बुराड़ी: 11 मौतों ने समाज के सामने खड़े किए कई सवाल

यह गैब्रियल गार्सिया मार्खेज की किताब “क्रॉनिकल ऑफ ए डेथ फोरटोल्ड” की याद दिलाता है जिसमें भी एक आदमी की ऐसी ही हत्या का वर्णन है जिसके बारे में पूरा शहर जानता था, लेकिन सबने उस पर चुप्पी बनाए रखी क्योंकि वे हत्यारों की नैतिकता से सहमत थे।

फोटो: सोशल मीडिया 
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मृणाल पाण्डे

आज के भारत में अगर कोई पूछता है कि किस चीज से धार्मिक अंधविश्वास और आत्महत्या के बीच के संबंध की व्याख्या हो सकती है तो यह कई लोगों को बेहद नागवार गुजर सकता है। जहां तक अजीब तरह के धार्मिक तौर-तरीकों और फ्रॉड-हत्या जैसे गंभीर अपराधों में जेल में बंद राम रहीम, आसाराम जैसे बाबाओं का सवाल है तो यह साफ है कि नियम-कायदे बनाने वाले लोगों की वजह से यह हो रहा है। दिल्ली के संत नगर में रहने वाले भाटिया परिवार में 11 लोगों की मौत उन तौर-तरीकों का एक अतिवादी उदाहरण है जिन्हें पुलिस ने मीडिया के सामने “अपने गुरू के निर्देशों का अंध रूप में पालन” करना बताया था, जिस पर अभी तक लोगों की ज्यादा निगाह नहीं गई है। हालांकि, घर में एक डायरी मिली है जिसमें उन निर्देशों का सिलसिलेवार वर्णन है कि कैसे पूरे परिवार को बलि के बकरे की तरह परम संहार के लिए तैयार किया गया। डायरी में लिखे अंतिम निर्देश में कहा गया कि मां “सामूहिक मोक्ष” के पहले परिवार के सारे सदस्यों को खाना खिलाएगी। तो जैसा कि बताया गया कि पड़ोस के खान-पान की दुकान से 22 रोटियां मंगाई गईं और ऐसा समझा जाता है कि पीड़ितों को वह खिलाया गया।

शब्दकोशों में अंधविश्वास को एक ऐसे विश्वास के तौर बताया गया है जो तार्किक नहीं है और जब बिना पुष्टि के भरोसा किया जाता है। यह गैब्रियल गार्सिया मार्खेज की किताब “क्रॉनिकल ऑफ ए डेथ फोरटोल्ड” की याद दिलाता है जिसमें भी एक आदमी की ऐसी ही हत्या का वर्णन है जिसके बारे में पूरा शहर जानता था, लेकिन सबने उस पर चुप्पी बनाए रखी क्योंकि वे हत्यारों की नैतिकता से सहमत थे। किताब में एक पड़ोसी ने कहा, “एंजेला विकारियो नन की तरह दिखती है”, जिसकी कौमार्य की कमी से पनपी वैवाहिक समस्याएं एक आदमी की हत्या का कारण बनी।

संत नगर में भी मीडिया और पुलिस समेत सारे बाहरी लोगों के लिए समय खुद को दोहराने लगा जैसे ही उन्होंने पड़ोसियों से सवाल पूछना शुरू किया। सबने मरने वालों की प्रशंसा की। सबने कहा कि वे कितने अच्छे और देवताओं पर भरोसा करने वाले लोग थे। कितने नियमित तरीके से वे मंदिर जाते थे और परिवार की सबसे उम्रदराज महिला के साथ बैठकर हर शाम धार्मिक विमर्श और गीत सुनते थे। सबका कहना था कि उनके परिवार में आपसी जुड़ाव इतना ज्यादा था कि दूसरे परिवारों के लिए वे उदाहरण हैं। टीवी पर एक आदमी ने बार-बार जोर देकर कहा कि हर तरीके से भाटिया परिवार एक आदर्श हिंदू परिवार था – धार्मिक, शांत, सहिष्णु और आज्ञाकारी। वे साथ पूजा करते थे, साथ खाते थे और साथ धार्मिक पाठ गाते थे। अगर कोई बहस होती थी तो लोग खुद को दोषी मानते हुए गुस्से को शांत करते थे और आश्वस्त करते थे कि वे इसका ख्याल रखेंगे कि वह चीज दोबारा न हो।

हालांकि, इसे सामूहिक आत्महत्या कहा जा रहा है, लेकिन हम भ्रम में न रहे, यह सामूहिक हत्या है जो धार्मिक आग्रहों के चलते हुई है। युवा लड़के-लड़कियां भी इस हत्याकांड के पीड़ितों में शामिल हैं।

इस स्थिति में कई सवाल खड़े होते हैं: पूरे उपमहाद्वीप में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ बिना रोक-टोक घरों में होने वाली यौन हिंसा के खिलाफ बने कानूनों का क्या होता है? कौन उन्हें बनाता है, संशोधित करता है, उनकी व्याख्या करता है और उन पर फैसले सुनाता है? क्या परिवार और कुल के पतनशील नियम और यौन आचार-विचार (हरियाणा में एक दलित महिला के साथ पुरूषों के एक ही समूह ने दो बार बलात्कार किया और झारखंड में व्हाट्सएप संदेशों से फैली अफवाह के चलते कई लोगों की भीड़ द्वारा हत्या कर दी गई) पुरूषों को प्रजनन संबंधी स्वामित्व और महिलाओं और बच्चों पर निंयत्रण और पहुंच नहीं देते हैं, अगर कानून का इन चीजों पर ध्यान नहीं जाता है, जिनमें से कुछ पुरूष मानसिक तौर अस्थिर होते हैं और जिन्हें मनोवैज्ञानिक और सांस्थानिक सलाह की जरूरत होती है?

लिंचिंग को भारत का कोई कानून सही नहीं ठहराता, लेकिन पिछले कुछ सालों में कोई भीड़ ऐसा करते हुए मुश्किल में दिखाई नहीं पड़ती। कोई समाज नहीं कहता है कि एक परिवार को आनुष्ठानिक तौर पर पूरे परिवार को फांसी पर चढ़ाने से पहले उन्हें रोटी खिलानी चाहिए। लेकिन यह जरूरी नहीं है, चूंकि परिवारों की ज्यादातर महिलाएं और बच्चे अंधविश्वासों से जकड़े होते हैं, वे परिवार के पुरूष मुखिया की अवहेलना करने की बजाय मर जाते हैं। कोई कानून भाईयों को बहनों को मारने और पिताओं को अपनी पत्नियों और बच्चों को मारने के लिए नहीं कहता है, लेकिन किसी कानून ने बाबाओं और तांत्रिकों को ऐसा आदेश देने के लिए प्रतिबंधित नहीं किया है और न ही उन्हें कानून के दायरे में लाया गया है। इस राष्ट्र में जहां एक ट्रोल दंड-मुक्त भाव से देश की विदेश मंत्री के पति को, जो खुद भी पूर्व गवर्नर हैं, अपनी पत्नी को मारने का आदेश देता है, और मंत्री की पार्टी का कोई नेता कुछ नहीं बोलता, वहां इस तरह का कठोर तौर-तरीका और पागलपन बढ़ेगा। अगर खाप जैसी जाति पंचायतें और कॉलेज के प्रिंसिपल ऐसे नियम बनाते रहेंगे कि लड़कियों और लड़कों को पार्क और सार्वजनिक जगहों पर साथ नहीं दिखना चाहिए, लड़कियों को जींस नहीं पहनना चाहिए, आधे दर्जन बाबाओं को कैबिनेट मंत्री बनाया जाएगा ताकि उनके अनुयायी सत्ताधारी पार्टी को वोट दे दें तो यह पूरी तरह विश्वसनीय है कि संयुक्त राष्ट्र के सर्वे में भारत महिलाओं के लिए अफगानिस्तान और पाकिस्तान से भी ज्यादा खतरनाक जगह नजर आएगी।

इस वक्त हमें मालूम चल रहा है कि करणी सेना के स्वयंसेवकों ने जिन्होंने कुछ महीनों पहले ‘पद्मावत’ और महिला ‘सम्मान’ को लेकर उत्पात मचाया था, उन्होंने भी इस मसले में टांग अड़ा दिया है और सीबीआई जांच की मांग की है और कहा है कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो वे फिर से रास्ता रोकेंगे! कई समझदार लोग सरकार से इस बकवास को रोकने की मांग कर रहे हैं। उनका मानना है कि भूखों और गरीबों को ठीक से खाना और रोजगार मिल गया तो खून-खराबे के लिए यह उन्माद अपने आप रुक जाएगा। लेकिन यहां एक सवाल पूछा जाना चाहिए: पावलोव का कुत्ता (मनोवैज्ञानिक सिद्धांत) क्या हर बार सच में भूखा था जब उसने अपने मालिक के घंटी बजाने पर जीभ लपलपाई?

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