राम पुनियानी का लेखः CAA देश को बांटने का एक और औजार, BJP की विघटनकारी राजनीति का हिस्सा
सीएए को जिस तरह से लाया गया है उससे मुस्लिम समुदाय स्वयं को और असुरक्षित अनुभव करेगा। चुनाव पर इसका क्या प्रभाव होगा यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है क्योंकि इसी तरह के मुद्दों का उपयोग बीजेपी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए करती आई है।
![CAA देश को बांटने का एक और औजार, BJP की विघटनकारी राजनीति का हिस्सा](https://media.assettype.com/navjivanindia%2F2024-03%2Fe84b2f7b-4693-4e3d-aa9a-24a88ecb81af%2FCAA_Protest.jpg?rect=0%2C0%2C938%2C528&auto=format%2Ccompress&fmt=webp)
जिस समय इलेक्टोरल बॉण्ड से जुड़ा बड़ा घोटाला परत-दर-परत देश के सामने उजागर हो रहा था, ठीक उसी समय केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) लागू करने के लिए नियमों और प्रक्रिया की घोषणा कर दी। यह अधिनियम करीब 4 साल पहले संसद द्वारा पारित किया गया था। इसे लागू करने की घोषणा उस समय की गई जब इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाला सामने आ रहा था और आम चुनाव नजदीक थे। बीजेपी की राजनीति के रंग-ढंग देखते हुए घोषणा के लिए यह समय चुने जाने का उद्देश्य स्पष्ट है।
असम में राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) से संबंधित कवायद के बाद सीएए पारित किया गया था। एनआरसी के अंतर्गत असम के लोगों से कहा गया था कि वे अपनी नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज प्रस्तुत करें। बताया यह जा रहा था कि असम में करीब 1.5 करोड़ बांग्लादेशी मुसलमानों ने घुसपैठ कर ली है और एनआरसी के जरिए सरकार उनकी पहचान कर उन्हें देश से बाहर निकाल सकेगी। कथित बांग्लादेशी घुसपैठियों को दीमक की संज्ञा दी गई और उनके लिए हिरासत केंद्र बनाए जाने लगे। मगर एनआरएसी के नतीजे आश्चर्यजनक साबित हुए। जिन करीब 19 लाख लोगों के पास अपनी नागरिकता को साबित करने के लिए दस्तावेज नहीं थे उनमें से 12 लाख हिन्दू निकले। जाहिर है कि 1.5 करोड़ बांग्लादेशी मुसलमानों के असम में होने के दावे एकदम गलत साबित हुए। इस शर्मिंदगी को ढांपने के लिए सीएए लाया गया।
सीएए के अंतर्गत दिसंबर 2014 के पहले अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से भारत में आए हिन्दुओं, ईसाईयों, सिक्खों, बौद्धों और जैनियों को भारत की नागरिकता दी जा सकती है। ज्ञातव्य है कि बीजेपी की सरकार जून 2014 में केन्द्र में सत्ता में आई थी। सीएए के अंतर्गत जिन धर्मों के लोगों को भारत की नागरिकता दी जा सकती है, उनमें इस्लाम शामिल नहीं है। इस मुद्दे पर पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुए। इनमें से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हुए प्रदर्शनों को बेरहमी से कुचल दिया गया। इसके बाद स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े आंदोलनों में से एक की शुरूआत हुई जिसे शाहीन बाग आंदोलन कहा जाता है। यह महत्वपूर्ण है कि शाहीन बाग आन्दोलन का नेतृत्व मुस्लिम महिलाओं ने किया। उनके हाथों में भारत का संविधान था और दिल में महात्मा गांधी का जज्बा।
तत्समय बीजेपी सांसद प्रवेश साहिब सिंह वर्मा ने कहा कि यह आन्दोलन हिन्दुओं के लिए खतरा हैं क्योंकि प्रदर्शनकारी हिन्दुओं के घरों में घुसकर महिलाओं के साथ बलात्कार कर सकते हैं। बीजेपी के ही कपिल शर्मा ने प्रदर्शनकारियों को धमकी दी थी कि या तो वे स्वयं अपने-अपने घर चले जाएं वरना पुलिस उन्हें जबरदस्ती हटा देगी। इसी संदर्भ में केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने "गोली मारो... " का नारा दिया था। इसके कुछ समय पश्चात दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा हुई जिसमें 51 लोग मारे गए। इनमें से 38 मुसलमान थे।
तब से सीएए ठंडे बस्ते में था। अब अचानक इसे फिर से जिंदा कर दिया गया है। इसके अंतर्गत पड़ोसी देशों में प्रताड़ित किये जा रहे लोगों को भारत में शरण दिये जाने की व्यवस्था और प्रक्रिया निर्धारित की गई है। जानीमानी वकील इंदिरा जय सिंह कहती हैं, "हमारा संविधान जन्म, वंश और देश में अप्रवास के आधार पर नागरिकता देता है। इसमें धर्म की कोई भूमिका नहीं है। नागरिकता अधिनियम 1955 संसद द्वारा इसलिए बनाया गया था ताकि नागरिकता देने और समाप्त करने की प्रक्रिया निर्धारित की जा सके। इस अधिनियम में नागरिकता प्रदान करने के लिए धर्म को पात्रता की शर्तों में शामिल नहीं किया गया था। मगर सीएए के अंतर्गत यहां रह रहे लोगों को केवल धर्म के आधार पर नागरिकता दी जाएगी।’’
इस तरह नागरिकता संशोधन विधेयक संविधान के अनुच्छेद-14 का उल्लंघन करता है, जिसके अंतर्गत सभी को विधि के समक्ष समानता और विधि की समान सुरक्षा की गारंटी दी गई है। इसके तहत व्यक्ति के धर्म का कोई महत्व नहीं है। अनुच्छेद-14 देश के नागरिकों पर ही नहीं वरन यहां रह रहे सभी व्यक्तियों पर लागू होता है। परन्तु सीएए के अंतर्गत मुसलमानों को नागरिकता देने की प्रक्रिया को फास्ट ट्रेक नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त, सीएए में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश को छोड़कर अन्य देशों से भारत आने वाले लोगों के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है। पाकिस्तान में अहमदिया मुसलमानों पर किस तरह के जुल्म होते हैं यह जगजाहिर है। मगर सीएए के अंतर्गत उन्हें भारत की नागरिकता नहीं दी जा सकती।
केन्द्र सरकार का तर्क है कि सीएए इसलिए लागू किया गया है कि ताकि पड़ोसी देशों में प्रताड़ित किए जा रहे अल्पसंख्यकों को बिना किसी परेशानी के भारत की नागरिकता मिल सके। मगर न तो इस कानून में और न इसके अंतर्गत बनाए गए नियमों में प्रताड़ना की चर्चा है। नागरिकता प्रदान करने से पहले सम्बन्धित व्यक्ति के लिए यह भी आवश्यक नहीं है कि वह अपनी प्रताड़ना का कोई सुबूत प्रस्तुत करे। सीएए के नियमों के अंतर्गत इन तीन देशों के प्रवासियों को केवल अपना धर्म, भारत में प्रवेश करने की तिथि, अपने मूल देश और एक भारतीय भाषा का ज्ञान साबित करना है। यहां तक कि मूल देश को प्रमाणित करने संबंधी नियमों को काफी नरम बना दिया गया है। पहले भारत द्वारा जारी वैध निवास परमिट और पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश द्वारा जारी वैध पासपोर्ट नागरिकता हासिल करने के लिए आवश्यक थे। अब इनकी आवश्यकता नहीं है। इसी तरह प्रताड़ना का कोई सबूत प्रस्तुत करना ज़रूरी नहीं है। पूरी प्रक्रिया को फास्टट्रेक कर दिया गया है।
तर्क यह दिया जा रहा है कि अन्य देशों में प्रताड़ित किये जा रहे मुसलमानों के लिए अनेक देशों के द्वार खुले हैं लेकिन हिन्दू केवल भारत ही आ सकते हैं। यह तर्क ठीक नहीं है। पाकिस्तान में ही हिन्दुओं और ईसाईयों के अलावा अहमदियाओं और कादियानों को भी जमकर प्रताड़ित किया जाता है। जब हम किसी प्रताड़ित समुदाय के लोगों को शरण देने की बात करते हैं तो दरअसल हम मानवता की बात कर रहे होते हैं। पिछले कुछ सालों में जो समुदाय सबसे अधिक प्रताड़ित हुए हैं उनमें श्रीलंका के हिन्दू तमिल और म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमान शामिल हैं। इन दोनों समुदायों को सीएए से बाहर क्यों रखा गया है?
सीएए के पारित होने के समय से ही कई संगठनों और व्यक्तियों ने विभिन्न आधारों पर अदालतों में इसे चुनौतियां दी हैं। इन चुनौतियों का मुख्य आधार भारत के संविधान के प्रावधान हैं। ये याचिकाएं अदालतों में लंबित हैं। हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि इनकी सुनवाई जल्द से जल्द होगी। यह बहुत साफ है कि बीजेपी अपनी विघटनकारी राजनीति के अंतर्गत इस मुद्दे को उठा रही है। पड़ोसी देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना से निपटने का यह तरीका उचित और कारगर नहीं है।
यह एक और मुद्दा है जिसका इस्तेमाल मुस्लिम समुदाय को अलग-थलग करने के लिए किया जाएगा। मुसलमान पहले से ही कम परेशानियां नहीं झेल रहे हैं। उन्हें नफरत और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। बीजेपी लगातार भावनात्मक और बांटने वाले मुद्दों को उठाकर चुनावों में जीत हासिल करती आई है। सीएए को जिस तरह से लाया गया है उससे मुस्लिम समुदाय स्वयं को और असुरक्षित अनुभव करेगा। चुनाव पर इसका क्या प्रभाव होगा यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है क्योंकि इसी तरह के मुद्दों का उपयोग बीजेपी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए करती आई है।
यह सुखद समाचार है कि ममता बनर्जी और पिनाराई विजयन जैसे मुख्यमंत्रियों ने घोषणा की है कि वे सीएए को अपने राज्यों में लागू नहीं होने देंगे। यह आशा की जानी चाहिए कि सामाजिक और राजनीकि स्तर पर हम उस पार्टी से मुकाबला कर पाएंगे जिसका मुख्य लक्ष्य बांटने वाले मुद्दों को उछालना है। और अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले में अपना निर्णय जल्द से जल्द सुना दे तो इससे अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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