मृणाल पांडे का लेख: महामारी में जनस्वास्थ्य क्षेत्र ही काम आता है, फिर भी सरकार क्यों करती है इसकी अनदेखी!

कोरोना संकट में साफ हो गया है कि महामारी के समय में सार्वजनिक स्वास्थ्य कल्याण क्षेत्र ही कारगर साबित होते हैं, इसलिए समय आ गया है कि निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के बजाय सरकारी सेवाओं को मजबूत करने के लिए सरकारें बजटीय आवंटन को बढ़ाएं।

इलस्ट्रेशन : अतुल वर्धन
इलस्ट्रेशन : अतुल वर्धन
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मृणाल पाण्डे

कोरोना वायरस के भीषण हमले ने जिन मामलों में देश को दोबारा सोचने पर मजबूर किया है, सार्वजनिक स्वास्थ्य कल्याण उनमें पहले नंबर पर है। वैसे तो संविधान में राज्यों की खास भौगोलिक तथा सामाजिक संरचना को देखते हुए स्वास्थ्य का विषय उनके अधीन रखा गया है लेकिन उसके लिए जरूरी राशि का बड़ा हिस्सा केंद्रीय बजट से ही निकलता आया है। फिर आज तो केंद्र सरकार ने विशेष महामारी निवारक कानून के सहारे तमाम तरह के फैसले अपने हाथ में ले लिए हैं। कुल मिलाकर जो सूरत दिखती है, वह यह कि आज भारत खुद को महाशक्ति मानने के बावजूद दुनिया के सभी विकासशील देशों के मुकाबले अपनी सकल राष्ट्रीय आय का सबसे कम (3.6 फीसदी) हिस्सा इस पर खर्च करता है।

अक्सर कई राज्य सरकारों की सुस्ती भरी उपेक्षा की वजह से इस मद में केंद्र तथा राज्य के बजट से आवंटित राशि का सभी राज्यों में पूरा इस्तेमाल नहीं किया जाता। दक्षिण भारत के राज्य तनिक अधिक सजग हैं, इसलिए वहां शहरी तथा ग्रामीण सार्वजनिक हस्पतालों का ढांचा तनिक बेहतर और गरीबों के लिए स्वास्थ्य बीमा का प्रबंध बेहतर है। उत्तर भारत, खासकर हिंदी पट्टी के इलाके, में सरकारों ने खुद मेहनत करने की बजाय चिकित्सा क्षेत्र का निजीकरण तेजी से होने दिया है।

गोरखपुर के सरकारी हस्पताल में सैकड़ों बच्चों की मौतों से जाहिर है कि वहां बिछौने तो दूर, जरूरी जीवनरक्षक उपकरणों का भी अक्सर अभाव रहता है। उधर, निजी हस्पताल और लैब अधिक खर्चीले होने की वजह से गरीबों की पहुंच से आमतौर पर दूर रहते हैं। नतीजतन गंभीर बीमारी के लिए कर्ज लेकर, जमीन रेहन रखकर ही इन तक पहुंचा जाता है जिसके लिए वे अनाप-शनाप बिलिंग कर इनका खून चूसते रहते हैं। इसीलिए अधिकतर गरीब झोलाछाप डॉक्टरों या तांत्रिकों, ओझाओं की शरण में जाने को मजबूर हैं।

सरकारी हस्पतालों में निजी क्षेत्र से अधिक बिछौने तो हैं, पर वे सामान्य समय में भी नाकाफी हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में कुल उपलब्ध 7,13,986 बिछौनों का अनुपात बनता है प्रति 1000 की आबादी पर 0.6 बिछौना। डॉक्टरों और नर्सों की उपस्थिति तथा दवाओं और सघन चिकित्सा उपकरण तो छोड़ें, सही तरह काम करने वाले एक्स-रे और शल्य क्रिया के सामान्य उपकरणों की भी भारी कमी पाई गई है। गांवों की हालत तो और भी कमजोर है जहां प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञों ने 22 से 30 फीसदी तक की कमी दर्ज की है।


कोविड-19 से निपटने के लिए सरकार ने लॉकडाउन कर यथासंभव हस्पतालों पर पड़ने वाले अन्य रोगों के मरीजों का दबाव तुरत-फुरत कम करने तथा हस्पताली बिछौने बढ़ाने की कोशिश तो की है, भाड़े पर डॉक्टर, नर्स तथा सफाईकर्मी भी भर्ती किए हैं, पर संक्रमितों से इलाज के दौरान उनकी अपनी सुरक्षा के लिए खास पोशाकें, मास्क, दस्ताने तथा वेंटिलेटर अभी भी अपर्याप्त हैं। सवाल यह है कि हम कब तक आग लगने पर बाल्टी खरीदने और कुआं खोदने को भागते रहेंगे? गंभीर रोगियों को प्राथमिकता मिले, यह जरूरी है इसलिए कम संक्रमित कम उम्र के मरीजों को घर में ही क्वारंटाइन में रहने की सलाह दी जा रही है जो व्यावहारिक है। पर भारत में औसत परिवार जिस आकार के घरों में रहता है, वहां हर बीमार को एक अलग कमरे में रखना नामुमकिन है।

जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, अधिकतर भारतीय परिवारों में 5+ सदस्य होते हैं जबकि सिर्फ 15 प्रतिशत घर ऐसे हैं कि उनमें किसी एक सदस्य को क्वारंटाइन में रखने के लिए एक पूरा कमरा दिया जा सके। सिर्फ 5 प्रतिशत घर ऐसे हैं जिनमें 4-5 बेडरूम हैं। 69 फीसदी भारतीय परिवार एक या दो बेडरूम के घरों में ही रहते हैं। सबसे गरीब, यानी प्रवासी मजदूरों की बात करें तो उनको इस महामारी में समय पर जरूरी इलाज मिलेगा, इसकी कोई ठोस गारंटी नहीं दी जा रही है। उनके लिए बनाए गए क्वारंटाइन के कमरों तथा खानपान की जो पुष्ट खबरें आ रही हैं, वे बहुत आश्वस्त नहीं करतीं।

जैसा कि हमने पिछली बार भी रेखांकित किया था, कोरोना मौतों की इकलौती वाहक नहीं। आज भी रोजाना तपेदिक, जल संक्रमण, कैंसर, रक्तचाप तथा मधुमेह से भी कई लोग, खासकर गरीब तथा गर्भवती महिलाएं बड़ी तादाद में बिना सही उपचार के मर रहे हैं। इसलिए समय आ गया है कि हम फौरी तरीकों और नाटकीय हवाई पुष्पवर्षा से डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मियों की असली दिक्कतों और चुनौतियों पर पर्दा डालना छोड़ें और सबसे पहले अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार समुचित बजटीय आवंटन करें और उनका निर्वहन राज्य सरकारों को जमीनी जरूरतों तथा स्व-विवेक से करने दें। दिल्ली से इतने विशाल देश को माइक्रोमैनेज नहीं किया जा सकता, और नही अनंत काल तक देश को तालाबंदी में डालना सयानापन है। इस लॉकडाउन के सबसे अप्रिय पहलुओं में है जनता को निरंतर स्कूली बच्चों की तरह डरा धमकाकर, पुलिसिया भय बताकर रोग पर ताला लगाने का इकतरफा सरकारी प्रयास। देश में कुल मामलों में निरंतर आता उछाल दिखा रहा है कि यह कदम कितना कारगर हुआ है।

इसी के साथ अब देश के हुक्मरानों को भारतीय चिकित्सा क्षेत्र का अनियंत्रित निजीकरण रोकना होगा। इस आफत की घड़ी में लड़ाई की कमान हमारे सार्वजनिक क्षेत्र ने तमाम कमियों और अपनी जान के खतरों के बावजूद जिस समर्पण भाव से थाम ली, उसके बाद यह देश और सरकार का दाय बनता है कि वह इस उपेक्षित सार्वजनिक क्षेत्र की सारी चेन जो राजधानी से गांवों तक फैली है, में अविलंब पैसा लगाकर उसे मजबूती दे। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भी भारत सरकार की ही तरह अपने यहां के सार्वजनिक क्षेत्र में कटौतियां लागू करने और निजी क्षेत्र को बढ़ाने के हिमायती रहे। लेकिन जब वह खुद बुरी तरह कोरोना से संक्रमित होकर मरते-मरते बचे, तो ठीक होने के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि अपनी जान बचाने के लिए वह ब्रिटेन की सार्वजनिक स्वास्थ्यसेवा (एनएचएस) के चिर ॠणी रहेंगे।


हमारे यहां जब भीषण महामारी घुसी तो उस समय तुरंत सामने अपनी सेवाएं देने की बजाय अधिकतर निजी हस्पतालों ने यह कहकर शटर गिरा दिए कि संक्रमण से उनके यहां डॉक्टर बीमार हो रहे हैं, या कि उनके पास इस रोग से जूझने की विशेषज्ञता नहीं, या यह कि कोविड मरीजों को लेने से उनके यहां भर्ती रोगियों के लिए संक्रमण का खतरा बनता है। टेस्टिंग किट कम पड़ने पर मदद मांगी गई तो भी अधिकतर निजी लैब्स ने परीक्षणशाला में रोग निदान की व्यवस्था न होने का हवाला दिया या फिर कई ने भरपूर फीस (3,500-5,000 प्रति मरीज) बटोरी और कहा कि सरकार गरीबों के लिए मुफ्त परीक्षण चाहती हो तो वही उनके बिल चुकता करे, वरना वे असमर्थ हैं।

निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र मिलाकर भी 2011 के शोध के अनुसार भारत में प्रति 10 हजार की आबादी की देखभाल के लिए सिर्फ 20 स्वास्थ्यकर्मी हैं जिनमें मात्र 31 फीसदी एलोपैथिक डॉक्टर हैं, शेष नर्स, मिडवाइफ, फार्मासिस्ट या अन्य भारतीय चिकित्सा पद्धति से जुड़े लोग हैं। एलोपैथिक डॉक्टर अपने पारिवारिक कारणों से सरकारी क्षेत्र के लोकल राजनीतिक दबावों और भारी भ्रष्टाचार से उकता कर सही स्कूल प्रणाली तथा आधारभूत ढांचे वाले राज्यों में निजी क्षेत्र में ही काम करना पसंद करते हैं जिनमें अधिकतर दक्षिण में हैं। यह भी (2015 में) पाया गया कि उत्तर के सरकारी हस्पतालों में नर्सों तथा वार्ड ब्वॉयज की बहुत कमी है। सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में भी डॉक्टरों के स्वीकृत पद खाली थे। यह सबको पता है कि भारत में दवा-दारू पर होने वाला अधिकतर खर्चा जिसमें गरीबों की पेट काटकर जुटाई रकम भी शामिल है, लगभग अनियंत्रित निजी क्षेत्र की ही जेब में जा रहा है। इस क्षेत्र के सरकारी नियामक संस्थानों की हालत भी किसी से छुपी नहीं।

अब तक साफ हो गया है कि जब देशों में बड़े पैमाने पर संक्रमण फैलते हैं तो सरकारी स्वास्थ्य सेवा तंत्र ही उनसे सक्षम तरीके से निबट सकता है। इसलिए कोरोना से जूझते हुए भी हमारे चिकित्सा क्षेत्र के रखवालों, कार्यकर्ताओं और नियामक संस्थाओं को निजी क्षेत्र के ग्लैमर से चौंधिया कर उनको हर तरह की रियायत देने और सार्वजनिक क्षेत्र को नाकाफी बजट थमाकर बाबुओं, राजनेताओं के निजी हित स्वार्थों के तहत हांकने की बजाय हमारे विशाल और सक्षम साबित हो चुके सार्वजनिक क्षेत्र पर देश के बजट का कम-से-कम 6 प्रतिशत तक आवंटन करना आवश्यक है। जब यह हो जाए, फिर हमको विशेषज्ञों की मदद से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को हर पैमाने पर सही नियामन से दुरुस्त करना होगा ताकि अगली बार जब चुनौती आए तो हम दुनिया के लिए एक बेहतरीन सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र वाले विकासशील लोकतंत्र की मिसाल बन सकें।

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