CAA-NRC बीजेपी और संघ की खतरनाक चाल, लेकिन समता और बंधुत्व के मूल्यों पर खड़े भारत में नहीं होगी सफल

आरएसएस या हिंदुत्ववादी संगठनों ने राष्ट्र निर्माण के लिए कोई बलिदान नहीं दिया। न तो इनका संविधान में विश्वास है और न लोकतंत्र में। इन्होंने बीजेपी के जरिेये सत्ता पर कब्जा कर लिया है, लेकिन इस देश के बहुसंख्य लोग हिंदुत्व की विचारधारा के समर्थक नहीं हैं।

फोटोः सोशल मडिया
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नवजीवन डेस्क

लगता है, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की सांप्रदायिक राजनीति, भले ही कुछ समय के लिए, एक जाम में फंसी गई है। मतों के दोहन के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का बखूबी इस्तेमाल करना वे जानते हैं। यह तरीका गुजरात में काम आया और कुछ हद तक देश के पैमाने पर भी कामयाब रहा। उन्हें लगा कि यह पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर में भी काम कर जाएगा। कुछ समय के लिए ऐसा प्रतीत भी हुआ था कि उन्हें इन इलाकों में भी सफलता मिली है और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आलोचना करने वालों के मुंह बंद हो गए हैं। बीजेपी ने असम में अपनी सरकार बना ली और जम्मू-कश्मीर में आश्चर्यजनक ढंग से पीडीपी के साथ गठबंधन करके सत्ता हथिया ली थी, लेकिन जब इस राजनीति को उन्होंने एक हद से आगे ले जाने की कोशिश की तो उसके परिणाम प्रतिकूल निकले।

पूर्वोत्तर के बहु-अस्मिता वाले समाज में विभिन्न समुदायों की जनसंख्या छोटी होने के कारण उनको हमेशा बाहरी लोगों के बड़ी संख्या में आकर उन पर हावी होने की आशंका बनी रहती है। वे स्थानीय लोगों की सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखने की चिंता करते रहते हैं। बीजेपी ने बाहरी लोगों के प्रति स्थानीय लोगों के इसी भय की भावना पर सवारी करते हुए असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की प्रकिया शुरू की थी। उसे लग रहा था कि बाहरी यानी बांग्लादेश से आए ज्यादातर लोग मुस्लिम होंगे। उसने यह अपेक्षा नहीं की थी कि एनआरसी से छूटे लोगों में बहुसंख्य हिंदू होंगे।

ऐसी स्थिति में उसने एक सांप्रदायिक हथकंडे का इस्तेमाल किया। वह नागरिकता संशोधन विधेयक का प्रस्ताव लेकर आई जिसमें मुस्लिमों को छोड़कर बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान से आए सभी लोगों को भारत के नागरिक बनने का अधिकार दिया गया। उसे यह अंदाजा नहीं था कि असम या पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर का समाज उस तरह से सांप्रदायिक नहीं है जैसे हिंदी भाषी इलाके, गुजरात या महाराष्ट्र, जहां लोगों को सिर्फ धर्म के आधार पर बांटा जा सकता है। इन इलाकों में स्थानीय पहचान, उदाहरण के लिए कश्मीरियत या असमिया, ज्यादा अहम है।

जो विरोध प्रदर्शन पूर्वोत्तर से शुरू हुए वे अब पूरे देश में फैल गए हैं। एनआरसी की प्रकिया से वे सभी भूमिहीन या संपत्ति-विहीन लोग चिंतित हैं जिनके पास ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है, जिसके जरिए वे साबित कर सकें कि उनके पूर्वज भारत के निवासी थे। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) मुसलमान की गर्दन पर लटकती ऐसी तलवार है जिसके चलते यदि वह अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाया तो उसे अपराधी की तरह जेल में कैदी की तरह रखा जाएगा। एक सांप्रदायिक औजार से तीन देशों के मुसलमान शरणार्थियों या पीड़ितों को नागरिकता से वंचित करना, संविधान में हरेक नागरिक को मिले कानून के सामने बराबरी के अधिकार को ध्वस्त करना है। यह देश में विभिन्न स्तरों की नागरिकताओं को स्थापित करने की प्रक्रिया की शुरुआत होगी।


पाकिस्तान में लाहौर में रहने वाले पंजाबी को देश के प्रति सबसे ज्यादा वफादार माना जाता है, लाहौर के बाहर के पंजाबियों की वफादारी थोड़ी कम मानी जाती है, गैर-पंजाबियों की वफादारी सबसे कम मानी जाती है और पंजाब और सिंध के बाहर रहने वाले पाकिस्तानियों की तो नागरिकता ही संदिग्ध मानी जाती है। यदि आरएसएस और बीजेपी कुछ समय और भारत की राजनीतिक दिशा तय करते रहे तो धीरे-धीरे यहां भी ऐसी व्यवस्था कायम होने की आशंका है, जिसमें विशेष प्रकार के ब्राह्मणों की सर्वोच्चता के बाद देश के अन्य नागरिकों, मसलन-दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों आदि की नागरिकता हमेशा संदेह के दायरे में रहे।

नागरिकता पर सरकार की इस तरह की पहल से संविधान की मूल भावना और देश के सामाजिक ताने-बाने को अपूर्णीय क्षति पहुंचेगी। न्याय, स्वतंत्रता, बराबरी और बंधुत्व के मूल्यों पर आधारित एक आदर्श समाज की रचना की दिशा में हमने जो भी प्रगति की है उस पर पानी फिर जाएगा। भारतीय सभ्यता के इतिहास में पहली बार बाहर से आने वाले किसी को रोका जा रहा है। विश्व धर्म संसद के अपने प्रसिद्ध भाषण में स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म की यह खासियत बताई थी कि बाहर से आने वाले किसी को भी भारतीय समाज ने अपने में समाहित किया है। रोहिंग्या समुदाय पहले ऐसे लोग थे जिन्हें हिंदुत्ववादी सरकार ने भारत में आने से रोका और अब सीएए के माध्यम से सरकार इस भेदभाव को संस्थागत रूप देना चाहती है।

गृहमंत्री अमित शाह कहते हैं कि चुन-चुनकर इस देश से घुसपैठियों को निकालेंगे। जरा गौर से देखने की जरूरत है कि हमारी व्यवस्था में सबसे बड़े घुसपैठिए कौन हैं? आरएसएस या हिंदुत्ववादी संगठनों का कोई भी कार्यकर्ता आजादी के आंदोलन में जेल नहीं गया, सिवाय विनायक दामोदर सावरकर के, जो माफी मांग कर जेल से बाहर निकल आए और अंग्रेजों से पेंशन लेते रहे। इन संगठनों ने राष्ट्र निर्माण के लिए कोई बलिदान नहीं दिया। न तो इनका देश के संविधान में विश्वास है और न ही लोकतंत्र में। इन्होंने बीजेपी के माध्यम से भारत की सत्ता पर कब्जा कर लिया है। इस देश के बहुसंख्यक लोग अभी भी हिंदुत्व की विचारधारा के समर्थक नहीं हैं, लेकिन यह सरकार ऐसे निर्णय ले रही है जैसे देश की पूरी जनता ने उसे अधिकृत कर दिया हो।

कृषक मुक्ति संग्राम समिति के सलाहकार और असम के लोकप्रिय जमीनी नेता अखिल गोगोई को हाल में ‘विधि विरुद्ध क्रिया-कलाप निवारण अधिनियम’ के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया है। उनपर आरोप है कि उन्होंने विभिन्न समुदायों में धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, निवास, भाषा के आधार पर समाज में विद्वेष फैलाने और समाज में सद्भावना के लिए खतरा उत्पन्न किया है। ध्यान से देखें तो देश की वर्तमान परिस्थितियों में उपर्युक्त विवरण अखिल गोगोई की जगह मोदी सरकार पर सटीक बैठता है। लगता है, यह सरकार आज देश की दुश्मन बन गई है।

(संदीप और राहुल पाण्डेय का लेख सप्रेस से साभार)

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