क्या सिर्फ विकास दर को तेज करने से खत्म हो सकती है बेरोजदारी, आंकड़े खारिज करते हैं इस तर्क को
सीएमआईई डेटा सरकार की इस नीति को गलत साबित करते हैं कि विकास दर को तेज करके ही बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है।
![हर शहर में लेबर चौक हैं, जहां काम की तलाश में लोग सुबह-सुबह अपने औजार लेकर पहुंचते हैं। इनमें से अधिकतर को रोजाना काम नहीं मिलता है (फोटो - सोशल मीडिया)](https://media.assettype.com/navjivanindia%2F2023-11%2F79f08333-8e85-401a-a903-7dff637da4bc%2FLabour_Chowk.jpg?rect=0%2C0%2C1200%2C675&auto=format%2Ccompress&fmt=webp)
हमारी जैसी अर्थव्यवस्था में जहां कार्यबल नियोजित और बेरोजगारों के बीच स्पष्ट रूप से विभाजित नहीं है और जहां बड़े पैमाने पर अस्थायी काम होते हैं, बेरोजगारी को ठीक-ठीक मापना बड़ा ही मुश्किल काम है। चूंकि बेरोजगारी पता करने के तरीके में आवश्यक रूप से संबंधित व्यक्ति से यह पूछना शामिल है कि उसे अतीत में एक निश्चित अवधि में कितना काम मिला था, बेरोजगारी की तस्वीर अलग-अलग उभरती है। यह इस बात पर निर्भर करती है कि किस अवधि के बारे में आंकड़े जुटाए गए और उस अवधि विशेष में कितना रोजगार होता है।
यही वजह है कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) में तीन अलग-अलग अवधारणाएं हैं: सामान्य स्थिति, साप्ताहिक स्थिति और दैनिक स्थिति। जबकि एनएसएस ने अपना व्यापक नमूना सर्वेक्षण हर पांच साल में किया, इसका वार्षिक सर्वेक्षण बहुत छोटे नमूने पर आधारित होने के कारण इसके आंकड़े अस्थायी ही माने जा सकते हैं। इसलिए रिसर्चर सेंटर फॉर मॉनीटरिंग द इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों पर ज्यादा भरोसा करने लगे। सीएमआईई एक गैर-आधिकारिक संगठन है जो हर महीने नमूना सर्वेक्षण करता है- शहरी सर्वेक्षण हर हफ्ते आयोजित किया जाता है- जिसमें लोगों से पूछा जाता है कि सर्वेक्षण की तारीख को क्या वे रोजगार से जुड़े हैं या नहीं।
बेरोजगारी दर को कुल श्रम बल में बेरोजगारों (जो काम करने के इच्छुक हैं और काम की तलाश कर रहे हैं) के अनुपात के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें दोनों शामिल होते हैं- जो काम कर रहे हैं और जो काम की तलाश कर रहे हैं। कुछ लोगों को इसके माप के बारे में आपत्ति हो सकती है लेकिन इसमें संदेह नहीं कि सीएमआईई छोटे अंतराल पर लगातार आंकड़े उपलब्ध कराता है जो रुझानों के विश्लेषण के लिहाज से उपयोगी हो सकते हैं।
अक्टूबर, 2023 के नवीनतम सीएमआईई आंकड़ों के मुताबिक देश में बेरोजगारी दर 10.05 फीसदी; ग्रामीण बेरोजगारी दर 10.82 फीसदी और शहरी बेरोजगारी दर 8.44 फीसदी थी। कुल बेरोजगारी दर न केवल पिछले महीने (7.09 फीसदी) की तुलना में बढ़ गई, बल्कि मई, 2021 के बाद से यह सबसे अधिक रही और इसमें तेज वृद्धि दर्ज की गई। इससे पहले बेरोजगारी दर में ऐसी तेजी 2020 में मोदी सरकार द्वारा कोविड-19 के मद्देनजर लगाए गए लॉकडाउन के कारण आई थी।
इसके कारण स्वाभाविक ही अर्थव्यवस्था में बढ़ते बेरोजगारी संकट पर चर्चा छिड़ गई है। हालांकि मैं इस संदर्भ में एक और पहलू को जोड़ना चाहता हूं। चूंकि सीएमआईई-अनुमानित बेरोजगारी दर एक महीने से दूसरे महीने में स्पष्ट रूप से बदलती प्रतीत होती है, मेरे पास बढ़ते बेरोजगारी संकट को स्थापित करने के लिए सीएमआईई आंकड़ों (मासिक बेरोजगारी दर के बजाय) के एक अलग पहलू पर ध्यान केन्द्रित करने का एक खास तर्क है।
सीएमआईई प्रमुख के अनुसार, भारत का कार्यबल (जो नियोजित व्यक्तियों की संख्या का पर्याय है) पिछले पांच वर्षों में लगभग 40 करोड़ से थोड़े अधिक पर स्थिर रहा है जिसका अर्थ है कि रोजगार में बिल्कुल वृद्धि नहीं हुई है। अक्टूबर, 2023 में जब बेरोजगारी दर तेजी से बढ़ी तो कुल श्रम शक्ति में भी अचानक वृद्धि देखी गई। श्रम बल में यह वृद्धि श्रम भागीदारी दर में गिरावट के कारण नहीं बल्कि कामकाजी उम्र की आबादी में वृद्धि के कारण है। एक सामान्य गणित से पता चलता है कि नियोजित व्यक्तियों की संख्या में कोई बदलाव नहीं आया।
यह 2019 के बाद से बेरोजगारी दर में वृद्धि की ओर इशारा करता है। सीएमआईई के मुताबिक, बेरोजगारी दर जो 2019 में 5.27 फीसद थी और 2020 में बढ़कर 8 फीसद हो गई थी, वह अगले दो वर्षों में क्रमशः 5.98 और 7.33 फीसद रही। इसके बाद 2023 में यह और भी ज्यादा बढ़ गई।
तमाम विश्लेषकों ने रोजगार में ठहराव और बेरोजगारी दर में वृद्धि को महामारी की वजह से अर्थव्यवस्था में आई गिरावट की स्थिति में हुए अधूरे सुधार को जिम्मेदार ठहराया है जबकि महामारी के बाद जीडीपी में सुधार की रफ्तार निस्संदेह धीमी रही है। सरकार का यही दावा रहा है कि ‘भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाला देश है’ लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि केवल यह तथ्य रोजगार संख्या में ठहराव की व्याख्या नहीं कर सकता।
उदाहरण के लिए 2019 की तुलना में 2023 में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 16 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई है (2023 के लिए 6 फीसदी की वृद्धि दर को मानते हुए)। अगर सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के बावजूद रोजगार में वृद्धि नहीं हुई है, तो यह केवल जीडीपी की गति की ओर नहीं बल्कि विकास प्रक्रिया की प्रकृति की ओर भी इशारा करता है।
भारत का अपना अनुभव इस नीति को गलत साबित करता है कि बेरोजगारी को केवल तभी दूर किया जा सकता है जब विकास दर में तेजी लाई जाए। वास्तव में, यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि विकास कैसे लाया जाता है। रोजगार में जो ठहराव देखने को मिल रहा है, वह इसलिए है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों के दौरान विकास की प्रकृति बदल गई है, जिससे कम रोजगार पैदा हो रहा है।
सरकार की ओर से मदद का हाथ खींच लेने का नतीजा यह हुआ कि छोटे और लघु उत्पादन क्षेत्रों पर काफी प्रतिकूल असर पड़ा। इसके साथ ही बेलगाम विदेशी प्रतिस्पर्धा के कारण समस्या और बढ़ गई। मोदी सरकार के दो कदमों से इसकी मुश्किलें और बढ़ गईं- नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू कर देना। कोविड-19 के कारण सरकार द्वारा लगाए गए कठोर लॉकडाउन का इस क्षेत्र पर और भी विनाशकारी प्रभाव पड़ा। अर्थव्यवस्था का सबसे अधिक रोजगार-गहन क्षेत्र अब भी इन्हीं कारकों से जूझ रहा है, और यह जीडीपी वृद्धि का असमान पुनरुद्धार है जो रोजगार के पिछड़ने के लिए जिम्मेदार है, इस हद तक कि इसकी वृद्धि वास्तव में लगभग शून्य हो गई है।
जाहिर है, बीजेपी सरकार की झोली में रोजगार बढ़ाने के जो भी नुस्खे हैं, उनसे काम नहीं बनने जा रहा। ये उपाय प्रोत्साहन प्रदान करने पर केंद्रित हैं जो पूंजीपतियों को अधिक निवेश करने के लिए प्रेरित करने के इरादे से किए जाते हैं, ताकि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर तेज हो सके। ये उपाय दो बहुत अलग कारणों से बेकार हैं। सबसे पहले, एक ऐसे बाजार में जहां चंद खिलाड़ियों के हाथ में एकाधिकार हो और बाकी के पास कुछ भी नहीं, वहां निवेश मांग में अपेक्षित वृद्धि पर निर्भर करता है। जब तक मांग बढ़ाने के लिए कदम नहीं उठाए जाते, पूंजीपतियों को दी जाने वाली मदद से निवेश नहीं बढ़ता।
इस मद में सरकार की ओर से दी जाने वाली कोई भी मदद बस उनकी जेब को भारी करती है। इससे भी अहम बात यह है कि राजकोषीय घाटे को निर्धारित सीमा के भीतर रखने के लिए जब सरकारी खर्चे में कटौती करके पूंजीपतियों को आर्थिक मदद दी जाती है, तो इसका एक असर यह होता है कि मांग में शुद्ध कमी आ जाती है जो अर्थव्यवस्था को सिकुड़ा देती है और इसलिए अनुत्पादक है, क्योंकि पूंजीपति उन्हें सौंपे गए हस्तांतरण की पूरी राशि खर्च नहीं करते।
दूसरा, भले ही इस तरह के हस्तांतरण से निवेश बढ़ सकता है और परिणामस्वरूप जीडीपी में भी वृद्धि हो सकती है जिन क्षेत्रों में ऐसी वृद्धि होगी वे विशेष रूप से रोजगार-गहन नहीं हैं; सरकारी उपाय लघु उत्पादन क्षेत्र को बढ़ावा नहीं दे पाते जहां बड़े पैमाने पर रोजगार केंद्रित होता है। विडंबना यह है कि रोजगार को बढ़ावा देने के नाम पर पूंजीपतियों को कर रियायतें देते समय सरकार सरकारी क्षेत्र के भीतर मौजूद बड़ी संख्या में रिक्तियों को भरने से परहेज कर जाती है ताकि खर्चे को कम किया जा सके। इसका प्रत्यक्ष कारण राजकोषीय बाधा है; लेकिन राजकोषीय बाधा स्वयं, अन्य बातों के अलावा, पूंजीपतियों को दी गई कर रियायतों के कारण उत्पन्न होती है।
यह भी विडंबनापूर्ण तथ्य है कि सरकार ऐसे समय में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में कटौती कर रही है जब ग्रामीण बेरोजगारी दर बढ़ रही है, जैसा कि अक्टूबर के आंकड़े बताते हैं। भाजपा सरकार अपने क्रूर वर्ग-पूर्वाग्रह के साथ हमेशा ही मनरेगा का विरोध करती रही है। किसी न किसी बहाने से वह इस योजना को वापस लेने की कोशिश करती रही है और भ्रष्टाचार के हालिया आरोप इसका बजट घटाने का नया बहाना बन गए हैं।
सीएमआईई डेटा, बढ़ते बेरोजगारी संकट को उजागर करने के साथ-साथ, बेरोजगारी पर भाजपा सरकार की बेतुकी सोच को भी उजागर करते हैं।
(आईपीए सेवा। (सौजन्य: पीपुल्स डेमोक्रेसी)
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