इराक में 39 भारतीयों की हत्या: मरने वालों के परिवार को केन्द्र सरकार ने क्यों दी झूठी उम्मीदें?

मंगलवार को जब इराक में 39 भारतीयों की मौत का ऐलान किया गया तो एक ऐसा सियासी तूफान खड़ा हो गया, जिसकी शायद जरूरत थी ही नहीं। जरूरत थी तो दो मिनट मौन रखकर इन 39 लोगों की मौत पर मातम मनाने की।

फोटो: सोशल मीडिया
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रमन स्वामी

उन 39 लोगों की मौत बहुत पहले हो चुकी थी। उन्हें आईएसआईएस ने इराक में मार दिया था। वे सभी भारतीय थे। ज्यादातर पंजाब के थे और बाकी हिमाचल प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के थे। वे वहां खून-पसीना बहाकर मजदूरी करते थे, लेकिन अपने घर से हजारों मील दूर मोसुल के एक ऐसे इलाके में फंस गए थे, जहां मार-काट आम हो चुकी थी और जिससे उनका कुछ लेना देना नहीं था। यह ऐसा इलाका था जहां आधुनिक समय का सबसे बड़ा नरसंहार चल रहा था।

अब कभी किसी को नहीं पता चलेगा कि वे कैसे मारे गए। क्या उन्हें गोलियों से भून दिया गया? क्या उनके सिर कलम कर दिए गए? यह भी नहीं पता चलेगा कि उनकी मौत असल में हुई कब?

यह ऐसी कहानी है जिसे सुनकर मन कांप उठता है। यह एक अध्याय है मौत, विनाश और हताशा का।

लेकिन मंगलवार को जब उनकी मौत का ऐलान किया गया तो एक ऐसा सियासी तूफान खड़ा हो गया, जिसकी शायद जरूरत थी ही नहीं। जरूरत थी तो दो मिनट मौन रखकर इन 39 लोगों की मौत पर मातम मनाने की।

संसद में जो हुआ उस पर उंगली उठाना जरा मुश्किल है और शायद यह भी असंभव है कि इसके लिए जिम्मेदार आखिर किसे ठहराया जाए।

क्या पिछले करीब चार साल से विधवा की तरह रह रही उन महिलाओं पर उंगली उठाएं? क्या उन माता-पिता पर सवाल खड़े करें, जो हर दिन एक उम्मीद में जी रहे थे? क्या उन मासूम बच्चों से पूछें जो अपने बड़ों के आंसुओं में डूबे चेहरे देखकर सहमे हुए हैं कि क्या हुआ है?

क्या उन परिवारों पर उंगली उठाई जाए जिनके अपनों की मौत की खबर बरसों बाद उनके कानों में पड़ी है? क्या उन परिवारों की आलोचना और निंदा करना सही है, जिन्हें अपनों की मौत खबर टीवी स्क्रीन पर देखकर पता चली?

क्या पिछले करीब चार साल से विधवा की तरह रह रही उन महिलाओं पर उंगली उठाएं? क्या उन माता-पिता पर सवाल खड़े करें, जो हर दिन एक उम्मीद में जी रहे थे? क्या उन मासूम बच्चों से पूछें जो अपने बड़ों के आंसुओं में डूबे चेहरे देखकर सहमे हुए हैं कि क्या हुआ है? क्या असंख्य गांवों में लोगों को चेतावनी दी जाए कि आखिर वे रो क्यों रहे हैं? क्या उनसे पूछा जाए कि उन्हें गुस्सा क्यों आ रहा है? वे आखिर ये सवाल क्यों पूछ रहे हैं कि हमसे झूठ क्यों बोला गया? उन्हें झूठी उम्मीदें क्यों दी गईं? उन्हें पहले क्यों नहीं बताया गया? उन्हें इस सब की खबर टीवी से क्यों मिली?

हां, ऐसा ही लगता है कि शोक मनाने वाले ये सारे लोगों की गलती है। उन्हें सरकार की मंशा पर सवाल उठाने का कोई हक नहीं है। इस गैर-जिम्मेदाराना हरकत के वे दोषी हैं। उनका यह रवैया बताता है कि वे देशभक्त नहीं हैं। क्या उन्हें संसद के नियम कानून नहीं पता हैं?

माननीय विदेश मंत्री के पास विकल्प ही नहीं था, सिवाय इसके कि शोर-शराबे में खोखले हो चुके संसद को ही सबसे पहले यह सूचना देतीं कि इन गम में डूबे गुस्साए लोगों की मौत हो चुकी है और उनके शव इराक में कहीं हजारों टन मिट्टी में गड़े मिले हैं। इससे क्या फर्क पड़ता, आखिर इनके पति, पिता, बेटों की मौत तो बहुत पहले हो ही चुकी है।

आखिर कोई क्यों विदेश मंत्री और उनके राज्यमंत्री की मेहनत की तारीफ क्यों नहीं कर रहा। हर कोई युद्ध की भयावहता झेल रहे पश्चिम एशिया में काम करने वाले भारतीय मिशन के अधिकारियों की शान में कसीदे क्यों नहीं पढ़ता। कोई क्यों नहीं समझता कि विदेश विभाग के सैकड़ों कर्मचारियों ने अपना ऐशो-आराम त्याग कर चार साल तक इन 39 भारतीयों के बारे में जानकारियां जुटाई हैं।

विदेश मंत्री वाकई बहुत फिक्र करती हैं। शायद इसीलिए उन्होंने इन परिवारों को यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि उनके अपने अब कभी वापस नहीं आएंगे। दरअसल वे नहीं चाहती थीं कि बिना किसी ठोस और अकाट्य सबूत के वे उम्मीदें खत्म नहीं करना चाहती थीं। वे बिना डीएनए टेस्ट के परिवारों के दिल नहीं तोड़ना चाहती थीं। वे मोसुल में पहाड़ खोदकर निकाले गए शवों के डीएनए मिलान से पहले ऐसा कैसे कर सकती थीं।

विदेश मंत्री तो महिला हैं, वे तो शोक में डूबी माताओं और पत्नियों के दुख को अच्छी तरह समझती हैं, कोई उनकी तारीफ में एक शब्द भी नहीं बोल रहा। वे तो विदेश से आने वाले और विदेशों में मिलने वाले हर राजनियक से इन्हीं 39 की खैर-खबर लेती रही हैं। वे यही सवाल करती रही हैं कि आखिर उनके देश के 39 लोगों की खबर दे दो।

करीब-करीब यही बात तो मंगलवार को हुई प्रेस कांफ्रेंस में विदेश राज्यमंत्री ने कही थी। वे बता रहे थे कि वे न्यूयॉर्क में इराकी नेताओं से मिले थे, जिसने उन्हें बताया था कि विदेश मंत्री को इस सबकी बेहद फिक्र है।

हां, विदेश मंत्री वाकई बहुत फिक्र करती हैं। शायद इसीलिए उन्होंने इन परिवारों को यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि उनके अपने अब कभी वापस नहीं आएंगे। दरअसल वे नहीं चाहती थीं कि बिना किसी ठोस और अकाट्य सबूत के वे उम्मीदें खत्म नहीं करना चाहती थीं। वे बिना डीएनए टेस्ट के परिवारों के दिल नहीं तोड़ना चाहती थीं। वे मोसुल में पहाड़ खोदकर निकाले गए शवों के डीएनए मिलान से पहले ऐसा कैसे कर सकती थीं।

संभवत: यही वजह थी कि वे पिछले दो साल से संसद को भी अंधेरे में रखे हुए थीं। हर किसी को पता था कि इन 39 की मौत हो चुकी है। लेकिन पता होना और निश्चित होने में फर्क होता है। और उनके जैसी मंत्री तो कभी भी बिना डीएनए मिलान के मौत की पुष्टि नहीं करतीं। अपने शानदार करियर में उन्होंने कभी कोई झूठ बोला ही नहीं (यह बात अलग है कि अपने राजनीतिक जीवन में कई बार उन्होंने जानबूझकर झूठ बोले होंगे। लेकिन वह तो राजनीति है, और यह तो जिंदगी और मौत का सवाल था)

और यह तो आदर्श सिद्धांतों और उच्च मानकों का मामला भी था। यह आदर्श न तो उनमें उस नेता से आए हैं, जो इस महान देश को पहली बार मिला है और जिसने कभी भी देश को गुमराह नहीं किया, जिसने कभी झूठा वादा नहीं किया, जिसने कभी जुमले नहीं बोले और जिसने कभी बिना तथ्यों के बात नहीं की।

प्रेस कांफ्रेंस में विदेश मंत्री बहुत दुखी नजर आ रही थीं, और खुद के बचाव में ही बयान दे रही थीं। उन्होंने संसद में भी इन 39 लोगों के बारे में बिना तथ्यों के कोई बात नहीं रखी। इससे पहले भी उन्होंने जब भी इस मुद्दे पर संसद मे जवाब दिया, तो यही कहा कि वे उन लोगों की बात पर यकीन नहीं करतीं जो कह रहे हैं कि इन 39 को मार दिया गया है। इन नरसंहार से किसी तरह जान बचाने में कामयाब हुए हरजीत मसीह के पास अपनी बात साबित करने का कोई सबूत ही नहीं था।

विदेश मंत्री खुद और उनके दोनों कनिष्ठ मंत्री इस बात पर अडिग थे कि उन्होंने तो कोई झूठ बोला ही नहीं। वे उन टीवी क्लिप्स को मानने के लिए भी तैयार नहीं थे, जिनमें वे यह कहते साफ दिख रही हैं कि उनके पास पुख्ता सबूत है कि ये सभी 39 जिंदा हैं और किसी जेल में हैं।

फिर वह तो आईएसआईएस के चंगुल से नाम बदलकर भागा था। इससे तो उसकी वफादारी और सच्चाई पर तो उंगली उठेगी ही। और उसने तो अपना नाम भी बदलकर एक बांग्लादेशी की तरह रख लिया था। ऐसे में इस तरह के दगाबाज पर भरोसा कैसे किया जाए। इसीलिए उसे हवालात में डाला गया, उससे पिछले तीन साल में लगातार पूछताछ हुई और अब भी वह हिरासत में ही है।

विदेश मंत्री खुद और उनके दोनों कनिष्ठ मंत्री इस बात पर अडिग थे कि उन्होंने तो कोई झूठ बोला ही नहीं। वे उन टीवी क्लिप्स को मानने के लिए भी तैयार नहीं थे, जिनमें वे यह कहते साफ दिख रही हैं कि उनके पास पुख्ता सबूत है कि ये सभी 39 जिंदा हैं और किसी जेल में हैं।

दरअसल एक टीवी पत्रकार तो उस जेल तक पहुंच गया था जहां कहा जा रहा था कि इन 39 लोगों को रखा गया है। लेकिन वहां सिवाय मलबे के कुछ नहीं मिला। टीवी चैनल पर फिर से उन तस्वीरों को दिखाया गया जिसमें सिवाय मलबे के कुछ नजर नहीं आ रहा। अगर वहां कभी जेल थी भी तो वह जमींदोज हो चुकी है। वहां के स्थानीय लोग साफ कह रहे हैं कि या तो इन्हें मशीनगनों से भून दिया गया या फिर आईएसआईएस के लड़ाकों ने उनके सिर कलम कर दिए होंगे।

लेकिन विदेश मंत्री अपने बयान पर अटल रहीं। जब तक डीएनए मिलान नहीं हो जाता वे नहीं मानेंगी कि यह 39 मार दिए गए। उन जैसा उसूलों वाला राजनेता आखिर बिना सबूत के बोल भी कैसे सकता था।

उनकी नजर में अगर किसी ने संवेदनहीनता और आदर्शहीनता दिखाई तो वह हैं कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया, जिन्होंने लोकसभा में उन्हें बोलने नहीं दिया। उन्होंने कहा भी कि देखो कांग्रेस और सिंधिया कितना नीचे गिर गए हैं कि ऐसे मसले पर भी बोलने नहीं दे रहे। वे राजनीति कर रहे हैं।

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