क्या हम हिमालय के विनाश को बर्दाश्त कर सकते हैं?

हिमाचल प्रदेश समेत हिमालयीन राज्यों को देश के अन्य भागों के लोगों के जीवन की गुणवत्ता, कृषि, जलवायु नियंत्रण, जल विद्युत, कार्बन सोखने और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में उनके गैर-मौद्रिक, लेकिन महत्वपूर्ण योगदान के लिए केंद्र सरकार द्वारा मुआवजा दिया जाना चाहिए।

क्या हम हिमालय के विनाश को बर्दाश्त कर सकते हैं?
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अभय शुक्ला

हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे हिमालयीन राज्य बादल फटने, अचानक बाढ़, भू-धंसाव और भरभराते बुनियादी ढांचे की मार से अलग-अलग टुकड़ों में बंट रहे हैं। अकेले हिमाचल प्रदेश में इन आपदाओं के कारण 2022 और 2025 के बीच 1,200 लोगों की जान जा चुकी है और 18,000 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा है (इसमें व्यापार और आर्थिक गतिविधियों को हुआ अप्रत्यक्ष नुकसान शामिल नहीं)।

सरकार हमें समझाना चाहती है कि जो हो रहा है, वह प्राकृतिक आपदा है। बहरहाल, यह प्राकृतिक आपदा है या मानव निर्मित, यह इस आलेख का विषय नहीं। मैं इस आलेख में इससे भी बड़े और जरूरी विषय की ओर ध्यान खींचना चाहता हूं- क्या देश हिमालय के विनाश को झेल सकता है और क्या इन हिमालयीन राज्यों को मदद की जरूरत है?

हिमाचल और उत्तराखंड के जंगलों, ग्लेशियरों और नदियों के बिना उत्तर भारत और उसके गंगा के मैदान रेगिस्तान बन जाएंगे। ये नदियां लगभग 30 करोड़ लोगों का भरण-पोषण करती हैं और कई शहरों की जीवनरेखा हैं। हिमालय की हिन्दुकुश पर्वतमालाएं जलवायु को संतुलित रखने में मदद करती हैं, जिससे मानसूनी वर्षा और हिमपात संभव होता है और हर साल नदियां पानी से भर जाती हैं। इनमें हिन्दू धर्म के कुछ सबसे पूजनीय धार्मिक स्थल और तीर्थयात्रा मार्ग स्थित हैं। ये ‘हरित फेफड़े’ हैं जो उत्तर भारत को सांस लेने में सक्षम बनाते हैं और हर साल 4 करोड़ पर्यटकों को राहत प्रदान करते हैं। हम इस प्राकृतिक संपदा को खोने का जोखिम नहीं उठा सकते, लेकिन आर्थिक बाध्यताओं के कारण हम इन्हें खोते जा रहे हैं।

हिमाचल जैसे हिमालयीन राज्यों के लिए तो यह दोहरी मार है। एक ओर तो आय के सीमित स्रोत होने के कारण वे राजस्व घाटे से जूझ रहे हैं- उनके पास सेब की खेती को छोड़कर न तो अधिशेष कृषि उत्पादन है और न ही औद्योगिक या विनिर्माण आधार या फिर मजबूत सेवा क्षेत्र। दूसरी ओर, भौगोलिक हालात और जलवायु संबंधी कारणों से बुनियादी विकास की लागत मैदानी इलाकों की तुलना में दोगुनी है।


उनके लिए आय के एकमात्र स्रोत उनके जंगल और नदियां हैं, जिनका जलविद्युत प्रोजेक्ट और पर्यटन के लिए बेरहमी से दोहन किया जा रहा है। पिछले 20 सालों में हिमाचल प्रदेश ने विभिन्न गैर-वानिकी परियोजनाओं के लिए 11,000 हेक्टेयर घने जंगल का इस्तेमाल कर लिया है। इसकी वजह से हमें कई तरह के नुकसान उठाने पड़ते हैं और जान-माल की हानि उठानी पड़ती है। पिछले कुछ सालों के दौरान इस तरह के खतरों की तीव्रता जलवायु परिवर्तन के कारण और बढ़ गई है, जो नदियों के जल विज्ञान को बुरी तरह प्रभावित कर रही है, हिमनदों के पिघलने में तेजी ला रही है और हिमनद झीलों के फटने से बाढ़ का खतरा बढ़ा रही है।

काश, केन्द्र सरकार इन हिमालयीन राज्यों की वास्तविक संपदा और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में इनके योगदान को समझ पाती और उनके मामलों को विशुद्ध नफे-नुकसान के नजरिये से नहीं देखती। 

वन प्रबंधन संस्थान, भोपाल की 2025 की रिपोर्ट के मुताबिक, हिमाचल की कुल वन संपदा का मूल्य 9.95 लाख करोड़ रुपये आंका गया था। रिपोर्ट में हिमाचल के वनों का सालाना सकल आर्थिक मूल्य (टीईवी) 3.20 लाख करोड़ रुपये आंका गया है- इसमें कार्बन सोखने के लिए 1.65 लाख करोड़ रुपये, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए 68,941 करोड़ रुपये, जैव विविधता के मूल्य के रूप में 32,901 करोड़ रुपये, जल प्रावधान के लिए 13 करोड़ रुपये, बाढ़ नियंत्रण और तलछट रोके रखने जैसे योगदान के लिए 13 करोड़ रुपये शामिल हैं।

इन योगदानों से सिर्फ हिमाचल ही नहीं, बल्कि पूरे देश को फायदा होता है। अफसोस की बात है कि राज्यों को केन्द्रीय मदद देते समय न तो इन योगदानों के आधार पर राशि तय की जाती है और न इस ओर ध्यान ही दिया जाता है। इसमें बदलाव जरूरी है। हिमाचल प्रदेश (और अन्य हिमालयीन राज्यों) को देश की भलाई, जीवन की गुणवत्ता और कृषि, जलवायु नियंत्रण, जल विद्युत, कार्बन सोखने और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में उनके गैर-मौद्रिक, लेकिन महत्वपूर्ण योगदान के लिए केन्द्र सरकार द्वारा मुआवजा दिया जाना चाहिए।

वैसे, ऐसा करने की व्यवस्था पहले से ही मौजूद है- वित्त आयोग, जो राज्यों को केन्द्रीय धन हस्तांतरित करने का सूत्र तय करता है। इसकी शुरुआत 12वें वित्त आयोग ने की थी, जिसने इस उद्देश्य के लिए कुल 1,000 करोड़ रुपये आवंटित किए थे। ‘हरित बोनस’ कहे जाने वाले इस मद में हिमाचल प्रदेश का हिस्सा मात्र 20 करोड़ रुपये था।


‘हरित कोष’ बनाने के विचार को आगे बढ़ाना चाहिए। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू ने 16वें वित्त आयोग के अध्यक्ष के समक्ष यह मुद्दा उठाया है और पर्वतीय राज्यों को प्रोत्साहित करने के लिए 50,000 करोड़ रुपये के बजट के आवंटन का अनुरोध किया है। इस पर गंभीरता से गौर किया जाना चाहिए- अतिरिक्त धन आवंटन हिमालयीन राज्यों की वित्तीय स्थिति को सुधारने में काफी मददगार साबित होगा और बजट घाटे को पूरा करने के लिए पारिस्थितिक पूंजी का बेरहमी से दोहन करने की उनकी मौजूदा मजबूरी को दूर करेगा।

इस धनराशि को पर्यावरणीय मानकों में सुधार, विकास और पर्यटन परियोजनाओं की स्थिरता, नदियों के संरक्षण और अवैध खनन एवं निर्माण कार्यों पर अंकुश लगाने के आधार पर जारी किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट हिमाचल प्रदेश में पर्यावरणीय विनाश का स्वतः संज्ञान लेते हुए सुनवाई कर रहा है। शीर्ष अदालत का कहना है कि जिस गति से यह विनाश हो रहा है, उससे हिमाचल ‘भारत के मानचित्र से गायब हो जाएगा’। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट को भी इस मुद्दे पर विचार करना और केन्द्र सरकार को ऐसा कोष बनाने के लिए कहना चाहिए।

हिमालय की रक्षा को एक साझा जिम्मेदारी के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि केवल पर्वतीय राज्यों की चिंता के रूप में। अगर हिमालय अपने जंगल, नदियां और ग्लेशियर खो देता है, तो उत्तर भारत का हश्र सिंधु घाटी सभ्यता जैसा होने में देर नहीं लगेगी।

(यह https://avayshukla.blogspot.com से लिए लेख का संपादित रूप है। लेखक अभय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं)

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