सिर्फ मकानों को नहीं, बल्कि लोगों के सपनों के साथ व्यक्ति की गरिमा की नींव पर खड़ी बंधुता को भी रौंदते हैं बुलडोज़र

आज व्यक्ति की निजता और उसकी गरिमा पर रोज हमले होते हैं। बुलडोजर मकानों को ही ध्वस्त नहीं करते, व्यक्ति के ख्वाबों को रौंदते हैं। व्यक्ति की गरिमा की नींव पर खड़ी बंधुता को धराशायी करते हैं।

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मीनाक्षी नटराजन

पिछले दिनों ‘बुलडोजर तंत्र’ की चारों ओर चर्चा रही। अखबार निजता को रौंदते बुलडोजर की तस्वीरों से पटे रहे। शासन ने ऐलान करके तथाकथित पत्थरबाजों पर बुलडोजर चलाए जिसमें से मध्य प्रदेश में दुर्भाग्य से एक के तो हाथ ही कटे हुए थे। पत्थर तो क्या ही चलाया होगा! गौरतलब है कि यह पहली घटना नहीं है जब कुछ व्यक्तियों की सजा समूह या समुदाय को दी गई। हालांकि अखबारों ने संभवतः पहली बार ही इतनी गंभीरता से संज्ञान लिया। शायद इसलिए कि राजधानी में भी बुलडोजर चला। अनेक राज्य इस तरह के हथकंडे बार-बार अपना चुके हैं। खुद राजधानी में भी अतिक्रमण हटाने के लिए कई बार गरीबों के झोपड़े रौंदे गए हैं।

कुछ सालों पहले की कुछ मिसालें आज भी दिमाग पर अंकित हैं। बकाया बिजली बिल वसूलने के लिए पूरी बस्ती का कनेक्शन काटना बिजली विभाग का प्रसिद्ध ‘बुलडोजर अस्त्र’ रहा है। वामपंथी अतिवाद से जूझते इलाकों में तैनात रक्षाबल पूरे गांव को हिरासत में ले लेते हैं। 2017 में मध्य प्रदेश के किसानों के विरोधी स्वर को दबाने के लिए पुलिस ने ऐसी ही कार्रवाई की थी। कुछ चिह्नित गांवों के हर घर की तलाशी की गई। लाचार और बिस्तर पर पड़े वृद्धों, महिलाओं तक को नहीं बख्शा गया। उसी मानसिकता ने एक बड़े वर्ग पर ‘आंदोलनजीवी’ का टैग लगाया। उसी साल जातिगत हिंसा में दलित नौजवान मारे गए थे। प्रभुत्व संपन्न जाति का एक नौजवान भी दंगे का शिकार हुआ था। मगर शासन ने कई सौ अनाम लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की। इसका इस्तेमाल बहुजन समाज की आवाज को कुचलने के लिए किया गया।


दरअसल, समुदाय पर जोर आजमाईश की इस प्रवृत्ति को समझना जरूरी है। शासन अपनी औपनिवेशिक आदत से उबरा नहीं है। संयोगवश यह औपनिवेशिक हुक्मरानों द्वारा आपराधिक जनजाति कानून लागू करने का एक सौ पचासवां साल है। इस कानून ने करोड़ों लोगों को पैदा होते ही अपराधी करार दिया और उन्हें कैदखाने या नजरबंद बस्तियों में रहने पर मजबूर किया। भारत ने स्वतंत्रता के बाद इस कानून को समाप्त किया। लेकिन आज भी अपराधी घोषित की गई अनेक जनजातियों और समूहों को शासन की ज्यादतियों का सामना करना पड़ता है। समाज का एक बलशाली तबका उन्हें अब भी अपराधी मानता है। आदतन अपराधी कानून उसी की परछाई है। मगर उसमें कम-से-कम व्यक्ति को इकाई माना गया। व्यक्ति की सजा सामुदायिक नहीं होती। शासन आज भी समुदाय के आपराधिक या गैर आपराधिक होने की मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है। यही मानसिकता शासन को शोषण की खुली छूट देती है। शासन के पास बेहिसाब ताकत है जिसका पूरा उपयोग दमन के लिए वह कर सकता है।

मानवअधिकार की हर सीमा का उल्लंघन जायज करार किया जाता है। यहां तक कि अब यह अत्यधिक लोकप्रिय हो गया है। बिना संवैधानिक प्रक्रिया के पुलिस एनकाउंटर का शिकार होने पर उस अधिकारी की पीठ थपथपाई जाती है। शासन इस अवैज्ञानिक, अमानवीय विचार से मुक्त नहीं हुआ है कि ‘अपराध’ कोई आनुवांशिक गुण नहीं है। शासन को लगता है कि तंत्र का आधार भय होना चाहिए। पूरे समूह को चेतावनी रहे कि दोयम दर्जा स्वीकार करे। शासन के डर में जिए। हक को मौलिक नहीं, शासन की मेहरबानी समझें। लोक समाज भी इसका प्रतिकार करता हुआ नजर नहीं आता।

ताकतवर वर्ग के लिए इसमें सुविधा है कि बहुजन समाज खुद को शासन के अधीन समझे। आखिर वर्ण व्यवस्था ने यह तो संस्थापित किया ही है कि निम्नता, तुच्छता कुछ समूहों की नियति है। यह उनके पिछले जन्मों का कर्म है। यहां भी व्यक्ति नहीं, समूह या समुदाय आधार है। पाश्चात्य देशों में भी लंबे अरसे तक यह मान्यता थी कि अश्वेत मानव समूह बौद्धिक रूप से कमतर हैं। हमारे अपने देश में अक्सर यह सुनने को मिल जाता है कि यह तो जात ही ऐसी है। जात जन्म की स्थिति से तय होती है।


संविधान सभा ने इसी सोच को खत्म करने के लिए समूह या समुदाय को इकाई नहीं माना। हर एक व्यक्ति की गरिमा को बंधुता के लिए आवश्यक मानकर संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा।

आज यही गरिमा तार-तार हो रही है। कुल, कुनबा, समूह, समुदाय निशाने पर है। जब 2014-15 में स्वच्छ भारत के सरकारी विज्ञापन में बच्चों को खुले में शौच के लिए विवश वयस्कों की खिल्ली उड़ाते दर्शाया गया, तब व्यक्ति की गरिमा ही आहत हुई। यह याद रखा जाना चाहिए कि बिना व्यक्तिगत करुणा और गरिमा के कभी कोई सामुदायिक बदलाव नहीं हो सकता। कम-से-कम संवैधानिक और अहिंसात्मक तो बिल्कुल नहीं। आज व्यक्ति की निजता और उसकी गरिमा पर रोज हमले होते हैं। बुलडोजर मकानों को ही ध्वस्त नहीं करते, व्यक्ति के ख्वाबों को रौंदते हैं। व्यक्ति की गरिमा की नींव पर खड़ी बंधुता को धराशायी करते हैं।

राष्ट्र की एकता, अखंडता के लिए बंधुता जरूरी मानी गई। यदि ‘राष्ट्र’ माने ‘लोग’ और आसपास का ‘पर्यावास’ (प्राकृतिक वास) है, तो राष्ट्र की अखंडता व्यक्ति की गरिमा पर ही टिकी है। मगर एक विचारधारा के लिए ‘राष्ट्र’ प्रभुत्व संपन्न वर्ग की संपत्ति है। राज्य उन्हें दोहन, शोषण, लूट की सुविधा देने की यंत्रणा है। आज वही विचारधारा शासन में है। दूसरी विचारधारा के लिए ‘राष्ट्र’ माने लोग, उनकी आकांक्षाएं, सपने, आजादी और उनकी गरिमा। गरिमा पर बुलडोजर चलाकर, समुदायों को भयाक्रांत करके अखंडता हासिल नहीं की जा सकती।

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