CAA Protest: पूर्वोत्तर को हिंदू-मुस्लिम की नजर से नहीं समझा जा सकता

पूर्वोत्तर के नागरिकों की नजर में प्रत्येक स्थानीय भारतीय हो या न हो, लेकिन प्रत्येक भारतीय स्थानीय हो, यह जरुरी नहीं है। पूरे अंचल में 238 जमातें हैं जो अपनी वांशिकता को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनशील हैं। उनके लिए वांशिकता अहम है, हिंदू या मुसलमान होना नहीं।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया
user

सुभाष रानाडे

सभी सामाजिक सवालों को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखने की आदत पड़ जाने से जो कुछ हो सकता है, वह सब फिलहाल पूर्वोत्तर में हो रहा है। असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जो बेचैनी थी वह अब सड़कों पर दिखाई दे रही है। केंद्र सरकार इसका ठीकरा किसी दूसरे के भी माथे नहीं फोड़ सकती क्योंकि यह संकट उसी ने पैदा किया है। कई लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब पूर्वोत्तर के इन राज्यों को नए नागरिकता कानून से (‘इनर लाइन परमिट’ के आधार पर) अलग रखा गया है, तो इतना गुस्सा क्यों? ऐसे में इस मुद्दे पर समग्र चर्चा जरुरी है।

इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण है ‘स्थानीय’ और ‘भारतीय’ (इंडिजिनस एंड इंडियंस) के बीच का फर्क। इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण है, स्थानीय होना। वहां के नागरिकों की नजर में प्रत्येक स्थानीय भारतीय हो या न हो, लेकिन प्रत्येक भारतीय स्थानीय हो, यह जरूरी नहीं है। यह मुद्दा पूर्वोत्तर की हकीकत समझने के लिए महत्वपूर्ण है। इस पूरे अंचल में ज्ञात 238 जमातें हैं जो अपनी वांशिकता को लेकर बहुत संवेदनशील हैं। उनके लिए वांशिकता अहम है, हिंदू या मुसलमान होना नहीं।

पूर्वोत्तर राज्यों के बहुसंख्य तिब्बती-बर्मी, खासी-जयंतिया या मोन- खेमार वंशी हैं, जिनमें से कई जातियां-उपजातियां उपजी हैं। हालांकि इनके एक-दूसरे से संबंध सौहार्दपूर्ण रहे हैं, लेकिन वे अपने प्रदेश में अन्य किसी वंश के लोगों को आने देने के लिए उत्सुक नहीं होते। इसीलिए अरुणाचलियों को बौद्ध चकमा जाति की प्रबलता अच्छी नहीं लगती। मिजो भी अन्य किसी जाति को अपने यहां आने नहीं देते। मेघालय की राजधानी शिलांग में बड़े पैमाने पर स्थलांतरितों (दूसरे स्थानों से आए) की बस्ती है। वहां स्थानीय और स्थलांतरितों के संबंध हमेशा से तनावपूर्ण हैं।

दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि ये सभी मुसलमान नहीं हैं। इनमें से बहुसंख्य हिंदू हैं। इनमें बांग्लादेश के स्थलांतरित और बिहार आदि राज्यों से गए मेहनतकश शामिल हैं। बाहर से आए हिंदुओं और स्थानीय हिंदुओं के संबंध अच्छे नहीं हैं। इन सभी प्रदेशों और उनके म्यांमार, बांग्लादेश आदि के साथ भौगोलिक सौहार्द के मद्देनजर इनमें से कई प्रदेशों में ‘इनर परमिट प्रणाली’ लागू की गई है। अपने नाम के मुताबिक यह कोई प्रशासकीय व्यवस्था प्रतीत होती है, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। इस परमिट का मतलब है, उस परिसर में जाने का परमिट जो 24 घंटे का भी हो सकता है। परिसर के तनाव पर इसी परमिट पद्धति को गृहमंत्रीअमित शाह समाधान बता रहे थे, लेकिन इस परमिट पद्धति से भी वहां का क्षोभ शांत होता दिखाई नहीं दे रहा। इसकी वजह है, यह परमिट व्यवस्था तात्कालिक कारणों से अन्य प्रदेशों से आने वाले भारतीयों पर लागू है, वहां रहने वाले लोगों पर नहीं।


संशोधित नागरिकता कानून का सीधा संबंध इसी मुद्दे से है। पहले बांग्लादेश युद्ध और बाद में 1985 में हुए ‘असम करार’ के कारण इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी बसे हैं और ये सभी हिंदू हैं। असम में यह मुद्दा सर्वाधिक गंभीर है। ये लोग, जिन्हें घुसपैठिया कहा जाता है, सबसे पहले असम में घर बनाते हैं। इसलिए असमी नागरिकों का विरोध सभी घुसपैठियों के प्रति है, फिर चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। घुसपैठियों के खिलाफ इस संघर्ष का स्वरूप असमी बनाम बंगाली, असमी बनाम बिहारी आदि कई स्तरों पर है। यह संघर्ष अस्सी के दशक में भड़का था। उस समय हुई हिंसा में मरने वाले ज्यादातर हिंदू थे, इस सच्चाई को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में अंग्रेजों के जमाने में पहला बड़ा स्थलांतर हुआ। विभिन्न कामों के लिए अंग्रेज पड़ोसी बंगाल, बिहार आदि राज्यों से बड़े पैमाने पर मजदूरों को असम ले गए थे। ये लोग तब से असम में स्थायी हो गए। अस्सी के दशक में असम के छात्र आंदोलन के समय इन स्थलांतरितों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। तब तक यह आंदोलन असमी और गैर-असमी के बीच था। इस संघर्ष का अंत हुआ, ‘असम करार’ से। यह करार 15 अगस्त 1985 को भारत सरकार और असम आंदोलन के नेताओं के बीच हुआ। ‘असम करार’ में बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को वैधता देने की तारीख 25 मार्च 1971 तय की गई थी, लेकिन नए संशोधित कानून के मुताबिक यह तारीख 31 दिसंबर 2014 कर दी गई है। असम इसी वजह से गुस्से में है।

यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इन कथित ‘घुसपैठियों’ में बहुसंख्य हिंदू हैं। स्थानीय असमियों को यह कतई स्वीकार नहीं है। केंद्र सरकार का कहना है कि ये हिंदू हैं, इसलिए उन्हें अपना कहो, लेकिन स्थानीय लोगों को यह नामंजूर है। एक बार ये स्थलांतरित असम में टिके तो स्वाभाविक रूप से आसपास के राज्यों में भी पैर पसारते हैं। इस नए कानून और इसी के साथ राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण (एनआरसी) के कारण समूचे उत्तर-पूर्व में ‘बाहरी’ लोगों की तादाद बढ़ने की आशंका है। इसका सीधा मतलब है, स्थानीय आबादी का अल्पमत में आ जाना। ऐसी स्थिति में वंश, भाषा, वर्ण, खान-पान की आदतें और संस्कृति जैसे प्रत्येक मुद्दे पर स्वतंत्र इन 238 भिन्न-भिन्न जमातों में गुस्सा पैदा होना स्वाभाविक है।

इनमें असम सबसे आगे है, क्योंकि इस राज्य ने पहले भी काफी भुगता है। सिर्फ स्थलांतरित मुसलमान स्थानीय असमियों के आक्रोश का मुद्दा नहीं हैं, बल्कि सभी स्थलांतरित उनके गुस्से की वजह हैं। पिछली कई पीढ़ियों से असम में रहने वाले बंगाली और बिहारी भाषा बोलने वालों से भी स्थानीय लोगों में गुस्सा है। वह कई बार हिंसक रूप से भी उजागर हुआ है। इस राज्य की तमाम जमातें अपनी जीवन-शैली और संस्कृति के प्रति बेहद सजग और आक्रामक हैं। यदि उनको ऐसा लगता है कि नया नागरिकता संशोधन कानून उनकी जड़ें उखाड़ देगा, तो उनकी यह आशंका गलत नहीं है। असम की हिंसा के पीछे यही क्षोभ है।

(सप्रेस से साभार इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं)

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia


Published: 28 Dec 2019, 8:04 PM