आकार पटेल का लेख: ‘हाईकमान’ संस्कृति की बातें हवाईं, कांग्रेस में बीजेपी से कहीं ज्यादा है अंदरूनी लोकतंत्र

दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में यही सबसे बड़ा अंतर है। बीजेपी अगर जीतती है तो उसमें नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा योगदान माना जाता है और इसीलिए चुनाव के बाद होने वाले सारे फैसले वही करते हैं, लेकिन कांग्रेस में अंदरूनी लोकतंत्र कहीं ज्यादा मजबूत है।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

जब मैं 18 साल का हुआ और वोट डाल सकता था, तो मुझे याद है कि हमारे सूरत से बीजेपी के काशीराम राणा सासंद थे। वह तब तक सांसद रहे जब तक मैं 40 साल का हो गया। वह एक लोकप्रिय जमीनी नेता थे और लगातार 6 बार जीते। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वे मंत्री भी रहे।

लेकिन, बिना किसी कारण या आरोपों के 2008 में उन्हें टिकट नहीं दिया गया। कुछ साल बाद एक टूटे हुए और हताश नेता के तौर पर उनकी मौत हो गई। आखिर मैंने काशीराम राणा का जिक्र क्यों किया, इसके बारे में मैं आगे लिखूंगा।

कांग्रेस को जब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जीत हासिल हुई, तो जश्न मनाया जा रहा था और सब उसकी तारीफ कर रहे थे। लेकिन अगले ही दिन मीडिया कांग्रेस के पीछे पड़ गया कि आखिर मुख्यमंत्रियों का ऐलान क्यों नहीं हो रहा है।

कांग्रेस ने कहा भी कि बीजेपी में भी तो ऐसा ही हुआ था जब उसने महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में जीत हासिल की थी, इसलिए इसमें अटपटा कुछ नहीं है। लेकिन, फिर भी कुछ लोगों को ये सब अटपटा ही लगता रहा। आखिर क्यों?

हमें हमेशा बताया जाता रहा कि कांग्रेस में हाईकमान होता है। पार्टी के नेता खुद ही इस शब्द का इस्तेमाल करते रहे हैं। इसका मतलब है कि पार्टी में कोई एक ऐसा है जो सबसे ऊपर है, और उसी का फैसला अंतिम होता है। आमतौर पर इसे गांधी परिवार के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

लेकिन चुनावों के बाद जो भी राजनीतिक गतिविधियां नजर आईं उनसे कहीं भी यह आभास नहीं हुआ कि उनके पास ही सारी शक्तियां या अधिकार हैं। अगर ऐसा होता तो राहुल गांधी अपनी पसंद के नेता को चुनते और मामला खत्म हो जाता। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ तो यही हुआ न कि हाईकमान के पास सारी शक्तियां नहीं हैं।

वैसे यह कोई बुरी बात भी नहीं है। इससे कम से कम यह तो पता लगता है कि पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र उससे कहीं ज्यादा मजबूत है जितना बताया जाता है।

इस मुद्दे को योगी आदित्यनाथ, मनोहर लाल खट्टर और देवेंद्र फड़णविस जैसे यूपी, महाराष्ट्री और हरियाणा के बाहरी नेताओं से तुलान करके देखिए। इन तीनों को बिना किसी जनविरोध के चुना गया।

इन तीनों को उन नेताओं के मुकाबले वरीयता दी गई जो इन तीनों राज्यों में दशकों से पार्टी को मजबूत करने में लगे हुए थे। लेकिन फिर भी उनके दावे खारिज कर दिए गए और उन्होंने इन तीनों को स्वीकार कर लिया। काशीराम राणा के मामले में भी ऐसा ही हुआ था, जिन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने टिकट देने से इनकार कर दिया था।

इस मिसाल से साफ होता है कि दरअसल हाईकमान की संस्कृति तो बीजेपी में है,जहां दूसरी पंक्ति के नेताओं को बिना प्रतिरोध के थोपा जाता है।

हमें बताया गया कि कांग्रेस में तो अंदरूनी तौर पर तानाशाही चलती है क्योंकि यह तो वंशवादी पार्टी है। मैं तो इसे एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के तौर पर देखता हूं जहां कंपनी के सारे शेयर एक ही परिवार के पास हैं। जबकि बीजेपी एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी है जिसके शेयरधारक कहीं ज्यादा हैं।

लेकिन हाल में जो कुछ हुआ, उसे समझने के लिए यह मिसाल देना सही नहीं होगा।

जब एक तरफ कथित हाईकमान मुख्यमंत्रियों के नाम पर चर्चा कर रही थी, संभावित सीएम के समर्थकों ने खुलकर आक्रामक रूप से टीवी पर आकर नारेबाजी की। राजस्थान में तो समर्थकों ने अपनी बात हाईकमान तक पहुंचाने के लिए हिंसा तक का सहारा ले लिया।

हाईकमान के पास पूर्ण अधिकार नहीं है, इसे साबित करने के लिए और भी कुछ घटनाक्रम सामने आए। राजस्थान में सीएम पद के दावेदारों को दिल्ली बुलाया गया। फिर उन्हें वापस जाने को कहा गया, लेकिन बीच रास्ते से ही उन्हें फिर बुला लिया गया।

इससे हमें क्या पता चलता है? या तो हाई कमान को फैसला लेने में दिक्कत आ रही थी, या फिर उसने जो फैसला लिया था उस पर अमल करने में वह हिचक रहा था।

मीडिया की खबरों के मुताबिक सीएम के नाम पर फैसला लेने वाली कुछ बैठकों में सोनिया गांधी और प्रियंका की मौजूदगी से तो यही संकेत मिलता है कि राहुल गांधी को अपने फैसले में कुछ मदद चाहिए थी।

पुराने नेताओं के तेवर और आखिरकार अपने युवा साथियों के मुकाबले बाजी मार ले जाना दिखाता है कि उन्हें कुछ हद तक स्वतंत्रता हासिल थी। इससे यह भी लगता है कि तीनों राज्यों में कांग्रेस की जीत पार्टी आलाकमान पर तो निर्भर नहीं थी।

दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में यही सबसे बड़ा अंतर है। बीजेपी अगर जीतती है तो उसमें नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा योगदान माना जाता है और इसीलिए उनके पास चुनाव के बाद होने वाले फैसले करने का पूर्ण अधिकार है। इससे यह नतीजा भी निकलता है कि राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री चुनने में जो तरीका अपनाया वह उससे बिल्कुल अलग था जो उनके पिता राजीव गांधी अपनाते थे।

राजीव गांधी ने जब पार्टी की कमान संभाली तो उन्होंने अंदरूनी मामलों को सुलझाने के लिए धमकी देने वाला तरीका अपनाया था। एक बार पार्टी की अंदरूनी बैठक में मतभेदों के मुद्दे पर उन्होंने कहा था कि, “उनको नानी याद आ दिला देंगे।”

लेकिन मतभेदों को सुलझाने का राहुल गांधी का तरीका एकदम अलग है। ऐसा सुनने में आता है कि राहुल गांधी सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया के पक्ष में थे, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। इसी से साफ हो जाता है कि कांग्रेस में हाई कमान नहीं बल्कि अंदरूनी लोकतंत्र कहीं ज्यादा मज़बूत है।

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Published: 16 Dec 2018, 12:21 PM
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