सांसों में घुलता ज़हर: साफ हवा पर अब चंद लोगों का विशेषाधिकार, आम लोगों के लिए महज सपना
विशेषाधिकार प्राप्त लोग तो एयर प्यूरीफायर से बच जा रहे हैं, लेकिन आम लोगों को जहरीली हवा में ही सांस लेनी पड़ रही है। जबकि अधिकारियों पर प्रदूषण के आंकड़ों में हेराफेरी के लग रहे आरोप।

सालों से विषैला धुआं दिल्ली की पहचान बन गया है। लेकिन रिपोर्ट बताती हैं कि सरकार संकट की वास्तविक स्थिति को छिपाने के लिए आंकड़ों में हेरफेर कर रही है। ऐसे में हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दो एयर प्यूरीफायर के साथ वाली तस्वीर के सामने आने से जनता का धैर्य जवाब देने लगा है। कारण यह है कि इस तस्वीर ने हमारे बीच की गहरी खाई को भी सामने ला दिया है- एक, वे जो चीन में बने एयर प्यूरीफायर और ‘सीलबंद’ दफ्तर का खर्च उठा सकते हैं और दो, वे जो ऐसा नहीं कर सकते।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, वायु गुणवत्ता मॉनिटरों के आसपास पानी के छिड़काव का इस्तेमाल रीडिंग कम करने के लिए किया जा रहा है और कई स्टेशन तो बाकायदा बंद ही कर दिए गए हैं जिससे लोगों ने सड़कों पर उतरने का मन बनाया। लेकिन सरकार ने आखिरी समय में आयोजकों को विरोध प्रदर्शन वापस लेने के लिए मजबूर किया। इंडिया गेट पर आए लोगों को हिरासत में लेकर 50 किलोमीटर दूर हरियाणा सीमा पर छोड़ा गया।
दिल्ली आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष सौरभ भारद्वाज ने संवाददाताओं से कहा, ‘प्रदूषण बढ़ते ही सरकार एक्यूआई निगरानी केन्द्र बंद कर देती है। जहां भी एक्यूआई ज्यादा पाया जाता है, वहां पानी का छिड़काव किया जाता है। यह सरासर धोखाधड़ी है। इसका मकसद प्रदूषण कम करना नहीं, बल्कि आंकड़े को कम दिखाना है।’
राष्ट्रीय राजधानी के 38 में से 26 निगरानी केन्द्रों में 10 नवंबर को एक्यूआई ‘बेहद खराब’ श्रेणी में था। बवाना 366 एक्यूआई के साथ सबसे प्रदूषित रहा। जहांगीरपुरी 348 एक्यूआई के साथ दूसरे स्थान पर रहा। चांदनी चौक में यह 410, बुराड़ी में 430 और आनंद विहार में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा स्थापित निगरानी प्रणाली के बाहर तीन ट्रकों द्वारा पानी के छिड़काव के बावजूद एक्यूआई 400 रहा।
उसी दिन चाणक्यपुरी के ग्रीन बेल्ट में स्थित अमेरिकी दूतावास ने वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 643 दिखाया, जिसमें पीएम-10 का स्तर 558 और पीएम-2.5 का स्तर 397 था। यानी वायु गुणवत्ता खतरनाक श्रेणी में है। दूतावास एक दशक से भी ज्यादा समय से भारतीय शहरों में वायु गुणवत्ता की स्वतंत्र रूप से निगरानी कर रहा है और उसके आंकड़े अक्सर आधिकारिक भारतीय आंकड़ों से मेल नहीं खाते। कोई सवाल कर सकता है कि यह बेमेल क्यों है? सीपीसीबी के मुताबिक, 0-50 के बीच का एक्यूआई अच्छा, 51-100 के बीच का संतोषजनक, 101-200 के बीच का मध्यम, 201-300 के बीच का खराब, 301-400 के बीच का बहुत खराब और 401-500 के बीच का गंभीर माना जाता है।
दिल्ली के व्यापारियों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर दावा किया है कि दिवाली के बाद से उन्हें 300 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है क्योंकि वायु प्रदूषण से चिंतित लोग बाहर निकलने से बच रहे हैं और जरूरत की चीजें ऑनलाइन मंगा रहे हैं। व्यापारियों का कहना हैः ‘दिल्ली में हर तीसरे बच्चे के फेफड़े खराब हैं और स्वच्छ वातावरण में रहने वाले बच्चों की तुलना में उनकी जिंदगी लगभग दस साल कम हो जाती है।’
लंबे समय तक जहरीली हवा के संपर्क में रहने से हृदय रोग, स्ट्रोक और अस्थमा का खतरा बढ़ जाता है। अफसोस की बात तो यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, इनमें से ज्यादातर को रोका जा सकता है, फिर भी जमीनी स्तर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। इस बीच, राजधानी में हरियाली लगातार कम होती जा रही है, जिससे संकट गहराता जा रहा है।
लोगों की हताशा सरकार की ओर से विश्वसनीय कार्रवाई नहीं करने की वजह से भी उपजी है। स्मॉग टावर और ‘क्लाउड सीडिंग’ जैसे आधे-अधूरे उपाय बेअसर साबित हुए हैं। लेकिन सोचने की बात है कि एक समय दुनिया का सबसे ज्यादा स्मॉग से घिरा शहर बीजींग अगर अपनी हवा साफ कर सकता है, तो भारत क्यों नहीं? बीजिंग की उपलब्धि वाकई शानदार है। 2013 में उसकी हालत इतनी बुरी थी कि तब सिर्फ 13 ‘अच्छे वायु दिवस’ दर्ज किए गए थे जबकि 2023 में ‘अच्छे वायु दिवस’ बढ़कर 300 हो गए।
लोग तर्क देते हैं कि ‘प्रदूषण कम करने के तमाम तरीके हैं। लेकिन इतना तय है कि प्रदर्शनकारियों पर खीझ निकालना उनमें से नहीं। ’
मुंबई और चेन्नई जैसे तटीय शहरों की भी हवा की गुणवत्ता खराब हुई है, जबकि इन्हें समुद्री हवाओं का लाभ मिलता है। इनका आधिकारिक एक्यूआई 250 के आसपास रहता है, लेकिन स्वतंत्र पर्यावरणविदों को संदेह है कि यह वास्तव में इससे खराब है। आधिकारिक रीडिंग और ‘स्वतंत्र’ रीडिंग के बीच इस बेमेल का खुलासा एक समाचार चैनल ने किया, जिसने 5 नवंबर को पर्यावरणविद् भवरीन कंधारी, जो अपने बच्चों के लिए स्वच्छ हवा की मांग करने वाली महिलाओं के एक नेटवर्क की सह-संस्थापक हैं, के साथ एक पोर्टेबल मॉनिटरिंग सेट लेकर यात्रा की।
उनके मीटर ने आनंद विहार में एक्यूआई का स्तर 500 के करीब दर्ज किया, जबकि आधिकारिक सीपीसीबी रीडिंग केवल 300 दिखा रही थी। आईटीओ मॉनिटरिंग स्टेशन पर उनके उपकरण ने 312 दिखाया, जबकि आधिकारिक आंकड़ा सिर्फ 145 था। लोगों का कहना है कि कई मॉनिटरिंग स्टेशनों ने काम करना बंद कर दिया है। यहां तक कि लोधी गार्डन के पास पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के बाहर बड़ा डिस्प्ले बोर्ड भी हफ्तों से खाली पड़ा है। लोग सवाल करने लगे हैं कि कहीं ऐसा जान-बूझकर तो नहीं किया जा रहा?
पर्यावरणविद् रीनू पॉल ने देहरादून में भी ऐसा ही एक अभ्यास किया, जहां उन्होंने राजपुर रोड स्थित अपने घर में वायु प्रदूषण मीटर लगाया। सरकार ने एक जंगल के पास स्थित दून विश्वविद्यालय के अंदर अपना मॉनिटरिंग स्टेशन स्थापित किया था। उन्होंने पाया कि आधिकारिक और वास्तविक रीडिंग के बीच का अंतर कम हो रहा है। इसलिए नहीं कि हवा में सुधार हुआ है, बल्कि इसलिए कि आवासीय, खास तौर पर आईएसबीटी और घंटाघर जैसे ज्यादा ट्रैफिक वाले इलाकों में प्रदूषण काफी बढ़ गया है।
गाड़ियां सबसे बड़ी दोषी
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत के कार्बन उत्सर्जन में अब 20 फीसद से ज्यादा का योगदान ऑटोमोबाइल का हो गया है। ऑटोमोबाइल-केन्द्रित नीतियों, निजी वाहनों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि, एसयूवी और दोपहिया वाहनों का बढ़ना और सरकार की ऑटोमोटिव मिशन योजना के तहत माल परिवहन के लिए रेलवे की जगह सड़क मार्ग के इस्तेमाल ने इस संकट को और गहरा कर दिया है। अध्ययनों से पता चलता है कि दिल्ली-एनसीआर में सर्दियों के दौरान पीएम-2.5 उत्सर्जन में ऑटोमोबाइल उत्सर्जन का योगदान 47 फीसद है। यह पंजाब में पराली जलाने को जिम्मेदार ठहराने वाली सरकारी नैरेटिव को गलत साबित करता है।
एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स (एक्यूएलआई) 2025 के मुताबिक, दुनिया के 100 सबसे प्रदूषित शहरों में से 93 भारत में हैं। दिल्ली में पले-बढ़े बच्चों की जीवन प्रत्याशा में जहरीली हवा के कारण दस साल तक की कमी का अनुमान है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के मुताबिक, केवल 12 फीसद भारतीय शहरों में ही सभी छह प्रमुख प्रदूषकों पर नजर रखने में सक्षम निगरानी केन्द्र हैं। 419 शहरों में सीबीपीबी के 966 संचालित केन्द्रों में से कई मैनुअल हैं और सालाना 104 निगरानी दिनों की न्यूनतम आवश्यकता को पूरा करने में विफल रहते हैं। सीएसई की उप महानिदेशक अनुमिता रॉयचौधरी आगाह करती हैंः ‘भारत के 252 शहरों में से कई पहले ही गंभीर प्रदूषण के स्तर को पार कर चुके हैं। सरकार को राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करना चाहिए और वायु प्रदूषण को युद्ध स्तर के संकट के रूप में देखना चाहिए।’
दूसरी ओर, सरकारी स्तर पर स्थिति से नजरें चुराने का सिलसिला जारी है। केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ने संसद में दावा किया कि ‘अकेले वायु प्रदूषण के कारण होने वाली मौतों या बीमारियों के बारे में कोई निर्णायक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।’ पर्यावरणविदों का कहना है कि इस तरह के बयान सरकार की कार्रवाई न करने की इच्छा को दिखाते हैं। वे कहते हैं कि प्रदूषण कोई प्रकृति का कृत्य नहीं, बल्कि गलत नीतियों का परिणाम है।
नागरिकों के लिए स्वच्छ हवा की लड़ाई पारदर्शिता और जवाबदेही की लड़ाई बन गई है। जब मॉनिटरों में हेराफेरी की जाती है और आंकड़े छिपाए जाते हैं, तो गरीबों को इसकी कीमत अपने फेफड़ों से चुकानी पड़ती है।
जैसा कि एक प्रदर्शनकारी ने कहा: ‘अगर साफ हवा में सांस लेना एक विशेषाधिकार बन जाए, तो लोकतंत्र ही खतरे में है।’
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