मोदी सरकार की कई योजनाओं पर कैग के संगीन आरोप, क्या ये सब ट्रेलर है और पिक्चर अभी बाकी है!

‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ का दम भरने वाली केन्द्र सरकार पर भ्रष्टाचार को लेकर कैग ने गंभीर आरोप लगाए हैं। असलियत का पता जांच से ही लग सकता है लेकिन सरकार की ओर से ऐसे किसी कदम की उम्मीद तो नहीं ही है।

दिल्ली का द्वारका एक्सप्रेसवे जिसके निर्माण को लेकर कैग ने सवाल उठाए हैं (फोटो - विपिन)
दिल्ली का द्वारका एक्सप्रेसवे जिसके निर्माण को लेकर कैग ने सवाल उठाए हैं (फोटो - विपिन)
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ए जे प्रबल

नवंबर, 2010 में कैग (सीएजी - नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) की रिपोर्ट में कहा गया था कि 2जी स्पेक्ट्रम की नीलामी नहीं करके इसे ‘पहले आओ पहले पाओ’ के आधार पर आवंटित करने से सरकार को स्पेक्ट्रम का वास्तविक मूल्य नहीं मिल सका और इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपये का ‘सांकेतिक नुकसान’ हो गया। इसने ऐसा राजनीतिक तूफान खड़ा किया कि यूपीए सरकार उखड़ गई और इससे 2014 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने में मदद मिली। 

बीजेपी और मीडिया ने इसे मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में ‘बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार’ के उदाहरण के रूप में पेश किया; और जब कपिल सिब्बल ने यह समझाने की कोशिश कि इसमें ‘शून्य नुकसान’ हुआ है, तो इसने लोगों के अविश्वास को और गहरा कर दिया। आखिरकार, सात साल बाद सीबीआई अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया और माना कि इसमें भ्रष्टाचार होने का कोई सबूत नहीं है।

मोदी सरकार की कई योजनाओं पर कैग के संगीन आरोप, क्या ये सब ट्रेलर है और पिक्चर अभी बाकी है!

13 साल बाद अगस्त, 2023 में कैग रिपोर्टों की श्रृंखला ने न केवल नियमों और तय मानदंडों के उल्लंघन को उजागर किया है, बल्कि सरकार को शर्मिंद करने वाले विवरण जारी किए हैं जो संभावित धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार की ओर इशारा कर रहे हैं। इसके साथ ही कैग ने यह भी कहा कि आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीईए) द्वारा लिए गए निर्णयों का भी उल्लंघन किया गया है।

हालांकि तब की कैग रिपोर्ट और अब की अब की रिपोर्ट में तीन बड़े अंतर हैं। तत्कालीन कैग प्रमुख विनोद राय के उलट, मौजूदा कैग प्रमुख गिरीश चंद्र मुर्मू ने वास्तविक या सांकेतिक नुकसान के बारे में बात नहीं की है। 2010-11 के विपरीत मीडिया और विशेष रूप से टीवी चैनल इन रिपोर्टों पर ने ‘शिकारी’ की तरह झपट नहीं पड़े हैं और सरकार को कटघरे में खड़ा करना तो दूर, उससे सवाल तक नहीं पूछे गए हैं।

सबसे बड़ी बात, मौजूदा सरकार और सत्तारूढ़ दल ने बेशर्मी से दावा किया है कि कैग की रिपोर्टें ‘गलत’ और दोषपूर्ण हैं। सरकार के दावे की जांच लोकसभा की लोक लेखा समिति (पीएसी) कर सकती है लेकिन पीएसी अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी को केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल द्वारा पेश एक प्रस्ताव पर सदन से निलंबित कर दिया गया है।

क्या निलंबन और पीएसी की बैठकों के बीच कोई रिश्ता है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है।


इस बार कैग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि सड़क परिवहन मंत्रालय ने हरियाणा में 19 किलोमीटर के राजमार्ग के लिए प्रति किलोमीटर 250 करोड़ रुपये का भुगतान किया जबकि सीसीईए द्वारा अनुमोदित लागत 18 करोड़ रुपये ही थी। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि शेष राजमार्ग के लिए, सीसीईए की 15 करोड़ रुपये की मंजूरी की तुलना में प्रति किलोमीटर 32 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया।

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी से जब लाइव टीवी पर एक कार्यक्रम में इस पर टिप्पणी करने के लिए ‘कहा गया’ तो वह जैसे स्पष्टीकरण के साथ तैयार थे। उन्होंने जोर देकर कहा कि कैग ने गलती की है। गडकरी ने यह तक कहा कि वास्तव में यह परियोजना अपेक्षित लागत से कम में पूरी हुई है और इसके परिणामस्वरूप बचत हुई है। हालांकि गडकरी ने मंत्रालय के अधिकारियों की ओर से हुई एक ‘छोटी सी गलती’ स्वीकार की कि अधिकारियों ने ऑडिटरों को मौखिक रूप से बताया था कि कहीं कोई अनियमितता नहीं हुई लेकिन उन्होंने यही बात लिखित में नहीं दी। 

खैर, कैग कार्यालय से सेवानिवृत्त एक प्रतिष्ठित पूर्व वरिष्ठ अधिकारी जिन्होंने कई देशों में संयुक्त राष्ट्र के लेखा परीक्षक के तौर पर काम किया है, ने इस पर तीखी टिप्पणी की- ‘ऑडिटर बेवकूफ तो नहीं हैं।’ उन्होंने बताया कि इन दिनों ऑडिटर सिर्फ वाणिज्य स्नातक नहीं हैं बल्कि तकनीकी विशेषज्ञता से लैस हैं। उनमें से कई वित्त, बैंकिंग या बीमा में डिग्री वाले इंजीनियर हैं। खातों और डिजिटल रिकॉर्डों के कम्प्यूटरीकरण ने भी काफी हद तक गलतियों की संभावना को कम कर दिया है।

प्रक्रिया ही ऐसी होती है कि कैग रिपोर्टों में गलतियां असंभावित जान पड़ती हैं। कैग सूत्रों का कहना है कि ऑडिट आपत्तियां चर्चा के दौरान संबंधित सरकारी अधिकारियों के ध्यान में लाई जाती हैं; और अगर लेखा परीक्षकों को संतोषजनक और ठोस स्पष्टीकरण मिल जाता है तो आपत्तियां हटा दी जाती हैं। अंतिम रूप देने के बाद ड्राफ्ट ऑडिट रिपोर्ट को दोबारा सरकार से साझा करके उसे आपत्तियां उठाने के लिए पर्याप्त समय दिया जाता है। एक बार जब रिपोर्ट को कैग मंजूरी देकर उसपर दस्तखत कर देता है, उसके बाद इसकी मुद्रित प्रतियां संसद में रखने के लिए सरकार को भेज दी जाती हैं और फिर रिपोर्ट सार्वजनिक हो जाती हैं और कैग की वेबसाइट पर उपलोड कर दी जाती हैं।

कैग निश्चित रूप से सीबीआई नहीं है और यह केवल धोखाधड़ी, गबन और भ्रष्टाचार की संभावनाओं की ओर इशारा कर सकती है। यह तो एक ‘प्रो-एक्टिव’ या ‘एक्टिविस्ट’ सुप्रीम कोर्ट था जिसने 2जी घोटाले की सीबीआई जांच के आदेश दे दिए थे। बीजेपी सरकार जिसने रातों-रात सीबीआई निदेशक को हटाकर राफेल ‘सौदे’ की सीबीआई जांच को रोक दिया, के 2023 के कैग के नतीजों की जांच का आदेश देने की कोई संभावना नहीं है। राफेल सौदे पर सीबीआई जांच से इनकार करने वाले सुप्रीम कोर्ट की ओर से भी कैग रिपोर्ट पर किसी तरह की जांच के आदेश की संभावना नहीं है। 


फिर भी कैग रिपोर्ट में उठाए गए मुद्दे स्वतंत्र जांच के विषय हैं। प्रति परिवार पांच लाख रुपये तक चिकित्सा उपचार सुनिश्चित करने वाली बहुप्रचारित आयुष्मान भारत स्वास्थ्य योजना में कैग ने पाया कि राज्यों में लगभग 75 लाख लोगों को सिर्फ एक मोबाइल नंबर के जरिये पंजीकृत किया गया था। सरकार के अज्ञात सूत्रों और कुछ सेवानिवृत्त अधिकारियों ने इसे ‘तकनीकी गड़बड़ी’ करार देते हुए कहा कि चूंकि तब तक प्लेटफॉर्म तैयार नहीं हुआ था, इसलिए मरीजों को पंजीकृत करने के लिए एक मनमाने फोन नंबर का इस्तेमाल कर लिया गया। 

हालांकि इस दलील पर यकीन करना मुश्किल है। जब तक कोई मिलीभगत न हो, एक ही नंबर का इस्तेमाल अलग-अलग अस्पतालों, शहरों और राज्यों में भला कैसे किया जा सकता है? कैग रिपोर्ट वास्तव में इस्तेमाल किए गए एक नहीं बल्कि तीन ऐसे नंबरों की पहचान करती है; और चूंकि कैग ऑडिट चुनिंदा राज्यों और केन्द्रों में योजना के केवल एक छोटे से हिस्से से संबंधित है, इसलिए ‘घोटाले’ का आकार बहुत बड़ा हो सकता है। 

दरअसल, कैग रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख है कि इसके ऑडिट में पाया गया कि ऐसे 88,000 लोगों को भुगतान दिया गया था जो मर चुके थे।

सरकारी प्रवक्ताओं द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण यह है कि एक बार फिर कैग ने गलती की; आयुष्मान भारत के तहत दावों को पंजीकृत करने और मंजूरी देने में आमतौर पर 2-4 दिन लगते हैं और इस अवधि के दौरान इलाज करा रहे मरीजों की मृत्यु हो जाती है, तब भी उनका भुगतान किया जाता है। ऐसे में, भुगतान ‘मृतकों’ को जारी कर दिया गया क्योंकि उनकी मृत्यु के बाद उन्हें योजना के तहत ‘पात्र’ पाया गया। 

मौजूदा कैग गिरीश चंद्र मुर्मू की पृष्ठभूमि भी रिपोर्ट में ‘गलती’ की संभावनाओं को दूर की कौड़ी बनाती है। मुर्मू ने केंद्रीय वित्त मंत्रालय में संयुक्त सचिव और व्यय सचिव के रूप में कार्य किया और 2019 में वह केंद्रीय बजट पेश करने वाली टीम का हिस्सा थे। क्या वह वित्त और सरकारी विभागों के कामकाज के बारे में गहन जानकारी के बावजूद ‘दोषयुक्त’ रिपोर्ट को मंजूरी दे सकते हैं, जैसा कि गडकरी ने आरोप लगाया है?

रहस्य से पर्दा तभी उठ सकता है जब उन्हें और उनके ऑडिटरों को लोक लेखा समिति (पीएसी) द्वारा स्पष्टीकरण देने के लिए बुलाया जाए। समिति की अध्यक्षता वर्तमान में लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी कर रहे हैं; लेकिन जब तक लोकसभा से उनका निलंबन वापस नहीं लिया जाता, तब तक वह पीएसी की बैठकों में भी शामिल नहीं हो पाएंगे, ऐसा मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है।


गौरतलब है कि चौधरी ने इस महीने कैग के रूप में तीन साल पूरे करने वाले मुर्मू को पत्र लिखकर पिछले कई वर्षों में कैग की रिपोर्ट जमा करने में हुई अत्यधिक देरी को लेकर शिकायत की थी। चौधरी ने लिखा था कि ‘रिपोर्टों में देरी से होता यह है कि ज्वलंत मुद्दे जल्द ही भुला दिए जाते हैं। जब तक रिपोर्ट आती है, तब तक राज्यों में सरकारें बदल चुकी होती हैं या बाद की घटनाएं मूल विषय पर हावी हो चुकी होती हैं।’ साथ ही अधीर ने मीडिया को बताया था कि देरी के बारे में स्पष्टीकरण देने के लिए पीएसी ने कैग को बुलाया है। हो सकता है कि अधीर के इस पत्र ने संभवतः मानसून सत्र में कई कैग रिपोर्टों को पेश करने के लिए प्रेरित किया हो।

ऐसी चर्चा है कि मुर्मू से पहले के कैग राजीव महर्षि कई रिपोर्टों को दबाए बैठे थे। यूपीए सरकार के दौरान प्रस्तुत की गई औसतन लगभग 200 रिपोर्टों की तुलना में कैग ने 2017-18 में 98 रिपोर्टें और 2018-19 में 73 रिपोर्टें तैयार कीं जिनमें से ज्यादातर 2013-2015 की अवधि से संबंधित थीं। इसके बाद रिपोर्टें बंद हो गईं और इसका एक कारण कोरोना और उसके बाद का लॉकडाउन भी रहा। 

उधर गडकरी ने अब तक कैग की इस टिप्पणी का खंडन करने की जहमत नहीं उठाई है कि जहां सीसीईए ने 34 हजार किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने के लिए 5.34 लाख करोड़ रुपये के बजट को मंजूरी दी थी वहीं केवल 26 हजार किलोमीटर के निर्माण के लिए 8.46 लाख करोड़ रुपये के ठेके कैसे जारी कर दिए गए। 

हालांकि कैग की रिपोर्टें अन्य मंत्रालयों में भी अनियमितताओं की ओर इशारा करती हैं और खुलासा करती हैं कि कैसे अयोध्या में ठेकेदारों को 20 करोड़ रुपये ज्यादा दे दिए गए और ग्रामीण विकास मंत्रालय ने अपने पेंशन फंड से 2.83 करोड़ रुपये का इस्तेमाल प्रचार के लिए कर लिया। जाहिर है, एनएचएआई और सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के खिलाफ आरोप काफी संगीन हैं। 

मुख्यधारा के मीडिया और टीवी चैनलों ने जिस तरह कैग की रिपोर्टों में गड़बड़ियों की तरफ से मुंह फेर रखा है, उससे सरकार पर इनके खिलाफ जांच का आदेश देने का भी कोई दबाव नहीं है। लेकिन अगर अनियमितताओं ने किसी कारण तूल पकड़ भी लिया तो मोदी-शाह की जोड़ी अगले चुनाव से पहले गडकरी को सूली पर चढ़ाने से शायद ही गुरेज करे। यह भ्रष्टाचार के खिलाफ योद्धा के रूप में प्रधानमंत्री की छवि को और मजबूत ही करेगा और उन्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाएगा जो अपनी ही पार्टी के नेता और केन्द्रीय मंत्री के खिलाफ कार्रवाई करने से भी नहीं हिचकता। 

किसी को नहीं पता कि क्या यह सब महज ट्रेलर है और ‘पिक्चर अभी बाकी है’?

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