 में बढ़कर 21 प्रतिशत हो गया। इसमें मंडल-कमंडल आंदोलनों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। 1996 में हुए अगले चुनाव में बीजेपी ने 161 सीटें हासिल कर लीं और कुछ अन्य पार्टियों के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाने में सफल रही।

संघ और बीजेपी का असली लक्ष्य है जातिगत और वर्ण-आधारित ऊंच-नीच को बनाए रखते हुए हिन्दुओं को एक करना। सच तो यह है कि संघ का गठन ही विदर्भ क्षेत्र में गैर-ब्राम्हण आंदोलन के जरिए दलितों की बढ़ती मुखरता की प्रतिक्रिया में हुआ था। इस आंदोलन के चलते ऊंची जातियों को लगा कि अगर दलित ताकतवर हुए तो सामाजिक ढांचे और सत्ता पर उनकी पकड़ कमजोर हो जाएगी और इसलिए हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे को लेकर आरएसएस का गठन किया गया। ‘बाहरी’ दुश्मनों का डर दिखाकर हिन्दुओं को उनकी जाति से ऊपर उठकर एक करने का प्रयास किया गया। परंतु इसके साथ ही गोलवलकर से लेकर दीनदयाल उपाध्याय तक संघ के सभी चिंतक वर्ण-जाति को हिन्दू समाज की नींव मानते रहे हैं।


वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी’ (जिसे शायद रणनीतिक कारणों से गायब कर दिया गया है) में लिखा है ‘‘मैला उठाना वाल्मीकी जाति के लिए आध्यात्मिक अनुभव रहा होगा। किसी न किसी समय किसी न किसी को यह ज्ञानोदय हुआ होगा कि पूरे समाज की खुशी के लिए काम करना उनका (वाल्मीकी का) कर्तव्य है और यह काम उन्हें देवों द्वारा सौंपा गया है और सफाई का यह काम एक आध्यात्मिक गतिविधि के रूप में सदियों तक चलना चाहिए।’’

इसी रणनीति का सबसे ताजा उदाहरण है बीजेपी द्वारा जाति जनगणना का विरोध। केन्द्र सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्लूएस) के लिए 10 प्रतिशत कोटे के निर्धारण को अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी का निर्वहन बताया है। सरकार का कहना है कि गरीबों की मदद करना उसका नैतिक और संवैधानिक कर्तव्य है। परंतु आलोचक मानते हैं कि ईडब्लूएस कोटा जाति के आधार पर भेदभाव करता है क्योंकि सरकार ने रूपये 8 लाख प्रतिवर्ष से कम आय वाले गैर-एससी, एसटी और ओबीसी परिवारों के लिए जो 10 प्रतिशत कोटा निर्धारित किया है वह केवल उच्च जातियों के लिए है।

जहां बीजेपी अपनी चालें चल रही है वहीं कांग्रेस भी संकल्प सत्याग्रह और अन्य आंदोलनों से आगे बढ़कर सत्ताधारी दल का मुकाबला करने का प्रयास कर रही है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा है कि वे ओबीसी हैं और कांग्रेस उन्हें अब तक तीन बार मुख्यमंत्री बना चुकी है। कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता जयराम रमेश ने ट्वीट कर कहा है कि सन् 2006 में यूपीए सरकार ने उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी। उसी तरह 2011-12 में कांग्रेस सरकार ने 25 करोड़ परिवारों की जातिगत गणना की थी परंतु बीजेपी ने उसे रोक दिया।

राहुल गांधी की सदस्यता खत्म किए जाने के खिलाफ आम जनता में गुस्सा है। मीडिया, जो कुछ महीनों पहले तक राहुल गांधी को नजरअंदाज करता था, अब उनकी गतिविधियों को कवरेज दे रहा है। कई प्रभावशाली अखबारों ने सदस्यता की समाप्ति को देश में प्रजातांत्रिक मूल्यों के कमजोर पड़ते जाने का एक और उदाहरण बताया है। राहुल गांधी को ओबीसी का अपमान करने के नाम पर कठघरे में खड़ा करने की बीजेपी की रणनीति शायद ही सफल हो क्योंकि लोग उसके असली एजेंडे से वाकिफ हो चुके हैं।

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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