बजट 2020ः सबसे ज्यादा खेती और गांवों पर मार, 10 फीसदी लोगों की सुविधा वाली अर्थव्यवस्था से किसका होगा भला

भारत की आबादी का दो तिहाई हिस्सा ग्रामीण है, लेकिन बीते सालों में यहां 84 फीसदी लोगों के रोजगार चले गए। यह जानते हुए कि ग्रामीण गरीबों की बहुतायत में किसान और खेतिहर मजदूर हैं, फिर भी आज पेश बजट में कृषि और गांव-किसान को सिरे से ही नजरअंदाज कर दिया गया।

फोटोः सोशल मीडिया
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देवेंदर शर्मा

मोदी सरकार के इस बार के बजट से उम्मीद थी कि भयंकर स्तर पर पहुंच चुकी बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, आर्थिक संकट, किसानों की दुर्दशा और विकास दर बढ़ाने के उपाय सामने आएंगे, वित्त मंत्री कोई जुगत सुझाएंगी। लेकिन इन सभी मोर्चों पर बजट ने निराश किया, नतीजतन शेयर बाजार औंधे मुंह गिरा और निवेशकों के लाखों करोड़ रुपये स्वाह हो गए। साफ है कि बाजार इस बजट से बुरी तरह निराश हुआ है। बाजार का रुख बता रहा है कि इस बजट के बाद अर्थव्यवस्था का संकट और गहराने वाला है।

शहर और बाजार तो छोड़ें, मोटे तौर पर देखें तो बजट में सिर्फ वित्तीय जुमलेबाजी की गई है, जिसका अर्थ निकालें तो साफ हो जाएगा कि बजट में गांव और किसानों को लेकर कोई बात नहीं की गई है। ग्रामीण भारत पर छाए बेरोजगारी और बदहाली को लेकर सरकार की तरफ से कोई कारगर उपाय नहीं रखा गया है। देश में गांवों और ग्रामीणों की क्या हालत है, ये किसी से नहीं छिपा है।

बात 2013 की है। स्विट्जरलैंड के दावोस में वार्षिक वर्ल्ड इकोनाॅमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) जमावड़े से ठीक पहले ऑक्सफैम ने भी अपनी वार्षिक ग्लोबल इन्क्वैलिटी रिपोर्ट जारी की थी। दुनिया में सबसे धनी 100 परिवारों ने एक साल में अपने धन में 240 बिलियन डाॅलर जोड़ा है, यह अनुमान लगाते हुए रिपोर्ट में कहा गया था कि ये टाॅप 100 परिवार दुनिया की गरीबी चार बार बिल्कुल धो-पोछ दे सकते हैं।

अभी कुछ दिन पहले, डब्ल्यूईएफ की 50वीं वार्षिक बैठक से पहले ऑक्सफैम ने अपनी नवीनतम टाइम टु केयर रिपोर्ट जारी की। इसने फिर स्पष्ट तौर पर बताया कि दुनिया के 2,153 खरबपतियों के हाथों में धन का केंद्रीकरण कैसे बढ़ा है। इनके पास इतना धन है जितना 4.6 बिलियन लोगों या दुनिया भर की आबादी के 60 प्रतिशत हिस्से के पास है। इसने भारत में बदतर होती असमानता भी बताई। भारत के सबसे धनी 1 प्रतिशत लोगों के पास उतना धन है, जितना देश की 70 प्रतिशत आबादी, मतलब 95.3 करोड़ लोगों के हाथों में है। इनके अतिरिक्त, भारत के सबसे धनी 63 परिवारों की संयुक्त धन-संपत्ति वित्त वर्ष 2018-19 के केंद्रीय बजट के 24,42,200 करोड़ खर्च से ज्यादा है।

लोगों को उम्मीद थी कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अपने आर्थिक नजरिये में इस ऐतिहासिक विकृति को सुधारने का कोई प्रयास करती हैं या नहीं। विकास दर पिछले 11 साल में सबसे कम है और आर्थिक मंदी के साथ है तथा बड़े व्यापार में राजस्व फिसलन का खतरा है। ऐसे में सीतारमण ने बढ़े सरकारी खर्च का सहारा लिया है, ताकि ग्रामीण मांग बढ़े, लेकिन संदेह है कि क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां और ब्रोकरिंग एजेंसियों के साथ काम कर रहे अर्थशास्त्री बढ़ती गैरबराबरी को भरने के लिए किसी ऐसी नीति के उपयोग को सराहेंगे। पहले से ही, मुख्यधारा की मीडिया राजस्व प्रचुरता के खिलाफ चेतावनी देते हुए धूम-धड़ाके वाले कदमों का सुझाव दे रही थी, जो निश्चित तौर पर आज के बजट में साफ दिखता है।


ऐसे समय में, जब उपभोग (कंज्पशन) और निवेश में गिरावट आर्थिक मंदी के पीछे कारण माने जा रहे हों, ग्रामीण खर्च बढ़ाने का कोई भी अर्थपूर्ण प्रयास ग्रामीण गरीबों के हाथों में अधिक आय उपलब्ध कराने से ही आएगा, जिससे बढ़ती गैरबराबरी की समस्या के दूरगामी समाधान में मदद मिलेगी। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां जो कह रही हैं, उसकी परवाह किए बिना वित्त मंत्री को उस प्रधान आर्थिकी सोच की रूपरेखा की उपेक्षा करनी चाहिए थी, जिसने अर्थव्यवस्था को लुढ़कने की हालत में पहुंचा दिया है। ऐसी अर्थव्यवस्था जो आबादी के 10 फीसदी की उपभोग जरूरतों को पूरा करने का ध्यान रखती हो, उससे अब आगे देखना था, और तब तो और जब प्रधानमंत्री सबका साथ, सबका विकास की बात कहते हों।

अर्थशास्त्र की भाषा में कहें, तो सब कुछ मांग बढ़ाने पर पर निर्भर करता है। जितनी अधिक मांग होगी, उतना आर्थिक विकास होगा। और यह प्रधान कारण है कि इंडिया इंक ने अर्थव्यवस्था के बूस्टर डोज के तौर पर 7वें वेतन आयोग का स्वागत किया था। आखिरकार, कर्मचारियों के हाथों में अधिक आय का मतलब अधिक मांग है और इस तरह, अधिक उपभोग है। इसी तरह, व्यक्तिगत आयकर में राहत से शहरी मध्यवर्ग के हाथों में अतिरिक्त धन रहने की अपेक्षा है, इस तरह उपभोक्ताओं को ज्यादा खर्च करने का अवसर होगा। लेकिन, फिर यह उस आर्थिकी सोच में फिट बैठती है जो दस फीसदी आबादी के उपभोग जरूरतों को पूरा करने तक सीमित है। दूसरी तरफ, जब तक समावेशी विकास नहीं होगा, आर्थिक लाभ जनता तक नहीं पहुंचेंगे। यह जानते हुए कि ग्रामीण गरीबों की बहुतायत में किसान और खेतिहर मजदूर हैं, इसलिए ध्यान कृषि की तरफ ले जाना ही होगा।

ऑक्सफैम रिपोर्ट में जिन 95.3 करोड़ भारतीयों की बात की गई है, उनमें से कम-से-कम 60 करोड़ लोग खेती-किसानी से सीधे या परोक्ष ढंग से जुड़े हुए हैं। पहला और सबसे प्रमुख कदम कृषि कार्य को औपचारिक अर्थव्यवस्था के हिस्से के तौर पर देखना शुरू करना है। कृषि को सिर्फ एक सेक्टर के तौर पर नहीं देखना चाहिए जिसकी एकमात्र भागीदारी यह सुनिश्चित करना है कि खाद्य मुद्रास्फीति भारतीय रिजर्व बैंक की महा आर्थिक नीति की चार प्रतिशत (दो फीसदी अधिक या कम) सीमा को पार नहीं करे, बल्कि इसे ऐसे सेक्टर के तौर पर देखा जाना चाहिए जो आर्थिक उछाल पैदा कर सके।

यह जरूरी है क्योंकि 60 फीसदी आबादी राष्ट्रीय धन-संपत्ति के सिर्फ 4.8 प्रतिशत का उपयोग करती है। ऐसा इसलिए क्योंकि आर्थिक सुधारों को फलता-फूलता बनाए रखने के लिए कृषि को जान-बूझकर दरिद्र बनाए रखा गया है जिसके परिणाम स्वरूप कृषि की पीड़ा को अधिकांशतः किनारे किया हुआ है। आर्थिक सर्वेक्षण, 2016 के अनुसार, भारत के 17 प्रदेशों में औसतन कृषि आय महज 20,000 रुपये वार्षिक है। दूसरे शब्दों में, लगभग आधे देश में कृषि परिवार 1,700 रुपये प्रतिमाह पर रह रहे हैं। इतनी कम आय में देश की जीडीपी में कृषि का हिस्सा नीचे रहना ही है।


अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) का कहना है कि गिरती ग्रामीण मांग ने भारत के विकास को नीचे गिरा दिया है जिस वजह से वैश्विक जीडीपी गिर गई है। यह बात आईएमएफ को (और इस मामले में, मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों को भी) तब जाकर पता चली जब भारत की जीडीपी के आंकड़े 5 प्रतिशत से कम रह गए। लेकिन पिछले दो दशकों में भी कृषि आय या तो वैसी ही बनी हुई थी या नकारात्मक थी जिसका मतलब है कि ग्रामीण खर्च पहले ही कम था। इस तथ्य को कभी स्वीकार नहीं किया गया।

साल 2000 से 2016-17 की अवधि के ऑर्गनाइजेशन फाॅर इकोनाॅमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट और इंडियन काउंसिल फाॅर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनाॅमिक रिलेशंस (ओईसीडी-आईसीआरईआर) का अध्ययन बताता है कि भारतीय किसानों ने उचित मूल्य न मिलने की वजह से 45 लाख करोड़ का नुकसान भोगा है। उसके बाद की अवधि ऐसी रही, जो नीति आयोग के अनुसार, जिसमें वास्तविक कृषि आय का वार्षिक विकास ‘लगभग शून्य’ बना रहा। लेकिन विश्व बैंक/आईएमएफ, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों या भारत के मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों ने इस पर कोई चिंता नहीं जताई। जब तक जीडीपी 6 प्रतिशत या उससे ऊपर मंडराती रही, अर्थशास्त्री ग्रामीण मांग में गिरावट देखने में विफल रहे।

पिछले साल के बजट में पीएम-किसान योजना शुरू की गई। इसमें जमीन की मिल्कियत होने पर हर कृषि परिवार को 6,000 रुपये वार्षिक की दर से प्रत्यक्ष आय समर्थन की बात थी। इसके लिए बजट में 75,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया। यह आर्थिक सोच में ’बनावट वाला’ शिफ्ट था। लेकिन कृषक समुदाय को आर्थिक मदद देने, साल-दर-साल किसानों को हो रहे आर्थिक घाटे की आंशिक भरपाई करने में ये पूरी तरह विफल रहा है। जब कृषि आय कम है, इसका नकारात्मक असर कृषि मजदूरों पर है।

सेंटर फाॅर माॅनिटरिंग इकोनाॅमी (सीएमआईई) के अध्ययन के अनुसार, पिछले एक साल, 2018-19 में, कम-से- कम 1.1 करोड़ लोगों ने अपने रोजगार से हाथ धो लिए। रिपोर्ट कहती हैः ग्रामीण भारत में अनुमानतः 91 लाख नौकरियां गईं जबकि शहरी भारत में 18 लाख। गांवों में आबादी का दो तिहाई हिस्सा है लेकिन यहां के 84 फीसदी लोगों ने रोजगार खोए। ग्रामीण इलाकों में मनरेगा प्रभावी है। इसके लिए 2019 में पुनरीक्षित अनुमानों के तहत 61,084 करोड़ आवंटित किए गए। लेकिन कई लोगों को भुगतान न होने की खबरें भी आती रही हैं।

जीरो बजट का उल्लेख वित्त मंत्री ने पिछले साल के बजट में किया था, पर उन्होंने इसके लिए राशि का कोई आवंटन नहीं किया था। और अंत में, ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की तरह वित्त मंत्री से ईज ऑफ डूइंग फार्मिंग शुरू करने की अपेक्षा थी। इससे खेती-किसानी को आर्थिक रूप से व्यावहारिक और पर्यावरण की दृष्टि से उपयोगी उद्यम बनाने में मदद मिलती। गतिशील खेती-किसानी इतनी अधिक मांग पैदा करेगी कि विकास के पहिये को कभी भी मंदी का सामना नहीं करना पड़ेगा, लेकिन अब बिल्कुल साफ है कि सरकार इसके लिए कोई कोशिश नहीं करने जा रही।

(लेखक कृषि विशेषज्ञ)

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