कोरोना महामारी ने जीवन-समाज सबकुछ बदल डाला, इस साल से चीजों के आकार लेने की संभावना

कोविड-19 ने हमारे जीवन और समाज को कितने तरीके से बदला, इसका पता बरसों बाद लगेगा। भावनात्मक बदलावों को मुखर होकर सामने आने में भी समय लगता है। इस दौरान बच्चों का जो भावनात्मक विकास हुआ है, उसकी अभिव्यक्ति भी एक पीढ़ी बाद पता लगेगी।

प्रतीकात्मक फोटो
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प्रमोद जोशी

इस साल मार्च में जब पहली बार लॉकडाउन घोषित किया गया, तब बहुत लोगों को पहली नजर में वह पिकनिक-जैसा लगा था। काफी लोगों की पहली प्रतिक्रिया थी, आओ घर में बैठकर घर का कुछ खाएं। काफी लोगों ने लॉकडाउन का आनंद लिया। फेसबुक पर रेसिपी शेयर की जाने लगीं। पर जैसे ही बीमारी बढ़ने और मौत की खबरें आने लगीं, लोगों के मन में दहशत घर करने लगा। मॉल, रेस्त्रां और सिनेमाघरों के बंद होने से नौजवान पीढ़ी को धक्का लगा। अचानक कई तरह की सेवाएं खत्म हो गईं। सिर और दाढ़ी के बाल बढ़ने लगे। ब्यूटी पार्लर बंद हो गए। जोमैटो और स्विगी की सेवाएं बंद। पित्जा और बर्गर की सप्लाई बंद। अस्पतालों में सिवा कोरोना के हर तरह का इलाज ठप।

कोविड-19 ने हमारे जीवन और समाज को कितने तरीके से बदला, इसका पता बरसों बाद लगेगा। भावनात्मक बदलावों को मुखर होकर सामने आने में भी समय लगता है। इस दौरान छोटे बच्चों का जो भावनात्मक विकास हुआ है, उसकी अभिव्यक्ति भी एक पीढ़ी बाद पता लगेगी। इतना समझ में आता है कि जीवन और समाज में किसी एक वैश्विक घटना का इतना गहरा असर शायद इसके पहले कभी नहीं हुआ होगा। पहले और दूसरे विश्व युद्ध का भी नहीं। इसका असर जीवन-शैली, रहन-सहन और मनोभावों के अलावा उद्योग-व्यापार और तकनीक पर भी पड़ा है।

ठहर गई जिंदगी

विमान सेवाएं शुरू होने के बाद इतिहास में पहला मौका था, जब सारी दुनिया की सेवाएं बंद हो गईं। रेलगाड़ियां, मोटरगाड़ियां थम गईं। गोष्ठियां, सभाएं, समारोह, नाटक, सिनेमा सब बंद। खेल के मैदानों में सन्नाटा छा गया। विश्व कप क्रिकेट स्थगित, इस साल जापान में होने वाले ओलिंपिक खेल टल गए।

भारत के परिवारों में शादी सबसे बड़ा समारोह होता है। शादियां हो तो अब भी रही हैं, पर वह बात नहीं। शादी घरों में सन्नाटा है और बैंड बाजे वाले खाली बैठे हैं। भारत में प्रवासी मजदूर अपने घर वापस जाने के लिए हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा पर निकल पड़े। पुराने के ध्वंस और नव-निर्माण के लिए इन दिनों अंग्रेजी में शब्द चलता है ‘डिसरप्शन’। यह ‘डिसरप्शन’ का साल था जिसने जीवन के तकरीबन हर क्षेत्र पर असर डाला।

भारत में मनोरंजन का सबसे बड़ा जरिया सिनेमा है। कोरोना की वजह से बॉलीवुड में सन्नाटा छा गया। अमेजन प्राइम पर ‘गुलाबो-सिताबो’ के रिलीज के बाद ओटीटी, यानी ओवर द टॉप मीडिया ने वैकल्पिक मंच दिया। ओटीटी प्लेटफॉर्मों ने व्यावसायिक फिल्मों को खरीदना और अपने धारावाहिक दिखाना शुरू किया है।

मनोरंजन का नया माध्यम हैं ‘वेब सीरीज’ जो फिलहाल सेंसर की नजरों से दूर हैं। टीवी के समाचार मीडिया का विकल्प बड़ी तेजी से यूट्यूब के चैनलों के रूप में सामने आ रहा है। इन्हें चलाने के लिए स्ट्रीमयार्ड जैसी सुविधाएं हैं। लंबे-चौड़े स्टूडियो की जरूरत खत्म। यह मीडिया के ‘डिसरप्शन’ का साल है। दुनिया से अखबार विदा हो ही रहे थे। उनका आखिरी गढ़ भारत में बचा है। कोविड-19 ने इस दुर्ग में भी दरार पैदा कर दी।

भावनात्मक बदलाव

जर्नल ऑफ ट्रांसलेशनल मेडिसीन ने इटली के नागरिकों के खान-पान और रहन-सहन में आए बदलाव को देखने के लिए एक सर्वेक्षण किया जिसमें 12 से 86 साल के लोगों को शामिल किया गया। इनमें 76 फीसदी महिलाएं थीं। इसमें शामिल लोगों के वजन और कद में आए बदलावों के अलावा खान-पान की आदतों, बाजार में जाकर खरीदारी करने, नींद लेने, धूम्रपान- जैसी तमाम बातों का अध्ययन किया गया। इनमें 48 फीसदी से ज्यादा लोगों का वजन बढ़ गया। धूम्रपान छोड़ने वालों का प्रतिशत केवल 3.3 था। सर्वे में शामिल 3,533 व्यक्तियों में से 15 फीसदी ने ऑर्गेनिक अनाज और फल खरीदने शुरू कर दिए।

भारत में भी ऐसे सर्वे हुए होंगे। नहीं हुए हैं, तो आने वाले समय में होंगे। पर मोटे तौर पर निष्कर्ष है कि लोगों की आदतों में दो बड़े बदलाव आए हैं। एक तो लोगों ने घर से निकलना कम कर दिया है। यह तब की बात नहीं है, जब लॉकडाउन था। लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी यह आदत बनी हुई है। इसके अलावा जिम जाकर कसरत और योगासन वगैरह पर लोग ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि लगातार घर पर सभी सदस्यों के रहने, बार-बार कुछ न कुछ खाने, बीमारी के बारे में बहुत ज्यादा पढ़ने, सोशल मीडिया पर कई तरह की जानकारियां फैलने और ओटीटी प्लेटफॉर्मों पर फिल्में और वीडियो देखने से भावनात्मक रूप से बदलाव आया है।

बच्चों पर असर

मनोवैज्ञानिक इसका अध्ययन भी कर रहे हैं कि जिन बच्चों को लगातार घर में रहना पड़ा और जिन्हें हम उम्रों के साथ खेलने का मौका नहीं मिला, उनके भावनात्मक विकास पर क्या असर पड़ा। ज्यादा मीठी चीजें खाने और खासतौर से कार्बोहाइड्रेट के सेवन से कुछ देर के लिए तनाव में कमी महसूस होती है, पर उससे गलाइसेमिक इंडेक्स बढ़ता है और उसे जज्ब करने के लिए ज्यादा शारीरिक श्रम करने की जरूरत होती है। बच्चों में इस कारण मोटापा (ओबेसिटी) बढ़ने का खतरा रहता है।

जिन्हें कोविड-19 हो गया, उन्हें ठीक हो जाने के बाद भी बीमारी के उत्तर-प्रभावों (आफ्टर इफेक्ट्स) को लेकर आशंकाएं बनी रहती हैं। जिन्हें बीमारी नहीं हुई, उन्हें होने का खतरा बना रहता है। इससे लोगों की नींद में बदलाव आया है। ये सब बातें अंततः शरीर के भीतर होने वाली रासायनिक प्रक्रिया को प्रभावित करती है। ज्यादातर तोंद बढ़ने, सांस लेने में दिक्कत और हृदय की धड़कनें बढ़ने की शिकायतें हैं।

दफ्तर की अवधारणा

इस साल सितंबर में ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट का एक संपादकीय था ‘इज़ द ऑफिस फिनिश्ड?’ दुनिया भर में कर्मचारी काम पर लौट रहे हैं, कहीं कम, कहीं ज्यादा। कर्मचारी हों या मालिक, कार्यालय भवन के मालिक हों या सरकार- सबके मन में सवाल है कि क्या दफ्तर की अवधारणा खत्म हो रही है?

ट्विटर के प्रमुख जैक डोरसी ने कहा है कि हमारी कंपनी का स्टाफ ‘हमेशा’ घर से काम कर सकता है। हालांकि नेटफ्लिक्स के संस्थापक रीड हेस्टिंग्स का कहना है कि घर से काम निहायत नकारात्मक समझ है। बात सही हो या गलत, दुनिया का 30 ट्रिलियन डॉलर का प्रॉपर्टी बाजार इस अंदेशे से हिल गया है।

अभी कोविड-19 का हमला जारी है। अभी डब्ल्यूएफएच (वर्क फ्राॅम होम), यानी घर से काम चल रहा है, पर जब सब कुछ सामान्य हो जाएगा, तब क्या होगा? ऑफिस की अवधारणा के सहारे प्रॉपर्टी ही नहीं, फर्नीचर, सजावट, परिवहन के साधन, बल्कि सार्वजनिक परिवहन, कम्प्यूटर समेत दफ्तरों में काम आने वाले कई तरह की मशीनरी के कारोबार जुड़े हुए हैं। घर से काम होगा, तो सुपरवाइजरी काम कम हो जाएंगे। एचआर की जरूरत कम होगी वगैरह-वगैरह।

दो सौ साल पहले भाप की ताकत ने फैक्ट्रियों को जन्म दिया। मशीनों पर काम करने वाले श्रमिकों का नया वर्ग पैदा हुआ। विशाल कॉरपोरेशनों की कतारें खड़ी हो गईं। नए-नए खुले ऐसे दफ्तरों के प्रबंधन के लिए स्टाफ की जरूरत हुई। प्लानिंग की मीटिंगों, मेमो, इनवॉयस और दफ्तरों के काम आने वाली तमाम स्टेशनरी का जन्म हुआ। इन सबके समांतर सरकारी दफ्तर भी खुले। स्टाफ में संवाद और संचार की जरूरत हुई। उन्हें कारों, बसों या दोपहियों पर दौड़ लगानी पड़ी। मुख्यालय आने या मुख्यालय से जाने का चलन शुरू हुआ जिसे दौरा कहते हैं। अब जो कुछ नया आने वाला है, उसका पूर्वाभ्यास इस साल हुआ है।

नया दफ्तर

नब्बे के दशक में पीडीएफ और इलेक्ट्रॉनिक डॉक्यूमेंट ने रास्ता खोला था। सन 2000 के बाद से इंटरनेट बैंडविड्थ की कीमतें तेजी से गिरीं। स्काइप, ज़ूम और स्लैक ने रिमोट से काम करने की राह दिखाई। कोविड-19 के पहले ही फ्लैक्सिबल दफ्तर का विचार सामने आ चुका था। अमेरिकन रियल एस्टेट कंपनी ‘वीवर्क’ ने शेयर्ड ऑफिस का काम शुरू कर दिया था। अब आप अर्बन प्लानिंग में बड़े बदलाव देखेंगे।

फोर्ब्स की वेबसाइट पर हाल में एक लेख था- क्या कोविड-19 ने एयरलाइंस उद्योग को हमेशा के लिए खत्म कर दिया है? वजह यही नहीं है कि हवाई जहाजों में सीटिंग तरीके बदलेंगे। वैश्विक बिजनेस कम्युनिटी को इस दौरान ज़ूम, गूगल ड्युओ और स्काइप जैसे तमाम प्लेटफॉर्म मिल गए हैं जो बड़ी वेबिनार भी आयोजित करा देते हैं। रेलवे और बसों के परिवहन से जुड़े सवाल भी हैं।

इस साल 31 दिसंबर की रात आप महसूस करेंगे कि अब सब कुछ वैसा ही नहीं रहा, जैसा इस साल 1 जनवरी की सुबह था। और आने वाले समय में उस दौर की वापसी होगी भी नहीं। बदलाव पहले भी होते रहे हैं, पर एक साल में एकमुश्त इतने बदलाव शायद पहली बार हैं।

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