सामाजिक बदलाव में सिनेमा की बड़ी भूमिका, विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कई फिल्मकारों का योगदान अमर

फिल्में समाज में प्रचलित मिथकों को चुनौती देने की बजाय उन्हें बढ़ावा अधिक देती हैं क्योंकि इस तरह दर्शकों के आकर्षित होने की अधिक संभावना होती है और यह आसान भी होता है। इसके बावजूद कई फिल्मकारों ने सार्थक बदलाव में अहम योगदान देने वाली फिल्में भी बनाई हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

अधिकांश हिंदी फिल्में महज व्यापारिक सफलता को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। उन्हें किसी फार्मूले की तलाश रहती है जो बॉक्स आफिस पर किसी तरह क्लिक कर जाए। दर्शक क्या पसंद करेंगे इस बारे में अटकलें निरंतर लगती रहती हैं। इस माहौल में फिल्में समाज में प्रचलित मिथकों को चुनौती देने के स्थान पर उन्हें बढ़ावा अधिक देती हैं क्योंकि इस तरह दर्शकों को आकर्षित करने की अधिक संभावना होती है और यह अधिक सरल भी होता है।

सतही मनोरंजन, रोमांस, ढिशुम-ढिशुम, अति सरलीकरण और मिथक से मजबूती से जुड़े हिंदी सिनेमा से समाज सुधार और सार्थक सामाजिक बदलाव की फिल्में बनाने की अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती है, लेकिन इसके बावजूद समय-समय पर समाज सुधार के प्रति जागरुक फिल्म निर्माताओं ने सार्थक बदलाव में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाली फिल्में भी बनाई हैं। बिमल राय, वी. शांताराम, ऋषिकेश मुकर्जी, राजकपूर, के.ए. अब्बास, चेतन आनन्द, महबूब जैसे अनेक फिल्मकारों ने निरंतरता से ऐसी फिल्में बनाईं। हाल के वर्षों में अभिनेता आमिर खान ऐसी अनेक फिल्मों से जुड़े रहे हैं।

अपराधी का सुधार एक ऐसा मुद्दा है जिसने फिल्म निर्माताओं को काफी आकर्षित किया है और ऐसी कुछ फिल्में तो बहुत यादगार रही हैं। चंबल में डाकुओं का समर्पण अहिंसा की जीत का एक बड़ा उदाहरण माना जाता है। राज कपूर ने इस विषय पर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ जैसी बहुत लोकप्रिय और कलात्मक फिल्म बनाई जो अपने गीतों, संगीत, फोटोग्राफी और अभिनय के लिए भी याद की जाती है। समर्पण के लिए प्रेरित करवाने वाले भोले-भाले युवक की भूमिका में राजू का चरित्र भुलाए नहीं भूलता, जिसे राजकपूर ने बहुत शानदार ढंग से निभाया। डाकुओं के आत्मसमर्पण-यात्रा के दृश्य, जो ‘आ अब लौट चलें’ गीत के साथ फिल्माए गए, गहरा प्रभाव छोड़ते हैं।

डकैत समस्या पर सुनील दत्त ने भी ‘मुझे जीने दो’ जैसी यादगार फिल्म बनाई। जेल में बंद बहुत खूंखार अपराधियों को भी अहिंसक प्रयासों से सुधारा जा सकता है, यह संदेश वी.शांताराम ने अपनी असरदार फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ में मार्मिक ढंग से दिया।

जेल-सुधार का एक अन्य पक्ष यह है कि कई बार विशेष परिस्थितियों में बहुत उच्च चरित्र के व्यक्तियों को भी जेल जाना पड़ता है और ऐसे व्यक्तियों को एक नई शुरुआत का अवसर अवश्य मिलना चाहिए। ऋषिकेश मुखर्जी ने ‘आशीर्वाद’ फिल्म के मुख्य चरित्र के माध्यम से यह संदेश बखूबी दिया, जिसे अशोक कुमार के अभिनय ने और मार्मिक बना दिया।


इस विषय पर विमल राय की अविस्मरणीय फिल्म ‘बंदिनी’ को कौन भूल सकता है। महिला बंदियों की मजबूरियों और दुखों का इस फिल्म में बहुत मार्मिक चित्रण हुआ है और यह दर्द इन दो गीतों ‘अब की बरस भेज भैया’ और ‘ओ पंछी प्यारे’ के कारण और गहरा हो जाता है। इस तरह के यादगार फिल्म चित्रण से हमेशा के लिए महिला कैदियों की समस्याओं की ओर ध्यान दिलाने में मदद मिलेगी और यही श्रेष्ठ सिनेमा की बड़ी उपलब्धि है कि वे किसी सामाजिक मुद्दे पर इतनी गहरी छाप इतने अधिक समय के लिए छोड़ सकता है।

दूसरे देश की जेल में फंस गए कैदी से हुए अन्याय का मार्मिक चित्रण ‘वीर-जारा’ में दिखाया गया है। गुलजार की फिल्म ‘अचानक’ में मृत्यु दंड के विरुद्ध एक शक्तिशाली संदेश था, जो फिल्म की बॉक्स आफिस की असफलता के बावजूद इसे आज भी महत्त्वपूर्ण बनाता है।

किसी को अपराध की ओर धकेलने में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की अधिक भूमिका होती है, इसकी ओर ध्यान दिलाया राज कपूर की ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ जैसी फिल्मों ने। सफेदपोश अपराधियों के स्वार्थों और बेदर्दी को बेपरदा करने के साथ ‘श्री 420’ में बेघर लोगों की समस्याओं और आकांक्षाओं का भी अच्छा चित्रण किया गया। ‘बूट पालिश’ में फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों और बाल मजदूरों की समस्याओं और दैनिक संघर्षों का मार्मिक चित्रण था, हालांकि इसका संदर्भ आज की बहसों में कुछ अलग था। इस फिल्म के संगीत (नन्हें-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी) ने समस्याओं से घिरे बच्चों को हिम्मत दी।

के.ए. अब्बास की फिल्म ‘शहर और सपना’ में बेघर लोगों और प्रवासी मजदूरों का तथ्यात्मक चित्रण था। शहर में रात को पानी खोज रहे प्यासे व्यक्ति की विडंबनाएं बहुत असरदार ढंग से राजकपूर की ‘जागते रहो’ फिल्म में दर्शकों के सामने आई। स्लम बस्तियों के निवासियों से हो रहे अन्याय और इसके विरुद्ध उठी आवाज को चेतन आनन्द ने ‘नीचा नगर’ में सशक्त रूप में प्रस्तुत किया। ऋषिकेश मुखर्जी की ‘नमक हराम’ और यश चोपड़ा की ‘काला पत्थर’ फिल्मों में औद्योगिक और खनन मजदूरों के मुद्दे उठाए गए हैं।

ग्रामीण शोषण व्यवस्था और महिला किसान के अंतहीन संघर्षों का बेहद जीवंत चित्रण महबूब ने अपनी कालजयी फिल्म ‘मदर इंडिया’ में किया। नरगिस ने इस फिल्म की मुख्य भूमिका में ग्रामीण महिला के मां और किसान दोनों रूपों का अविस्मरणीय प्रदर्शन किया जिसे दर्शकों ने बहुत पसंद किया। इससे पहले के.ए. अब्बास और उनके अनेक साथियों ने बंगाल के अकाल पर एक बड़ी जन भागेदारी के प्रयास से ‘धरती के लाल’ फिल्म बनाई जो अनेक स्तरों पर एक महत्त्वपूर्ण प्रयास था।

हिन्दी साहित्य की प्रमुख रचनाओं पर बनी कुछ फिल्में (जैसे प्रेमचंद के ‘गोदान’ और ‘गबन’ तथा फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ पर बनी फिल्में) भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहीं। रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक कविता से प्रेरणा लेकर विमल राय ने ‘दो बीघा जमीन’ जैसी यादगार फिल्म बनाई, जिसमें जमीन छिनने और प्रवासी मजदूर बनने की दर्दनाक कहानी का बहुत सशक्त प्रदर्शन है। श्याम बेनेगल ने ग्रामीण शोषण व्यवस्था पर ‘अंकुर’, ‘निशांत’ और ‘मंथन’ तीन फिल्मों की श्रृंखला बनाई।


साम्प्रदायिक सद्भावना पर वी.शांताराम ने महत्त्वपूर्ण फिल्म बनाई थी ‘पड़ोसी’। सांप्रदायिकता के विरुद्ध एम.एस. सथ्यू की फिल्म ‘गर्म हवा’ में भी महत्त्वपूर्ण संदेश है। अनेक फिल्मों (जैसे ‘चैदहवीं का चांद’) में विभिन्न धर्मों के व्यक्तियों की अटूट मित्रता के माध्यम से सद्भावना की गहरी छाप छोड़ी गई है। अब्बास की ‘सात हिंदुस्तानी’ में भी गोवा की स्वतंत्रता की लड़ाई के माध्यम से राष्ट्रीय एकता का संदेश था। जातिगत भेदभाव के विरुद्ध प्रेम की जीत का संदेश फिल्म ‘सुजाता’ में है।

धर्म के पाखंडी और लोगों को बांटने वाले पक्ष की तीखी पर मनोरंजक आलोचना फिल्म ‘पीके’ में उपलब्ध है। ‘लगान’ में भी औपनिवेशिक उद्दंडता के विरुद्ध उभरी गांववासियों की एकता के माध्यम से राष्ट्रीय एकता का संदेश मिलता है। हालांकि इससे आगे बढ़कर यह फिल्म कमजोर शोषित वर्ग की एकता और दृढ़ निश्चय की प्रेरणादायक और मनोरंजक कहानी भी है।

शिक्षा-सुधार पर हाल में बनी फिल्म ‘थ्री इडियट’ अच्छी-खासी चर्चा का विषय बनी। विशेष जरूरतों के बच्चों की शिक्षा पर ‘तारे जमीन पर’ एक बहुत उपयोगी फिल्म है जिसे दर्शकों ने भी काफी पसंद किया। ‘हिचकी’ फिल्म में जहां शिक्षा सुधार के लिए महत्त्वपूर्ण संदेश है, वहां यह मुख्य रूप से एक शारीरिक चुनौती का साहस और दृढ़ निश्चय से सामना करने वाली अध्यापिका की कहानी है।

‘दोस्ती’ ऐसे दो मित्रों की मार्मिक कहानी है जिसमें दोनों ही शारीरिक चुनौती या अपंगता झेलते हुए बहुत सहृदयता, मेहनत और निष्ठा का परिचय देते हैं। मूक-बधिर लोग जीवन में किन मुश्किल चुनौतियों का सामना करते हैं, इसकी प्रेरणादायक, मनोरंजक और मार्मिक कहानी गुलजार ने ‘कोशिश’ में बताई है। संज लीला भंसाली की ‘ब्लैक’ फिल्म भी इस संदर्भ में खासी चर्चित रही।

जानलेवा बीमारी झेल रहे मरीजों की हिम्मत और गहरी सहृदयता की बहुत प्रेरणादायक कहानियां ऋषिकेश मुखर्जी ने फिल्म ‘आनन्द’ और ‘मिली’ में प्रस्तुत की है। आदर्शवादी डाक्टरों के अथक प्रयासों की कहानी ऋषिकेश मुखर्जी की ‘अनुराधा’ और वी.शांताराम की ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी’ फिल्मों में बहुत प्रेरणादायक ढंग से दिखाई गई है। तमाम कठिनाईयों के बावजूद अपनी ईमानदारी पर कायम रहने वाले इंजीनियर की कहानी ‘सत्यकाम’ फिल्म में दिखाई गई है।

युद्ध पर वैसे तो अनेक फिल्में बनी हैं, पर कुछ हद तक ‘हिन्दुस्तान की कसम’, ‘उसने कहा था’ और ‘हकीकत’ युद्ध विरोधी संदेश की छाप छोड़ती हैं। पड़ोसी देशों से मित्रता का संदेश ‘डा. कोटनीस की अमर कहानी’ और कुछ हद तक ‘हिना’ और ‘वीर जारा’ में उभरता है। उपनिवेशवाद विरोधी साहस कथा के संदर्भ में शहीद भगत सिंह और उनके साथियों पर अनेक फिल्में बनी हैं, पर मनोज कुमार की ‘शहीद’ फिल्म ही इनमें सबसे यादगार रही है।

हाल ही में बनी फिल्म ‘सीक्रेट सुपर स्टार’ में जहां लड़कियों की प्रतिभाओं को चारदीवारी के भीतर कुंठित करने का तीखा विरोध है, वहीं महिला-हिंसा के विरुद्ध भी यह फिल्म एक महत्त्वपूर्ण आवाज है। बलात्कार के विरुद्ध आवाज उठाने के साथ पीड़ित महिलाओं को नया जीवन देने की आवाज ‘दामिनी’, बी.आर.चोपड़ा की ‘इंसाफ का तराजू’ और ऋषिकेश मुकर्जी की ‘सत्यकाम’ फिल्मों में उठाई गई है।

प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद अनेक हिंदी फिल्मों ने सार्थक सामाजिक बदलाव में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यदि इसके लिए अधिक अनुकूल स्थितियां प्राप्त हों तो कहीं बेहतर योगदान और निरंतरता से प्राप्त हो सकता है।

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